Friday, December 16, 2011

कहाँ से लाऊँ वो शब्द?

नहीं जानती है तू
कहाँ तक फैला है तेरा वजूद
फूलों की खुशबूओं
दिल तक छूते हर इक स्पर्श
गोधूली से नहाती साँझ
चौके से उठती भीनी सी लहर
धुँध में डूबी सुबह
मस्ज़िद की पहली अज़ान
मंदिरों की संध्या आरती
पहाड़ी नद के नाद
चीड़ के जंगल में झाँकती किरण
बूँदों में भीगे इंद्रधनुष
बच्चों की किलकारी
प्रकृति की हर चित्रकारी
पंछियों के कोरस
'यह कायनात है"
इस अहसास तक में
और, मेरे 'होने" के वजूद में
बस है तू ही तू
मैं बताना चाहता हूँ हर बार
पर क्या करूँ
कमबख्त शब्द ही नहीं मिल पाते
 

Thursday, December 15, 2011

ये साथ एक बार और!

सोचता हूँ कुछ देर सुस्ता लूँ
झील किनारे बैठ कर कहीं
पी लूँ थोड़ा सा मौन
खुद के अंदर उतरूँ
जहाँ बरसों पहले
जाया करता था कभी
हर चीज को फिर
सलीके से सजाऊँ
आईने को साफ कर
वही 'पुराने" कपड़े पहन
नजर भर खुद को भी देखूँ
समय के साथ उग आई
सलवटों पर गौर करूँ
तुझे भी साथ खिंच
वही सब गुनगुनाऊँ
जो बाहर के शोर में
दब गया है शायद
यूँ ही आईने में
फ्रेम कर तस्वीर अपनी
फिर, हम निकल पड़े
नए सफर पर
शोर से दूर, उस ओर
जहाँ बस बातें हो
मेरी-तुम्हारी
आँखें बंद कर हम कहें
ऐ-जिंदगी, ये साथ
एक बार और, एक बार और

Tuesday, December 13, 2011

किरचें!

क्यूँ नजर आती है
दर्द की किरचें यूँ बिखरी हर ओर
संभल कर चलता हूँ, फिर भी
कमबख्त पैर पड़ ही जाता है
चुनने की कोशिश में
हाथ भी लहूलुहान कर बैठा हूँ
यकिं था, एक-एक कर
समेट ही लूँगा इन्हें
पर, बदकिस्मती तो देखो
जिस्म में खून का कतरा न बचा
न भाग, न समेट सकता हूँ
बस, किरचों में ही कहीं
तेरा अक्स खोजा करता हूँ
सोचा था कभी
बिखेरूँगा खुशियों के फूल हर ओर
पर न जाने कैसे
मैं तंगदिल

तेरा दिल तोड़ बैठा
 

Friday, December 9, 2011

मेरा पत्थर-दिल खुदा!

सुना था मैंने
खुदा के दर से नहीं जाता
कोई खाली हाथ
मगर न जाने क्यूँ
चौखट से तेरी
लौटा हूँ हमेशा उल्टे पाँव
यह भी सुना था कभी
तकदीर देती है सभी को
एक मौका जरूर
मगर हम देखते रह गए
जिंदगी यूँ ही तमाम हो गई
कहते तो यह भी हैं कहने वाले
जो करता है कोशिश
जीत हो ही जाती है उसकी
फिर कैसे, कहाँ हुई गलती मुझसे?
खुब लगाया जोर मगर
हार हमेशा हाथ लगी
नहीं है रंजो-गम
कि मैं, पा न सका तुझे
अफसोस तो यह है कि
तू पत्थर-दिल निकली
और मैं खुदा कहता रहा तुझे

Tuesday, December 6, 2011

शर्त!

वह अपनी शर्तों पर
जिंदगी जीता था कभी
अब शर्तों के भरोसे
है जिंदगी उसकी
बहुत समझाया था
काबू में रखना
नामुराद दिल को
दे गया ना यह
तिल-तिल जीने की सजा
माना की प्यार में
कोई शर्त नहीं होती
पर कमबख्त पहली शर्त
ही यह है, कुछ भी करो
मगर इश्क में कोई शर्त न रखो
हम नहीं जानते
सही और गलत
हम तो शर्तिया कहते हैं
'दीवानगी" में हार जाओगे
हर-इक शर्त तुम
 

Monday, December 5, 2011

माया...!

मैं अक्सर उसे कॉलेज आते-जाते देखा करता था। कभी बर्तन मांजते, कभी नल की लाइन में लगे पानी भरते या फिर गर्म लोहे पर घन चलाते। मुझे देख न जाने क्यों मुस्कुराया करती थी वो। बड़ा अच्छा लगता, कभी दिल की धड़कनें हल्की सी तेज भी हो जाया करती। एक बार जब हमारी नजरें मिली तो बरबस ही मैंने हाथ हिला दिया। अजीब लगा और तुरंत भूल सुधार करते हुए मैं तेजी से निकल भागा। ...लेकिन अगले दिन सुबह जब मैं उसके झोपड़े के पास से गुजरा तो मेरी निगाहें एक पल के लिए उधर ठहर गई। वह कहीं नजर नहीं आई। न जाने क्यों हल्की सी निराशा, फिर खुद को झटक मैं बढ़ गया आगे। ...तभी मैं देखता हूँ कि वह चंद कदम दूर खड़ी है और मुस्कुराकर कॉलेज की मेरी सहपाठियों की तरह ही हाथ हवा में लहराकर फुसफुसाई- हाय!!!
उफ्... कितनी सलोनी और आकर्षक। राजस्थानी परिधान में उसका आकर्षण और वह देहाती सा नजर आता उसका 'हाय" मैं कभी नहीं भूल सकता। फिर तो जैसे वह मुझे 'हाय" कहने के लिए ही मेरा इंतजार करती रहती, जैसे ही मैं पहुँचता वह हाथ हवा में लहरा देती। सुबह-शाम बिना नागा किए यह क्रम चलता रहता। मैं भी जैसे सुबह के हाय के बाद शाम का और शाम के हाय के बाद सुबह का इंतजार करता था।
वह होगी मुझसे 5-6 साल छोटी, यही कोई 16-17 बरस की। तीखे नख्श की उस श्यामल लड़की की मुस्कुराहट बहुत ही नशीली थी। बड़ी-बड़ी सी आँखें ढेर सारी बातें पल में कर लिया करती थी। मुझे कई बार लगा कि वह सुबह रात भर का और शाम को दिनभर का चिट्ठा पूछती रहती है और मेरी आँखें बातें करने में इतनी माहिर नहीं थी, इसलिए मैं कभी उसे कुछ बता ही नहीं पाया।
उसका घर या यूँ कहे झोपड़ा सड़क के किनारे बना हुआ था। जहाँ कुछ दो-तीन आदमी नजर आते थे। उनमें से एक बड़ी मूँछों वाला उसका पिता था और बाकी के कौन हैं, मैंने कभी इसमें अपना दिमाग नहीं खपाया। तीन महिलाएँ भी थी। जिनमें से एक अधेड़ उसकी माँ थी और एक भाभी थी, तीसरी का पता नहीं। उसमें भी अपन ने दिमाग नहीं खपाया।
वे लुहारी का काम करते हैं, जिन्हे लोकल भाषा में गाडलिया कहा जाता है। चिमटा, संडसी, कुल्हाड़ी, दराती ऐसे ही आकारों में वे लोहे को गरम कर हथोड़े से पिटकर ढाला करते हैं। मर्द तेजी से गर्म लोहे को पलटा करते हैं और महिलाएँ घन से लोहे पर वार किया करती हैं। मैंने अक्सर अन्य महिलाओं को ही घन चलाते हुए देखता था, वह कभी-कभार ही हथौड़ा मारती थी। लेकिन जब भी वह घन चलाती थी, तो मुझे बहुत मजा आता। शाायद आज भी जब मैं खुद से पूछता हूँ कि ऐसा क्यों था, तो जवाब यही मिलता बस आता था मजा! अब मुझे लगता है वह प्यारी सी लड़की इंसानों को आकार दिया करती थी और मुझे उसकी यह कारिगरी पसंद थी।
कई बार उसकी माँ के आगे बैठी वह जुएँ भी निकलवाती मिली। इस हाल में वह खुद को जब भी मैंरे सामने पाती या तो शरमा कर भाग जाया करती या नजरें इधर-उधर कर लिया करती। अब वह क्यों शर्माती थी, पता नहीं और मैं उसे इस हाल में पकड़कर क्यों खुश होता था यह भी पता नहीं।
वक्त ऐसे ही निकलता रहा। उसे बारिश में भीगते देखा, ठंड में ठिठुरते हुए ठेले पर चाय की चुस्कियाँ लेते भी देखा। एक बार तो उसे चाय पीते देख मैंने भी ठेलेवाले से कट चाय माँगी और पीने लगा। उसने आँखों से पूछा भी- ये गलत है। मुझे जवाब देना नहीं आया। उसने हल्की सी नाराजी दिखाते हुए जल्दी-जल्दी चाय सुड़कना शुरू कर दिया। मुझे यह बड़ा अजीब लगा। सोचा- फिजूल ही बेचारी को परेशान कर दिया। मैं भी चाय जल्दी खत्म कर भागने के इरादे में था, लेकिन वह चाय खत्म कर चुकी थी। उसने अपने कुर्ते की जेब में से 2 का सिक्का निकाला और चाय वाले की ओर बढ़ा दिया। ...पर इस बार मेरी आँखें बोल गई- यह गलत है। लेकिन उसकी आँखों ने तपाक से कहा- क्या गलत है? यही सही है। तुम दोगे तो गलत रहेगा। फिर न मैं बोल पाया और न ही ये आँखें!
ऐसे ही एक साल बीत गया। न मेरे और न उसके इस तरह बातें करने का क्रम टूटा। मैं दिवाली की छुट्टियों में अपने गाँव गया हुआ था। इस बार वहाँ से लौटने में मुझे करीब एक माह लग गया। घरवाले आने ही नहीं दे रहे थे। जब आया तो मुझे कॉलेज जाने के लिए उतना उत्साह नहीं था, जितना उसे देखने का था। मैं अक्सर 10 बजे वहाँ से गुजरा करता था, लेकिन उस दिन 8 से आगे घड़ी की सूई काफी धीरे-धीरे खिसकी। फिर भी मैं करीब साढ़े 9 बजे उसके झोपड़े पर पहुँच चुका था। वह नजर नहीं आई। थोड़ा दिल घबराया, मैंने बाकी के चेहरों को पहचानने की कोशिश की। कहीं पुराने लोग झोपड़ा छोड़कर तो नहीं चले गए। ...लेकिन जो दो-तीन महिला-पुरुष नजर आए, वे वही थे। मैंने खुद से कहा- हो सकता है, वह यहीं आसपास गई होगी। घड़ी देखी और खुद को ढाँढस बँधाया कि आज जल्दी भी तो हूँ। और इतने दिनों बाद लौट रहा हूँ, उसे क्या पता कि आज मैं आने वाला हूँ। मैंने खुद को कोसा- मुझे बता कर जाना चाहिए था। बेचारी रोज इंतजार करती होगी। पर बताता कैसे- मेरी आँखें तो बोल ही नहीं पाती और ऐसे तो हमने कभी बात ही नहीं की है अब तक।
मैं टाईमपास करने के लिए टी स्टॉल पर चला गया। वहाँ कट चाय बोलकर अखबार उलट-पुलट करने लगा। चाय भी खत्म हो गई, लेकिन वह नजर नहीं आई। अब क्या करता? घड़ी देखी, सवा 10 बज गए थे। मुझे चिढ़ भी होने लगी कि मैं यह क्या कर रहा हूँ? क्यों बेफिजूल अपना वक्त जाया कर रहा हूँ। यह सोचते-सोचते ही मैंने एक पोहा भी ऑर्डर कर दिया। चाय वाले ने आश्चर्य से देखा कि सारे लोग चाय से पहले पोहा खाते हैं और ये जनाब बाद में ले रहे हैं। पर मुझे उससे क्या?
पोहा आ गया, खा भी लिया। अखबार भी लगभग चाट लिया। ऐसा करते-करते मैंने 11 बजा दिए, लेकिन उसका कहीं पता नहीं। मैं इंतजार करते हुए बुरी तरह थक चुका था, लेकिन वह नहीं आई। मैं किसी से पूछ भी नहीं सकता था, क्योंकि न तो मैं उसका नाम जानता था और मुझे यह भी समझ नहीं आ रहा था कि मैं उसके घरवालों से क्या पूछूँ?
मैं हताश होकर कॉलेज चला गया। वहाँ सारा दिन ऊथल-पुथल चलती रही कि वह कहाँ चली गई है? मेरा दिनभर कहीं मन नहीं लगा। शाम को भी वहाँ उसे छोड़कर सारे लोग नजर आए। मैंने फिर चाय पी और शाम का अखबार पढ़ा। न चाहते हुए नाश्ता भी कर लिया। ...लेकिन वह कहीं नजर नहीं आई। अब यह क्रम रोज चलने लगा। रविवार को भी उसके लिए मैं सुबह-शाम चाय पीकर आने लगा, लेकिन वह नजर नहीं आई।
उसने नजर आना बंद कर दिया था। मैं भी अब आँखों की भाषा समझना बंद कर चुका था। ऐसे की दो-तीन माह बीत गए, वह नजर नहीं आई। खैर, मैं रोज उसको खोजता, नहीं मिलती तो खुद से ही कहता- अच्छा हुआ साली नजर नहीं आ रही है। वैसे भी कहाँ अपना दिल लगा हुआ था। वह तो यूँ ही टाईमपास थी... पर क्या वाकई वह टाईमपास थी? दिल कहता- पर साली गई कहाँ? माना कि प्यार नहीं था, पर कुछ तो था! सालाऽऽऽ इसी 'कुछ" के कारण मैं सुबह-शाम वहाँ कुछ नजर आ जाए इस उम्मीद से देखा करता था।
अब मैं मान चुका था, कि वह कहीं चली गई है। मेरी निगाहें उस रास्ते में उसे ढूँढना कभी नहीं भूली। इधर कॉलेज में मेरी सहपाठी सोना अब बहुत अच्छी दोस्त बन चुकी थी। एक दिन मैंने उसे अपनी सारी व्यथा बताई। उसे यह भी बताया कि वह प्यार नहीं 'और कुछ" है। कुछ खास! सोना भी यह मानती थी कि हाँ, कुछ जज्बात ऐसे हैं, जो रिश्तों के मोहताज नहीं होते। उन्हे रिश्तों का नाम देना, जज्बातों की बेइज्जती है। दुनिया नहीं समझेगी, लेकिन मेरी उस दोस्त ने समझ लिया। सोना मुझे मेरे ही टाईप की लगी। मुझे लगना लगा कि यही वह है जो दुनिया में मुझे सबसे बेहतर समझ सकती है। मेरे जज्बातों की कद्र कर सकती है और मेरे द्वारा बनाए गए उन अनगिनत रिश्तों की भी।
अब वह भी मेरे साथ कई बार मेरे रूम तक आती और हर बार वह भी 'उसे" खोजती हुई ही आती। मुझे कई बार यह लगता कि सोना उसे ढूॅढकर मुझे तोहफा देना चाहती हो। मुझे उसका ढूॅढना बहुत भाता रहा है।
एक दिन सोना बहुत उत्साह के साथ रूम पर पहुँची। उसके चेहरे की चमक देखकर ऐसा लग रहा था मानों उसे किसी खजाने का पता चल गया हो। वह चहककर बोली- आज मुझे वो दिखी। मैंने कहा- कौन? बोली- अरे वही, तुम्हारी लंबी तलाश। मैं खुशी से उछल पड़ा। मैंने पूछा- तुमने कैसे पहचाना? तो बोली- जिस तरह से तुमने बातें की, उसके बारे में बताया, उसके अनुसार तो मैं भीड़ में भी उसे पहचान जाऊँ। मैं तुरंत ही सोना के साथ चल दिया।
वाकई में वही थी। इन कुछ महिनों में वह थोड़ी भरी-भरी नजर आने लगी थी। ...पर खुबसूरत वैसी ही। जैसे ही मुझे और सोना को उसने देखा, पहले तो आश्चर्य से आँखें फैल गई। फिर उसने आँखों से पूछा- यह कौन? पहली बार मेरी आँखें बोली- मेरी गर्लफ्रेंड! वह फिर बोली- क्या? मेरी आँखों का जवाब था- छोड़ो! तुम कहाँ थी?
अभी हमारी बातें चल ही रही थी कि उसकी माँ ने पूछा- ये कौन हैं? उसने हल्के से मुस्कुराकर कहा- म्हारा दोस्त! उसकी माँ, भाभी और जो दो आदमी थे वे हँसे। हमने उस ओर ध्यान नहीं दिया। माँ बोली- बैठा ना इनको, चाय पिला। उसने आँखों से पूछा और हमने मना कर दिया।
सोना ने पूछा- तेरा नाम क्या है? जबाव- माया! सोना ने मेरा प्रश्न छिनते हुए पूछा- इतने दिनों से कहाँ थी? वह हल्के से मुझे देख मुस्कुराई, बोली- मेरी शादी हो गई! मेरे मुँह से निकला- क्या? उसकी आँखों ने मुझे देखा भर। सोना ने पूछा- कहाँ? वह बोली- राजस्थान, वहीं रेवे है वो! सोना- क्या करता है? जवाब- लुहारी, और कई करेगो।
सोना- कैसा दिखता है? बस हँसी... कितने दिन रहेगी? जवाब- हूँ, एक महिना। फिर उसने हमारा नाम भी पूछा। नाम बताने पर उसमें उसने खास रूचि नहीं दिखाई। मेरी तरफ देखकर सोना को बोली- दीदी, तम बहुत अच्छी हो। मैं हल्के से मुस्कुराया।
अब माया से कभी-कभीहमारी बातें भी हो जाया करती थी। मुझे आते-जाते वह अपने परिजनों के सामने ही हाय कर दिया करती। मैं अब पहले की तुलना में खुद को उसके मामले में ज्यादा मुक्त महसूस करने लगा था। कई बार वहाँ से गुजरते हुए मैं उसके परिजनों से हँसी    -मजाक भी कर लिया करता था। उसके घर चूल्हे पर खाना बनता था। कई बार मोटी-मोटी रोटियाँ बनते देख मेरे मुँह में बरबस पानी आ जाया करता।
हाँ, इन दिनों वह आँखों से कम बातें करने लगी थी। अपने बनाव-श्र्ाृंगार पर उसका विशेष ध्यान होता था। वह भी आम लड़कियों की तरह गहरे रंगों की लिपस्टिक पोत लिया करती थी। फैशन उसने सड़क से गुजरती लड़कियोंं से अपना लिया था। कई बार वह मेकअप के मामले में शहरी लड़कियों को हराती नजर आई। फिर भी मुझे वह वैसी ही लगती, जैसी वह पहले दिन से लगा करती थी। अब मैं चाय पीते हुए उससे भी पूछ लिया करता और वह अक्सर चाय के लिए तैयार भी हो जाया करती। हाँ, ठेलेवाले और वहाँ आने वाले लोगों के लिए यह बड़ा अजीब था। पर, हमेें इसकी जरा भी चिंता नहीं थी। एक दिन मैंने उससे पूछा- तुझे खाना बनाना आता है? उसने आँखें गोल कर कहा- हाँऽऽऽ। मैंने कहा- मैं मान ही नहीं सकता। बोली- खाओगे?
अब की बारी मेरे हाँ करने की थी।
अगले दिन वह झोपड़े से कुछ दूरी पर मिली। वहीं जहाँ पहली बार उसका हाय मिला था, तबसे लेकर अब तक वह 'हाय" यूँ ही वहाँ खड़ा नजर आता है। आज पता नहीं क्यों, उसने मुझे देखते ही हाय नहीं किया। अजीब लगा, पास गया तो वह हौले-हौले मुस्कुरा रही थी। उफ्, वही हँसी, जिस पर सबकुछ हार जाने को दिल चाहता है। उसने लुगड़े (राजस्थानी साड़ी) में से हाथ निकालकर कागज की पुड़िया मेरी ओर बढ़ा दी। पूछा- क्या है? बोली- देख लो नी। फिर एकदम से बोली- इहाँ नहीं और उहाँ भी अकेले में। मैंने पूछा- ऐेसा क्यों? बस वह हँसते हुए तेजी से चल दी, बोली- देखना तो सरी।
मैंने वह पुड़िया कॉलेज केंपस में आते ही पार्किंग शेड में बैठकर खोली। देखा, मक्का की दो मोटी रोटियाँ और लहसून की लाल सूर्ख चटनी! मुझे रोटी में उसका हँसता हुआ चेहरा नजर आ गया। आँखें पूछ रही थी- आती है कि नी, रोटी बनाते? मैंने खाने भी कभी इतना उतावलापन नहीं दिखाया था, जितना उस दिन कोर तोड़कर गप कर गया। वाकई अद्भुत! मुझे बहुत अच्छा लगा। ...लेकिन एक रोटी और चटनी मैंने सोना के लिए बचाकर पुड़िया बैग में रख ली। फिर, सोना को लेकर कैंटिन गया और सारा किस्सा सुनाया। उसे बहुत मजा आया और तुरंत पूछा- कहाँ है मेरा हिस्सा? मुझे पता था सोना को मक्की की रोटी बहुत पसंद है, लेकिन इतनी पसंद होगी यह पहली बार पता चला। उसने बहुत मजे से चटनी और रोटी खायी और माया की 'माया" की जमकर तारिफ की।
अगले ही दिन सोना मुझे लेकर माया के पास पहुँच गई। सोना जैसे ही उसकी तारिफ करने वाली थी, उसने रोक दिया। इशारे से बताया कि घरवालों को थोड़े ही मालूम है। फिर शिकायती लहजे से उसकी आँखें बोली- मैंने तो आपके लिए ही रोटी बनाई थी, दीदी को क्यों दी? मेरी आँखों ने भी जवाब दिया- समझा कर यार! वो बोली- हाँ, हाँ... जानती हूँ सब!
एक दिन वह मुझे चाय पीते देख वहाँ चली आई। मैंने पूछा- चाय। उसने कहा- हाँ। फिर धीरे से बोली- कल हूँ जा री हूँ। मैं चौंका- कहाँ? फिर बोला- ओह, ससुराराल। वह- हाँ, थोड़ी निराश होकर बोली- जानो पड़ेगो नी। मैं अनिच्छा से मुस्कुराया, बोला- हाँ, मजे करना। वह बोली- वह तो इहाँ है, वहाँ तो... पूछा- वहाँ तो क्या... बोली- कुछ नहीं काम और घरआलों की याद... बस। मैं- दारू पीता है क्या वो। वह- हाँ और अच्छा भी नी लागे। परेशान करता है...बस! मैं- मत जा, मना कर दे। वह आश्चर्य से आँखें गोल कर- सुसराल तो जानाईज् पड़े। सबली औरतां जाय। मैं- मना करके तो देख। वह- देख ली, माँ ने खुब गार दी। भई छोड़ने जाएगा। मैं कुछ नहीं बोल पाया, बस उसे देखता रहा। हाँ, दिमाग जरूर उबल रहा था। मंथन चल रहा था कि आखिर क्यों होता है ऐसा। माँएँ ही अपनी बेटियों को क्यों जुल्म सहने का पाठ पढ़ातीं है? जब वे ससुराल में परेशान हैं, तो फिर उनकी तकलिफों से क्यों मुँह मोड़ लिया जाता है? क्या शादियाँ करके बेटियों के बोझ से मुक्त होने की मानसिकता नहीं है ये। खैर, यह तो सड़क पर बने एक झोपड़े की बेटी की दास्ताँ है, लेकिन यही हाल तो शहरों का है, यहाँ बने कई आलिशान घरों का भी हाल इससे जुदा तो नहीं?
वह चली गई! उसका 'हाय"वहीं सड़क पर रात-दिन चौबीसो घंटे मुझे मिल जाया करता। बड़ा अच्छा लगता। दिल कहता- यदि ईश्वर तू है, तो उसे खुश रखना। उसकी याद मेरे जेहन में मीठी याद रही। फिर एक दिन शहर की खुबसूरती की जद में वह झोपड़ा भी आ गया। कॉलेज से लौटते हुए वह चूल्हा, पलंग, गोदड़ियाँ, संडसी, चिमटे नजर नहीं आए। चायवाला भी दूर कोने में नजर आया, पूछा- क्या हुआ? बोला- साहब, सड़क चौड़ी होना है। सारे झोपड़े तोड़ दिए गए, जो सामान नहीं हटा पाए, वह जब्त हो गया। पूछा- वह झोपड़ा कहाँ गया? बोला- पता नहीं, सामान समेट कर चले गए। आगे ढेरा डाल लिया होगा उन्होंने। उनका क्या है, वे तो खानाबदोश हैं। आते-जाते रहते हैं। मरण तो हमारा है। आगे की बात मैंने नहीं सुनी और तेजी से शहर से बाहर जाती सड़क की ओर बढ़ गया। वे लोग कहीं नहीं मिले।
मैं उस रात करीब दो बजे लौटा। मेरा रूम पार्टनर और दोस्त मुझे खोज रहे थे। मैंने उन्हे कुछ नहीं बताया। उन्हे बताने का कोई सार नहीं था। एक तो शुरू से कहानी बतानी पड़ती, दूसरे सहानुभूति की बजाय मेरा मजाक ज्यादा उड़ाया जाता। खैर, अगले दिन सोना को मैंने बताया कि अब कभी माया से हमारी मुलाकात नहीं होगी। ऐसे ही करीब 5-7 बरस बीत गए, अब माया कभी-कभार ही याद आती थी। ...और जब भी याद आती, खुशियाँ हजार दे जाती थी। इस बीच हमने शादी कर ली। मेरी दुल्हन वही माया की दीदी- सोना बनीं। अब भी हम उधर से गुजरते, कई बार माया का जिक्र हो जाया करता।
एक दिन शाम को सोना घर लौटी। काफी उदास। आते ही गले मिलकर सुबकने लगी। मैं घबरा गया, पूछा- क्या हुआ? वह कुछ भी बोल नहीं पा रही थी, बस चुप थी, बिल्कुल चुप! फिर धीरे से बोली- उस बेचारी का क्या दोष था, किस बात की सजा मिली उसे? मैं कुछ भी नहीं समझ पा रहा था, बड़ी मुश्किल से उसे संभाला। वह कुछ नॉर्मल हुई तो बोली- आज मैंने माया को देखा। मैं बोला- यह तो अच्छी बात है ना, फिर उदास क्यों हो? कहाँ मिली वह? बोली- रास्ते में, शायद अब तुम्हे भी वह रोज मिलेगी। जो शहर के बाहर खंडवा की ओर सड़क जा रही है, वहीं उनका डेरा है।
उसने बताया- मैंने माया को देखते ही गाड़ी रोकी। वह देखते ही चहक गई। मैंने पूछा भी कि कब आई? बोली- कुछ ही दिन पहले। पर दीदी भईया कैसे हैं? मैंने कहा- अब वे मेरे पति हैं। वह बहुत खुश हुई। बोली भी- मुझे मालम था। मैंने पूछा- पर तुझे क्या हुआ है? कैसी मुरझा गई है। बोली- बीमार थी नी। मैंने पूछा- क्या हुआ? बोली- ज्यादा तो नी मालम, पर म्हारा मरद का पाछे बीमारी पड़ गई थी। हूँ पर भी आई गई। हूँ तो बची गई पर ऊ नी बच्यो! मुझे गहरा झटका लगा- पूछा क्या हुआ था तेरे मरद को? बोली- बड़ा डॉक्टर ने कई जाँचा की। 'एस" नाम की बीमारी थी वा। शरीर खुब फुली ग्यो और मर ग्यो बापड़ो। यह बताते-बताते सोना फिर छलक गई। मेरा पूरा शरीर सुन्ना पड़ गया था। कुछ भी सुनाई देना बंद हो गया। बहुत देर तक हम ऐसे ही बैठे रहे। मैंने पूछा- वह कैसी है? सोना बोली- वह ठीक है, उसने बताया कि अस्पताल से दवाई मिलती है। बिना नागा उसे दवाईयाँ लेना होती है। मैंने पूछा- बच्चे? सोना बोली- नहीं है। मुझे थोड़ी राहत हुई।
सोना ने कहा- कल मिलेंगे हम उससे। ...पर मैं बुरी तरह डर गया। मैं चाहता था उससे मिलना, लेकिन उसका सामना करने की ताकत मुझमें नहीं थी। मैंने सोना को इंकार कर दिया। हाँ, अब मैं वहाँ से गुजरता जरूर हूँ, गाड़ी के शीशे चढ़ाकर। कई बार दूर से उसे देख भी लेता हूँ। अब वह बड़ी लगने लगी है। मुस्कान वैसी ही, शायद कभी बदलेगी भी नहीं। हाँ, थोड़ी चेहरे और आँखों की चमक कम नजर आती है। अब वह घन काफी चलाने लगी है... शायद जिंदगी को आकार देना सिख लिया हो या उसे मालूम चल गया हो कि इसे सही आकार खूब पीटकर ही दिया जा सकता है। सोना अब भी मिलती है उससे। हाल भी पूछती है और दवा रोज लेते रहने की हिदायत भी देती है। वह मुझसे ज्यादा अच्छी दोस्त सोना की बन चुकी है। माया कभी-कभी मेरे बारे में सोना से हाल पूछती है। कहती भी है- आजकल याद नी आए म्हारी? सोना टाल जाती है, बोलती है टाईम नहीं मिलता। इस टाईम नहीं मिलता पर अक्सर वह फिकी मुस्कान दे देती है। मानों सोना को चुनौती दे रही हो- मेरे लिए टेम नी है। ऐसो हो ही नी सके। मैं और सोना भी जानते हैं- ऐसा हो ही नहीं सकता।
मुझे कई बार उससे मिलने की तीव्र इच्छा होती है। सोचता हूँ- सबकुछ छोड़कर उसके पास भाग जाऊँ और कहूँ- क्या हो गया है तुझे? पर ठीक ही तो है, उसे नहीं पता कि उसे क्या हुआ है? क्या कर लेती वह और मैं? फिर ले तो रही है वह दवा, उस गलती की जो उसने की ही नहीं। वह तो जाना ही नहीं चाहती थी, वहाँ! माया... ओ... माया... क्या करूँ तेरा...!

Saturday, December 3, 2011

साथ तेरा...

कई रातें गुजारी है हमने
यूँ जागते
मानों फिर ऐसी रात
लौट कर ना आएगी
कई-कई बार बित जाते हैं
घंटों यूँ बातों में
मानों फिर कभी
हम ना मिल पाएँगे
कई बार नापी है ये सड़कें
खुली आँखों से यूँ ख्वाब देखते
मानो फिर ऐसे सफर पर
हम ना निकलेंगे
सफर दर सफर
मंजिल दर मंजिल
उम्र के हर पड़ाव पर
ऐसे ही जीना है मुझे
संग तेरे
कि, अब साथ तेरा
आखिरी हो या
यह बन जाए पहला
 

आस

खुशी की चाह में
जब बढ़ने लगे कदम
उसने कहीं ओर क्यूँ
खोज लिया अपना ठिकाना
हम तो बेशर्म इतने
पहुँच गए उस घर तक भी
लेकिन उस जालिम ने
दरवाजा ही ना खोला
हलक सूख जाने तक
खूब नाम उसका पुकारा
तब, शक्ल देख उसने कहा
ये बता आखिर तू कौन है हमारा?
लगता था मुझे
पसंद है उसे साथ मेरा
लेकिन, जब होश आया तो
मिला गमों के बिच बसेरा मेरा
 

Friday, December 2, 2011

'उम्मीद"

'उम्मीद" भी होती है
कितनी नामाकूल
हर बार झाँसा देकर
ये जब्त कर लेंती हैं संवेदनाएँ
लगता है बस अब
ठीक हो जाएगा सबकुछ
कुशल राजनेता की तरह
देती है सुहावने आश्वासन
हर विपरीत परिस्थिति के लिए
होता है इसके पास दिवास्वप्न
कईं बार तो इसके भरोसे
हो जाती है उम्र तमाम
मौत के मुहाने पर भी
यह बचने की दे देती है उम्मीद
अच्छा ही है तुझे नजर
नहीं आता किसे देना है दिलासा
यह भी अच्छा है कि
झूठा ही सही जगाती तो है आशा
सोचता हूँ
तू न होती तो
कभी असंभव, संभव न हो पाता
तूफानों से लड़ना न आता
असफलता पर न छटपटाता
यूँ जीतता भी न जाता
हर बार सुनहरे ख्वाब न सजाता
मत पूछ ऐ-फरेबी
तेरे बिना तो मैं
जीना ही भूल जाता

Wednesday, November 30, 2011

मेरी दोस्त बनेगी...?



पता नहीं क्यों, मैं उस रात अपने फ्लेट पर उसके इस तरह आने से बहुत असहज था। वैसे असहज होना भी चाहिए, दोस्तों की जिद के कारण क्यों मैंने उस लड़की को अपने एक कमरे के फ्लेट पर लेकर आने की इजाजत दी। फिर लगा, सालाऽऽऽऽ ये दोस्ती भी कई बार क्या-क्या नहीं करवाती है। मेरे लिए भी ये लोग कई बार बुरी तरह पिटे। मजाल है कि कोई कॉलेज में मुझसे बहस भी कर ले। कैसे, ये उस पर पील पड़ते हैं। कई बार घर से पैसा देर से आने पर कड़के का बोलबाला रहता है, तब ये दोस्त ही तो हैं जो कैंटिन पर चाय, समोसे की जुगाड़ बनते हैं। सिनेमा का टिकट हो या साथ की लड़कियों को घूमाने ले जाने का चक्कर। ये दोस्त है ऐसे वक्त मेरे तारणहार होते हैं। बस एक डायलॉग के साथ- जा, तू भी क्या याद रखेगा! ...और सचमुच मैं याद नहीं रखता रहा हूँ। आज तक मैंने दोस्ती में कभी हिसाब नहीं रखा। सोचता हूँ अब उन दिनों को तो लगता ही नहीं कि कभी मैंने कोई चिंता अपने दिल में पाल के रखी हो। बस दोस्तों को बोल दो, वे क्वार्टर का इंतजाम करके आपके फ्लेट पर आएँगे और अपना तमाम ज्ञान उडेल देंगे। बोलेंगे चिंता को प्यारे 'एल" पर लेना सीख जा, नहीं तो किसी दिन तेरी 'जी" मर जाएगी। उस वक्त वाकई मैं हर चिंता-फिक्र को 'एल" पर या यूँ कहें दुनिया को उस पर रखकर दोस्तों के दम पर घूमता था।
खैर, उस दिन करता भी क्या...? दोस्तों को न जाने क्यों पीने के बाद जैसे धुन सवार हो गई कि कुछ भी हो आज तो एक लड़की लेकर आएँगे ही। दबा कर लेने का मन कर रहा है। मुझे उनका ये 'लेना" कभी रास नहीं आया, पर सुरेश तो जैसे मानने को तैयार ही नहीं था। वह अड़ गया और चिल्ला-चिल्लाकर कहने लगा कि तुझे नहीं करना है तो मत कर। हमें तो यार जिंदगी के मजे लेने दे। तू साला, ना पीता है और ना ही किसी के साथ सोता है। अकेले कैसे इस फ्लेट में काट रहा है? मुझे बहुत चिढ़ भी हुई, दिल तो करा सालो को लतिया कर निकाल बाहर करूँ। फिर वही मजबूरी, ये लतियाने के बाद भी मेरे पास ही आएँगे। जैसे मैं इनते पास जाता रहा हूँ। ...और लतियाने के बाद ये साले चिल्ला-चिल्लाकर सड़क पर अपनी इज्जत का फालूदा भी तो बना देंगे।
मैं काफी देर तक अड़ा रहा कि यार, ये गलत है। समझाया भी कि किसी आसपास वाले को पता चला तो? कितना मानते हैं वे मुझे। पड़ोसवाली आंटी तो मुझे बेटा ही मानती है। मम्मी-पापा भी जब भी यहाँ आते हैं, तो कहते हैं कि संभालना इसे। आपके पास छोड़े जा रहे हैं। कुछ गड़बड़ करे तो फोन घूमा देना और आप लोग तो इसके कान उमेठ भी सकते हो। ऐसा नहीं है कि आंटीजी ही मुझे बेटा मानती है, मैं भी तो उन्हे माँ सा सम्मान देता हूँ। हर छोटे-बड़े काम और कार्यक्रम में हमेशा हाजिर रहने वाला जीव हूँ मैं उनके लिए।
पर सालाऽऽऽ सुरेश तो अड़ गया और गिरीश, दिनेश भी कहाँ माने? सुरेश ने तो मेरे ना-ना करते रहने के दौरान ही किसी असलम को फोन लगा डाला।
असलम बोल रहा था- इतनी रात गए भी कोई लड़की मिलेगी? पहले बताना चाहिए ना। सुरेश ने काफी मान-मनौव्वल की या यूँ कहे बारी-बारी से सारे दोस्त उसके सामने गिड़गिड़ाए। असलम बोला- देखता हूँ। एक लड़की है तो। साली काफी अड़ियल है, पर करारी भी। यदि मान गई तो समझो तुम लोगों की तो निकल पड़ी। उसने सुरेश को चेताया भी कि वह बहुत सिरफिरी है। थोड़ी बियर-वियर पिला देना। तीन लड़कों से ज्यादा को वो नहीं देती... एक छोटा भाई भी साथ आता है उसके। रुपए वही लेगा... उसे रुपए से कोई मतलब नहीं है!
असलम ने कहा कि 10 मिनट बाद फोन लगाओ। मैं उसके भाई से बात करता हूँ कि क्या वह तैयार है। थोड़ी देर बाद असलम को फोन लगाया गया। असलम ने उनको खुशखबर सुनाई कि आज पिंकी तैयार है। असलम ने अनुरोध भी किया कि ध्यान रखना वह सनकी है। नाराज मत करना उसे। सुरेश बोला- अरे... यार! आज साली को बिल्कुल घरवाली बनाकर रखेंगे, तू बस ये बता कि माल कितना लगेगा?
आखिरकार तीन हजार में सौदा तय हुआ। असलम ने साफ तौर पर बता दिया कि दो हजार उसके भाई को देना और सुबह मुझे एक हजार दे देना। सुरेश ने असलम से भावताव करने की कोशिश की कि यार उसका तो ठीक लेकिन अमा यार तुम आजकल ज्यादा मुँह फाड़ने लगे हो। असलम ने कहा- यार जैसा माल होगा, किमत भी तो वैसी ही होगी। पुराता है तो बोलो, नहीं तो जब गुदा ना हो तो हाथ ही हिला लिया करो। सुरेश को ताव आ गया, उसने कहा ठीक है प्यारे, माल अच्छा हुआ तो दो सौ और ज्यादा ही दूँगा। पर सालाऽऽऽऽ गुदा की बात न कर! कितनी ही लोंडियाँ इन टांगों के नीचे से निकल चुकी है। जैसे-तैसे दूसरे दोस्तों ने मामले को शांत किया और असलम ने मान लिया कि वाकई में सुरेश के पास गुदा है और कई लौंडियाँ नीचे से निकल चुकी है।
असलम ने बताया कि फलाँ जगह पिंकी और उसके भाई को लेने जाना पड़ेगा। तो दोनों को लेने के लिए दो बाइक से लड़के गए। वह आई तो बिल्कुल लड़के के भेष में थी। बालों का जुड़ा बाँधकर टोपी पहने थी। जींस और एक ढीला सा डेनिम का शर्ट पहने थी। लगता था जैसे किसी ग्राहक का छिनकर लाई हो। उम्र होगी 21-22 वर्ष। तीखे नक्श की गोरी सी उस लड़की में एक अजीब आकर्षण लगा। साथ में एक सिकिया सा लड़का था। जिससे सुरेश और अन्य दोस्त घेरे खड़े थे और कुछ फुसफुसा रहे थे। इतने में वह थोड़ी तेज आवाज में बोली- छोटू बात तीन लोगों की हुई है। यहाँ तो चार है, कह दे धंधे में ये चुतियापा नहीं चलेगा। तीन की बात हुई थी तो बस... तीन!
मैं पहले से ही इन सारी बातों से चिड़ा हुआ था। भड़क गया और उसकी तरफ देखकर बोला कि यहाँ तीन ही के लिए बुलाया है। मैं इन चुतियापो में नहीं पड़ता।
उसने एक पल के लिए मुझे देखा और हल्के से मुस्कराई। पता नहीं क्यों मुझे वह चेलेंज देती नजर आई। फिर उसने चिल्ला कर कहा- असलम ने लगता है तुम लोगों को एक बात नहीं बताई। सभी बोले-कौन सी? वह बोली-मेरी बियर कहाँ है? सुरेश ने सिर पिट लिया यह सुनकर। वह बोला- सालाऽऽऽ इंतजाम करते-करते बियर लाना तो भूल ही गए। तो वह बोली- छोटू चल, नहीं पुरेगा मेरे को तो। दोस्त छोटू को खिंचने लगे, तो उसने भी बोल दिया- दीदी की बात तो माननी पड़ेगी और खाने में क्या है? इस पर सुरेश ने घड़ी देखी 11 बज रहे थे। वह बड़बड़ाया- शायद दुकान खुली होगी, बेनचो... 10 बजे कौन दारू की दुकान बंद होती है, शटर आधा झुकाकर साढ़े 11 बजे तक तो खुली रहती ही है। वह पिंकी की तरह आँख मारते हुए बोला- चिंता मत कर मेरी जान, अभी तेरे लिए बियर और खाने को लेकर आता हूँ। फिर मजे करेंगे।
उसने सुरेश या किसी को भी जरा सी भी लिफ्ट नहीं दी। टोपी निकालकर उसने पास ही टेबल पर पटक दी और जुड़ा खोल दिया। बालों को बड़ी अदा से झटकते हुए वह शर्ट उतारने लगी। मैंने कहा कि यह सब मैं बाहर चला जाऊँ तब करना तो उसने कनखियों से मुझे देखा और बात अनसुनी करते हुए बटन खोलना जारी रखा। मुझे गुस्सा तो आया पर मै उसकी नजरों को देख कुछ बोल ही नहीं पाया। उसने शर्ट निकाल दिया, जब मेरी नजर उसकी ओर गई तो वह मुस्कुरा रही थी। शर्ट के अंदर एक टाइट टी-शर्ट पहने थी वो, शायद यही दिखाना चाहती थी। फिर मुझे बताने के लिए यूँ ही बड़बड़ाई कि इन साले हरामी पुलिसवालों से बचने के लिए क्या-क्या करना पड़ता है। कोई कुछ कमा ले, तो इनके बाप का क्या जाता है? मैंने उसकी बात को सुनकर भी अनसुना कर दिया।
इधर सुरेश एक दोस्त को अपने साथ ले गया था और एक छोटू से गपिया रहा था। गपिया क्या, वह ऐसा लगा रहा था मानो छोटू की चमचागिरी कर रहा हो। मुझे उसे खुब लतियाने की तीव्र इच्छा हुई। मैं कमरे में ही कुर्सी लगाकर बैठ गया। इन लोगों के लिए मैंने कमरे के बिच में एक गद्दा डाल दिया था, ताकि ये मेरा पलंग खराब न करे। वैसे भी जब कभी मेरे दोस्त आते हैं, तो मैं इसी प्रकार गद्दा डाल दिया करता हूँ। गद्दे पर कुछ अखबार बिछाकर बिच में दारू और खार मंजन (नमकीन) रखकर दोस्त इर्द-गिर्द बैठ जाते हैं। मैं भी उनके बिच नहीं पीने के बावजूद आ फँसता हूँ और उनकी बातों का रस लेते हुए खार मंजन खाता रहता हूँ। कई बार इस महफिल में मैं खुद को बिन बुलाया मेहमान समझता रहा हूँ। शायद ऐसा दुनिया में कुछ ही लोगों के साथ होता होगा कि कोई अपने की घर में मेहमान बन जाए और मेहमान, मेजबान बन आपको खार मंजन का दुश्मन समझने लगे। इस पार्टी में अक्सर मैं फ्लेट और सुविधाओं के टैक्स के रूप में एक बड़ी थम्सअप और खाने में नॉनवेज की फरमाईश रखता रहा हूँ, जो मेरे दोस्त गालियाँ देकर पूरी करते रहे हैं। ये और बात है कि कई बार मैं फरमाईश ना भी करूँ, तो वे टैक्स लेते आते हैं और हमेशा की तरह का डॉयलाग कि 'तू भी क्या याद रखेगा" सुना देते हैं। मैं हमेशा की तरह उसे याद नहीं रखता रहा हूँ।
तो छोटू के साथ वह लातें खाने लायक मेरा दोस्त गद्दे पर बैठा था और मैं कुर्सी पर। इधर पिंकी चुपचाप अपने बैग में से स्कर्ट निकालकर मेरे सामने आ खड़ी हुई। मैं एक पल समझ नहीं पाया कि यह चाहती क्या है? मैंने आश्चर्य से उसकी ओर देखा, तो बोली गोदी में बैठने नहीं आई हूँ। बाथरूम किधर है, जींस बदलना है। मैंने फिर चिढ़कर कहा- वैसे भी मुझे शौक नहीं आ रहा बैठाने में और बाथरूम की ओर इधारा कर दिया। थोड़ी देर सन्नााटा छाया रहा। फिर न जाने क्यों मैंने छोटू की ओर देखते हुए पूछा कि तुझे शर्म नहीं आती। वह समझ नहीं पाया मैं किससे बात कर रहा हूँ। तो मैंने कहा- तेरेको को ही बोल रहा हूँ। तेरी बहन ऐसा काम करती है और साले तू उसके साथ घूमता है। पहले तो वह सकपकाया, फिर उसने मेरे दोस्त की तरफ गुस्से से देखा। मेरा दोस्त मिमियाते हुए बोला- क्या यार, तू काम बिगड़वायेगा क्या? होगी कोई मजबूरी, बेचारा है। इस पर छोटू बोला- फालतू के जवाब देने नहीं आया हूँ। सालाऽऽऽ कोई दूसरा पैसा हड़प जाए, इससे तो अच्छा है कि मैं ही ले लूँ। और मेरे होते हुए बहन को कोई तकलिफ भी तो नहीं होगी ना।
मैंने पूछा- कैसी तकलिफ उसे? तो बोला- तुम्हे क्या पता, इस धंधे में कैसे-कैसे हरामी लोग होते हैं। कई बार भिड़-भिड़ा कर बचाया है अपनी बहन को! उसकी बात सुन कर गुस्सा तो बहुत आया कि एक तमाचा देकर निकाल बाहर करूँ और बोलूँ बेनचो तू क्या बचाएगा उसे। बचाने जैसा कुछ है भी उसके पास। ...लेकिन मेरे दोस्त को मेरा यह व्यवहार जंच नहीं रहा था, वह छोटू को बोला- छोड़ ना यार। जाने दे, मुझे मालूम है कैसे-कैसे लोग होते हैं, तू सही कर रहा है कि बहन के साथ तेरा होना बहुत जरूरी है।
मैं अभी कुछ और बोलने ही वाला था कि वह आ गई और आते ही बोली- थक गई हूँ। कब आएँगे रे तेरे दोस्त? यह पूछते हुए बिना दोस्त के जवाब के इंतजार के वह धप्प से पलंग पर लुड़क गई। मुझे यह कतई पसंद नहीं आया। मैंने कहा- पलंग पर नहीं इस गद्दे पर लेटो, वहाँ मैं सोता हूँ। उसने बिना आँॅखे खोले चित्त लेटे ही जवाब दिया- यह पवित्र बिस्तर मैला नहीं हो जाएगा। हे राम! मुझ अहिल्या का उद्धार कर दो! ...और वह जोर-जोर से हँसने लगी। मैं एकदम सकपका गया। छोटू और दोस्त मुझे घूर रहे थे। वह अचानक चुप हो गई और आँखें धीरे से खोलते हुए गर्दन घुमाकर मुझे देखा और शरारत से बोली- कर दो ना उद्धार! मैं गुस्से से चिढ़कर कमरे के बाहर आ गया और पैर पटकते हुए छत की सीढ़ियाँ चढ़ने लगा। एक बार मैंने पलटकर देखा तो वह मुझे जाते हुए ऐसे ही पड़े-पड़े देख रही थी।
मैं तेजी से सीढ़ियाँ चढ़कर छत पर जा पहुँचा। वहाँ काफी अच्छा लग रहा था। उस घुटन भरे माहौल से यहाँ कुछ खिला-खिला लगा। मैं यूँ ही छत के बिच में जाकर लेट गया। आसमान में तारे टिमटिमा रहे थे। चाँद भी बड़ा ही शीतल लग रहा था, शायद आज पूनम थी। तभी तो चाँदनी हर ओर शीतलता लूटा रही थी। जब भी कभी चाँदनी रात रही है, मुझ वह रात हमेशा पूनम की ही रात लगी है। वैसे भी गर्मी के मौसम में रात को यूँ छत पर लेटे रहना कितना सुहाना लगता है। मैं अभी कुछ खुबसूरत ख्यालों में डूबने ही वाला था कि मुझे लगा- पिंकी पास ही बैठकर मुझे देख रही है। मैं चौंका और हड़बड़ा कर उठ गया। वहाँ कोई नहीं था, सिर्फ मेरे भ्रम के। मैं चहलकदमी करने लगा।
सोचने लगा कि आखिर कोई कैसे चंद रुपयों के लालच में अपने जिस्म का सौदा करने पर आमादा हो जाता है? क्या जमीर मर जाता है, ऐसे लोगों का? तभी अंदर से एक स्पष्टीकरण आया कि हो सकता है मजबूरी हो इसमें। फिर सवाल- ऐसी क्या मजबूरी? क्या काम करके रुपये नहीं कमाए जा सकते? सवाल- पर एक रात का दो हजार तो नहीं मिल सकता ना, कब तक कोई नौकरी में खटेगा? जवाब- लड़की के लिए इज्जत ही तो सबकुछ है, फिर? सवाल- तो क्या लड़कों के लिए कुछ नहीं? जवाब- लड़कों के लिए कैसी इज्जत! उनका क्या जाएगा?
तब अंदर से कहीं से आवाज आई- यह तो कुतर्क हुआ। लड़कियों के लिए इज्जत और वही बात लड़कों को लिए लागू नहीं होती? जवाब- सालों सेे यही तो होता रहा है। अब भी यही होना चाहिए। सवाल- सालों से होता रहा, तो जरूरी है अब भी हो? सही है, तुम साले पुरुष हमेशा अपने लिए खुद ही ढाल बन जाते तो। बेचारी पिंकी को तेरे ही दोस्त एक रात की किमत देकर लेकर आए, तू चुप रहा। उसको रातभर नोचेंगे, तू चुप रहेगा। वो साला भाई, अपनी बहन का सौदा कर रहा है, तू चुप रहेगा। तेरे ही घर रात भर नीच दोस्त दारू पियेंगे, गुलछर्रे उड़ायेंगे, सिगरेट फूँकेंगे, गंदी-गंदी गालियाँ देंगे, तू चुप रहेगा। कई घटिया कामों में तू सहभागी बनेगा और दिन के उजाले में वही शराफत की चादर ओढ़कर तुम सारे लोग नकली मुस्कान बिखेरते फिरोगे, तब भी तू चुप ही रहेगा ना!
मेरा सिर घूमने लगा। अंदर से उठते हुए इन सवालों से या फिर एक-डेढ़ घंटे तक लगातार चहलकदमी से, पता नहीं। पर हाँ, मेरा सिर तेजी से घूम रहा था और मैं लगभग लड़खड़ाते हुए वहीं बैठ गया। थोड़ी देर के बाद मैं नीचे उतरने लगा, तो तेज भूख लगी थी। टाइम देखा तो साढ़े 12 बजे थे। मतलब अभी मदनी दरबार खुला होगा। सोचा- चलो 2 बजे तक मटन खाकर लौटूँगा, तब तक इनका काम भी खत्म हो जाएगा। फिर 3-4 बजे तक इनको निकाल बाहर कर दूँगा।
जैेसे ही कमरे में दाखिल हुआ, बियर, विहिस्की, सिगरेट और खार मंजन की मिलीजुली तीखी अजीब गंध मेरे नाक में जा घुसी। वैसे लंबे समय से मैं इस तरह की पार्टियों का साक्षी रहा हूँ, इसलिए इस गंध का आदि हो गया हूँ। लेकिन आज मुझे यह गंध कुछ अजीब लगी। अंदर से फिर आवाज आई- लगता है पिंकी की भी गंध मिली हुई है। मैंने कमरे में देखा पता नहीं कैसे और क्यों, मेरी नजर सीधे पिंकी पर गई और मैं बुरी तरह झेंप गया। वह महारानी की तरह पालथी मारकर पलंग पर बैठी थी और मेरी चाय के बड़े मग में बियर उड़ा रही थी। बाकी के सारे लोग नीचे गद्दे पर लौट लगा रहे थे। मुझे देखते ही दोस्त चिल्लाने लगे- आओ-आओ, खारमंजन के दुश्मन। मैंने उनकी ओर कोई ध्यान नहीं दिया और वहीं कुर्सी पर बैठ गया। सारी पार्टी नशे में नजर आ रही थी, शायद कुछ नॉनवेज जोक चल रहे थे। ...पर पिंकी को इसमें कोई इंटरेस्ट नहीं था। वह मुझे घूरने लगी। मुझे लगा- चढ़ गई है साली को। तभी वो जैसे मेरे मन की बात समझ गई थी, नशीली आँखों से मेरी तरफ देखा और बोली- चिंता मत करो, अभी दो बोतल ही तो पी है। पाँच-सात की केपेसिटी है। मैंने कहा- कौन साला यहाँ तेरी चिंता कर रहा है। तेरा तो भाई भी चिंता नहीं करता। वह मेरे इस कटाक्ष से हल्के से मुस्कुराई, बोली- इतनी चिंता तुमने ही, आज पिंकी के लिए काफी है। मैंने कहा- तुम्हे ये मग नहीं लेना चाहिए था। बोली- मालूम था, तुम्हारा है। तभी तो लिया। फिर वह मुझे घूरने लगी। अब मैं सौ फिसदी कह सकता हूँ कि उसे चढ़ गई है।
मैंने वहाँ समय बर्बाद करना उचित नहीं समझा। तुरंत खड़ा हुआ और सबको सुनाने के लहजे में कहा- मैं तो मदनी जा रहा हूँ। तुम लोग मैं आऊँ तब तक अपना काम निपटा लेना। फिर मेरे सोने का टाईम हो जाएगा।
मैं जैसे ही जाने को हुआ, पिंकी जो मुझे घूरे जा रही थी ने एक ऐलान कर दिया। बोली- पहले ये मेरे साथ सोएगा, तो आज मैं पैसे ही नहीं लूँगी। मैंने चौंक कर उसकी ओर देखा, वो अब भी मुझे आँखें फाड़कर देख रही थी। सारे दोस्त एकदम चिल्लाए, साले तेरे साथ तो हमारी भी निकल पड़ी।
पिंकी की बात पर छोटू तो चिल्लाया- क्या बके जा रही है पगली। ऐसा क्या है इन भाईसाहब में? पगला गई है साली। वो वैसे ही मुझे देखते हुए बियर का एक बड़ा घूँट लेते हुए बोली- तू नहीं समझेगा। अभी छोटा है रे तू छोटू! सुरेश जोरदार ठहाका लगाकर चिल्लाया- अरे, यूँ बोल ना जानेमन कि मेरे यार पर तेरा दिल आ गया है। सारे दोस्तों ने सुरेश की बात पर ताली दी और जोरजोर से हँसने लगे। पर वह अब भी बूत बनी मुझे ही देख रही थी, बोली- क्या चला जाएगा रे तेरा, मेरी लेने में! मैं फिर भी कुछ नहीं बोला, तो सारे दोस्त चिल्लाने लगे- बताना क्या जाएगा तेरा इसकी लेने में। मुझे बहुत गुस्सा आया। पर मैं न जाने क्यों पिंकी की नजरों से बचना चाह रहा था या उसके इस हाल के लिए खुद का ही दोषी मान रहा था। हाँ, मैं दोषी ही मान रहा था।
मैंने आवाज में जितनी नरमी ला सकता था, लाकर बोला- प्लीज पिंकी, मैं यह सब नहीं करता। तुम्हे ऐसे देखकर मुझे अच्छा नहीं लग रहा। मैं जाना चाहता हूँ। तुम लोगों को जो करना है करो, पर मुझे बख्शो। वह कुछ नहीं बोली, बस फिर एक बियर का बड़ा घूँट लेते हुए एकटक मुझे ऐसे ही देखती रही। मेरे दोस्त न जाने क्या-क्या बके जा रहे थे। मुझे बस उनके ठहाके सुनाई दिए और मैं टेबल से अपनी बाइक की चाबी उठाते हुए तेजी से बाहर निकल आया। बाहर आते ही मुझे उस गंध से मुक्ति मिली और मैंने एक लंबी साँस लेकर बाहर की ताजी हवा अपने सीने में भरी। ...लेकिन फिर कहीं से आवाज आई- शायद वो अजनबी गंध तेरे नथूनों में ही कहीं बस गई है... है ना!
मैंने खुद को झिड़कते हुए बाइक की किक मारी और चल पड़ा मदनी की ओर। वहाँ पहुँचा ही था कि सुरेश का फोन आया कि ले बात कर। उधर से पिंकी बोल रही थी- दिल तोड़ देते हो तुम तो, खैर अब भी पवित्र बिस्तर पर हूँ। ...और तुम्हारे नाम का ही प्याला हाथ में है। आज इस बिस्तर पर तुम्हारे साथ ही सो रही हूँ! हो सके तो मेरे लिए भी खाना लेते आना। ये साले तो दाल-रोटी उठा लाएँ हैं, मुझे नहीं खानी।
मैं कुछ बोलता, उसके पहले वह फोन काट चुकी थी। मेरा दिल जोर से चिल्लाने को हुआ, फिर सोचा सुरेश को फोन लगाकर ढेर सारी गालियाँ दूँ। कहूँ कि मेरे पलंग पर कुछ ना कियो, जो करना है नीचे गद्दे पर करो। लेकिन जानता था, वहाँ अभी तो पिंकी की चल रही है। कौन सुनेगा? साले हरामी हाँ-हाँ कर देंगे। दिल तो कर रहा था कि असलम कौन है सालाऽऽऽ, उसे भी ढूँढ कर जमकर लतियाऊँ। कहूँ- खबरदार, जो इस लड़की से ऐसा काम करवाया तो! फिर अचानक ख्याल आया कि मुझे यह क्या हो गया है। 'इस लड़की" से क्या मतलब, वो है ही कौन? फिर दिल कसेला हो गया कि न जाने कितनों के साथ सो चुकी है सालीऽऽऽ। मुझसे कोई थोड़ा-सा मीठा क्या बोला, मैं तो बिछ ही गया उसके समाने।
तुरंत मैंने पिंकी को झटका और मटन मसाले का आर्डर देकर उसके आने का इंतजार करने लगा। फिर एक ख्याल- हो सके तो मेरे लिए भी खाना लेते आना... क्यों भई, बरात में आई है क्या मेरी? मैं टाईमपास करने लगा। बाहर एक आदमी काउंटर पर खड़ा होकर अपने ऑर्डर का इंतजार कर रहा था। वह खाना पैक कराकर ले जाना चाहता था, उसे जल्दी थी। वह बार-बार बाहर इशारा कर वेट करने को बोल रहा था। मैंने अपनी कुर्सी से उचक कर देखा तो स्कूटर के पास एक महिला खड़ी नजर आई। शायद उसकी बीवी थी, फिर वही ख्याल- हो सके तो मेरे लिए भी खाना लेते आना!... ये क्या हो गया है मुझे! मैंने फिर अपने आपको झिड़का। तभी एक लड़का मेरा ऑर्डर लेकर आ गया। वो जाने को हुआ तो प्याज के लिए मैंने उसे आवाज दी... छोटू! मेरा सिर चकराया... छोटू... कैसे मुझे उसके भाई की याद आ गई! वो पास आया तो मेरे मुँह से निकला- एक मटन मसाला, 5 नहीं 3 रूमाली रोटी और एक प्लेट राईस... जीरा राईस... हाँ... पैक कर देना!
कैसे! कैस! और क्यों! अंदर मानों चीख-पुकार मची थी। मैं उन चीखों के बिच ही खाना खाने में लगा रहा। हड्डी चूस रहा था कि फिर... घर पर ऐसे ही वे लोग उसे नोंच रहे होंगे। मुझसे खाना नहीं खाया गया। आधा ही छोड़ मैं उठा और बेसिन की ओर हाथ धोने चला गया। लौटा तो वह लड़का ऑर्डर पैक कराकर खड़ा था। एक बार फिर मैंने लड़के को देखा, फिर जेब में से 20 का नोट निकाल कर देते हुए कहा- थैंक्स छोटू...। फिर वही- हो सके तो मेरे लिए भी खाना लेते आना... लेकिन इस बार जैसे ही ये शब्द कौंधे, मेरे चेहरे पर बरबस ही मुस्कुराहट दौड़ गई।
मैं जब होटल से बाहर निकला तो एक दोराहे पर खड़ा था। क्या मुझे ये खाना लेकर घर जाना चाहिए? क्या रात के 3-4 बजे मैं उसे घर से बाहर निकाल फेंकुँगा? क्या वाकई में दोस्त उसे नोंच रहे होंगे, जैसे मैं हड्डी? क्या वह मेरे ही बिस्तर पर होगी? ...और फिर मेरा सिर चकराने लगा। मुझे खुद से एक चिढ़ सी हुई कि क्यों में बेफिजूल की बातों को इतना महत्व दे रहा हूँ। पर...क्या ये वाकई बेफिजूल की बातें हैं? ओह...क्या हो गया है मुझे?
मेरा दिमाग सुन्ना हो चुका है। अब मुझे चलना चाहिए। मैंने खुद को आदेश दिया- हाँ...हाँ... ये खाना लेकर ही मुझे जाना है।
मैं जब घर पहुँचा तो करीब ढाई बजे होंगे। मेरा बिस्तर काफी अस्त-व्यस्त था और उससे भी ज्यादा अस्त-व्यस्त मुझे पिंकी नजर आई। छोटू गद्दे से लुड़क कर दिवार में घुसा सोया पड़ा था और दो दोस्त भी आधे गद्दे पर और आधे जमीन पर लुड़के पड़े बातें कर रहे थे। एक शायद बाथरूम में था। मुझे देखकर दोस्त चिल्लाये- आ मेरे शेर... क्या सूत कर आ रहा है। हमने तो यहाँ दबाकर सूता। पर प्यारे थोड़ी देर बाद आना था ना, एक ट्रिप और बाकी है। मैंने उसका कोई जवाब नहीं दिया। बस, पिंकी की तरफ देखा और उसने उनिंदी आँखों से मुझे। चेहरे पर जबरिया मुस्कान लाते हुए पूछा या बताया- पता है बहुत भूख लगी है, खाना मिलेगा? मैंने कुछ नहीं कहा और पैकेट आगे बढ़ा दिया। उसने हाथ बढ़ा कर पैकेट थाम लिया। बहाने से या यूँ ही पैकेट लेते हुए मेरे हाथ से उसकी उँगलियाँ छू गई। इतनी गर्मी में भी इतनी ठंडी... वह ठंडक आज तक मेरे पूरे जिस्म में एक लकीर की तरह जाती है और एक अजीब सिहरन बदन में दौड़ जाती है। इतने में बाथरूम से निकलकर जैसे ही मेरा दोस्त आया, वह पिंकी पर आ गिरा। उसने कोई प्रतिकार नहीं किया, बस मुझे नजर भर घूरकर देखा। मुझे ऐसा क्यों लगा कि मुझे दोस्त को रोकना चाहिए था... पता नहीं। बस वो पल था कि मैं खुद को रोक नहीं पाया और जोर से चिल्लाया- सब निकल जाओ, घर से। मैंने लगभग घसिटते हुए पिंकी के ऊपर पड़े दोस्त को खिंचा और धकियाते हुए कमरे के बाहर कर दिया। गद्दे पर पड़े दोस्त सकते में आ गए। वे चिल्लाये- क्या हुआ भाई, बता तो सही! क्या हुआ कि माँ की .. कहते हुए मैंने छोटू को एक जोरदार लात जमाई। वह तिलमिला कर उठा। तभी मैंने उसकी कॉलर पकड़ कर खिंचा और चिल्लाया- बेनचो, तेरी बहन के साथ ये सब हो रहा है और तू यहाँ पड़ा हुआ है। चल अभी के अभी बाहर निकल। वो बोला- बोस, तुम ठीक नहीं कर रहे हो। उसका यह बोलना था कि मैंने एक जोरदार तमाचा उसको जड़ दिया।
दोस्त कुछ समझ नहीं पाए, जिसे मैंने बाहर धकेला था वो फिर अंदर आ गया। अब तीनों एक ट्रिप और की मिन्नातें करने लगे। मेरा गुस्सा सातवे आसमान पर था। मैंने कहा- जो करना था कर लिया, अब निकलो यहाँ से। तुम और तुम्हारी दोस्ती की ऐसी-की-तैसी।
कमरे में इतने ऊधम हो रहे थे और वह वैसे ही हाथों में पैकेट लिए बिस्तर पर पड़ी थी। कोई प्रतिक्रिया नहीं, बस मुझे एकटक देखे जा रही थी। अब मैं उसकी ओर मुखातिब होकर चिल्लाया- सारे लोग तुझे नोंच रहे हैं, तुझे कुछ लगता है कि नहीं! वह फिर भी कुछ नहीं बोली। मैं चिल्लाया- अभी, इसी वक्त यहाँ से निकल जा। ...और उसका हाथ पकड़ कर खिंचा, तो उसका भाई मुझ पर झपट पड़ा। वो चिल्लाया- तेरी हिम्मत कैसे हुई मेरी बहन को हाथ लगाने की। तब भी वो कुछ नहीं बोली, बस इशारे से उसने अपने भाई को चुप रहने का हिदायत दी। उसकी इस हरकत से पता नहीं क्यों मेरे गुस्से में कमी आई, मैंने धीरे से कहा- प्लीज, अब तुम जाओ। दोस्तों की ओर बिना देखे मैं उसे देने के लिए पर्स से रुपए निकालने लगा। मैंने पर्स में जितने रुपए थे, सारे टेबल पर रख दिए। वह मुझे तब भी देखती रही, फिर उसने खाने का पैकेट टेबल पर रखा और शर्ट पहनने लगी। फिर स्कर्ट के अंदर से उसने जींस पहनी और स्कर्ट को घड़ी कर बैग में रख दिया। फिर बालों को बाँधने लगी। इसके बाद टोपी भी पहनी। तब तक दोस्त बड़बड़ाते रहे कि यार इतना नाटक करने की क्या जरूरत है। क्यों, बिना बात रायता फैला रहा है? पर मैंने कोई जवाब नहीं दिया।
छोटू उनसे पैमेंट माँगने लगा और उन्हे छोड़ने की बोलने लगा। वे उसे लेकर बाहर गए और शायद मजा नहीं आया बोलकर तोड़बट्टा करने लगे। मैं तब तक अपनी कुर्सी पर धँस चुका था। अब वह जाने के लिए बिल्कुल तैयार थी। जूते भी पहन चुकी थी।
पैकेट को एक बार हाथ लगाया, फिर मेरे सिर पर हाथ फेरा। मैंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। वह बोली- आज पहली बार पेट भर खाया और जी भर सोई। मैंने उसकी ओर देखा, लगा वह नशे में नहीं है। उसकी नजरें मुझे अपने अंदर तक उतरती लगीं। वह बोली- पता है, कई आदमियों और औरतों में एक रंडी छूपी होती है। वह सोच में ही दिन में कई बार पता नहीं किस-किस के साथ सो लेती है और कुछ सोकर भी नहीं 'सो" पातीं।
वह चली गई। मैंने उसे जाते हुए नहीं देखा। दोस्त भी गाली देते हुए उन्हे छोड़ने चले गए। पूरा घर बिखरा पड़ा था, पर क्या मेरे अंदर उससे ज्यादा बिखराव नहीं था। मैंने दरवाजा बंद किया और उसी बिस्तर को अपने ऊपर लपेट कर पड़ा रहा। आज भी कारण खोज रहा हूँ कि मैंने ऐसा क्यों किया? शायद किसी दिन जवाब मिलेगा।
पता नहीं क्यों में पिंकी से मिलना चाहता था... या अब भी चाहता हूँ। एक-दो साल दोस्तों से उसके बारे में बात करने की हिम्मत नहीं हुई। दोस्त कहते हैं- यार, उस रांड का दिल तुझ पर आ गया था। उन्हे ये भी शक है कि मेरा भी आ गया था। ...और मुझे यकिन है! लेकिन मैं उसका फोन नंबर दोस्तों से माँग नहीं पाया। 4-5 साल बितने के बाद जब दोस्तों ने मेरे उस रात के मामले में मजे लेना बंद कर दिए, तो हिम्मत करके मैंने सुरेश से पिंकी का फोन नंबर माँगा। इस पर उसने मेरे साथ काफी देर मसखरी की। जब मैंने बताया कि मैं एक स्टोरी के लिए उसका नंबर माँग रहा हूँ तो वो बोला कि असलम का नंबर था मेरे पास तो। तो मैंने कहा असलम का ही दे दे, तो बोला कि यार, कुछ साल पहले अखबारों से पता चला था कि उस दल्ले को पुलिस ने पकड़ लिया है और उससे पुलिस ग्राहकों का पता कर रही है। तब मैंने उसका नंबर डिलिट कर दिया था, उसके बाद शादी हो गई और फिर यार इन सब कर्मकांडों की जरूरत ही नहीं पड़ी।
मुझे भी लगा कि बंद किताब को फिर क्यों खोलने की जरूरत? मैं भी अपने काम में लग गया, पर जब भी कभी अखबारों में छापापारी की खबरें पड़ता हूँ तो पिंकी या असलम को जरूर खोजता हूँ। क्यों...? इसका जवाब हमेशा की तरह मुझे नहीं मालूम है, लेकिन अंदर किसी कोने से एक आवाज जरूर आती है कि बस उससे ढेर सारी बातें करनी है... और पूछना है- मेरी दोस्त बनेगी?
 

Monday, November 28, 2011

सामाजिक



मैंने सिखाया उसे
चलना, खाना, पीना
पर नहीं सिखाता तो
क्या उसे यह नहीं आता?
अब पढ़ाने लगा हूँ
दुनियादारी के पाठ
चिल्लाने, रोने पर मनाही
उठने, बैठने का सलिका
अदब, तहजीब
न जाने क्या-क्या
लगता है एक दिन
इसके अंदर भी
इसका अपना कुछ नहीं बचेगा
यह भी कहलाएगी 'सामाजिक"
फिर कभी इसका भी दिल करेगा
सबकुछ छोड़ भागने का
 

कहाँ मिलेगी टाइम मशीन?



माँ की गोद में दुलार पाते
छोटी से फ्रॉक पहने
इधर-उधर दौड़ते लगाते
छोटी-छोटी जिद करते
रोते, झल्लाते, खिलखिलाते
बेग थामें स्कूल जाते
सहेलियों संग शोर मचाते
पड़ोसी के यहाँ से फूल
बेर, जाम चुराते
हर नई चीज को देखकर
आश्चर्य में पड़ते
माँ से चोटी बनवाते
पहली बार साड़ी पहनते
मेकअप करते
गाड़ी चलाना सिखते
केंटिन में गपशप करते
हाँ, मैं सब देखना चाहता हूँ
पर कहाँ से लाऊँ टाइम मशीन?
अब बेटी में ही देखना होगा
तुझे भी बढ़ते
क्या करें, मिले भी हम
आधी उम्र बीत जाने के बाद
फिर भी खुश हूँ मैं तुझे पाकर
सोचता हूँ
बुढ़ापा तो गुजरेगा मजे से

Thursday, November 24, 2011

मैं कारीगर...

डरता हूँ मैं खुद से
इसलिए खुद को बाँधता हूँ
मेरे बंधन हैं इतने मजबूत
तोड़ना चाहता हूँ
पर कहाँ तोड़ पाता हूँ?
जब खड़ी कर रहा था
दीवारें खुद के लिए
तब डरता था सेंधमारी से
अब चाहकर भी
एक किल तक नहीं गाड़ पाता
कई बार कोशिश की गई
मेरी दिवारों में सेंध की
हर बार जीत गया मैं कारीगर
पर अब घुटता है
मेरा भी दम यहाँ
अफसोस
बाहर आवाज तक नहीं जाती

काश!



खुशी की आस में
ताउम्र भटका
मौत जब खिंचने लगी
अपने दामन में
तब मुट्ठी खोली तो
खुशियों का आँगन मिला

Wednesday, November 23, 2011

चल आ...

सोचता था मैं ही
पागल हूँ दुनिया में
तुझे देखकर भरम टूट गया
जी तो पहले भी रहा था
पाकर तुझे सलीका आ गया
घुली है तू चुटकी भर नमक की तरह
अब जिंदगी में जायका आ गया
पता है जब छुआ था लबों को तेरे
तब से ही 'अफीम" का नशा छा गया
अब साथ है मेरे ताउम्र
सोचकर ही सफर का मजा आ गया
पता है तुझे
भरी पड़ी है दुनिया होशियारों से
यह जलती है हम दीवानों से
चल आ, अब चलें दूर कहीं
जहाँ बस हम हों
बातें हो दिवानगी की
झटकें जब भी यादों की धूल तो
कण-कण में हम हो बसे
 

Tuesday, November 22, 2011

धीमी-सी तेज जिंदगी!


पहले रेंगकर
फिर घुटनों के बल
यहाँ-वहाँ घूमती वो
पैरों पर धीरे से
सीख गई खड़े होना
कभी गिरती
फिर उठ खड़ी होती वो
सीख गई गिरकर, दौड़ना
हर चेहरे पर गड़ा दिया करती थी नजरें
अब चेहरों में से सीख गई वो
'अपनों" को पहचानना
रोते-रोते न जाने कब
खेलने लगी चेहरे पर मुस्कुराहट
फिर धीरे से सीख गई वो
आवाज को शब्दों में पिरोना
कुछ ऐसी है मेरी 'जिंदगी" की
धीरे-धीरे, बढ़ती तेज रफ्तार

 

Thursday, November 17, 2011

मेरी जेब में तू!



एक बार सोचा
क्यों ना रात भर के लिए
जेब में डाल संग ले चलूँ तूझे
जीभर देखूँ, मुठ्ठी भर बातें करूँ
चाँद को चिढ़ाऊँ
तारों को तेरी चुनर में जड़ूँ
तेरे बालों में उँगलियाँ डाल
चाँदनी में नहाऊँ
तेरे लिए तुझे ही गुनगुनाऊँ
घूँट-घूँट कर पी जाऊँ
जब खून में तू घुल जाए
तेरी यादों के तमाम निशाँ दिखाऊँ
तेरी खुशबू को रोम-रोम में बसाऊँ
फिर ताउम्र मैं भी महका फिरूँ
एक ही रात में ए-दिलनशीं
मैं कुछ ऐसा कर जाऊँ
जिंदगी की जद्दोजहद से दूर
तुझे खुशियों के देस ले जाऊँ
मेरी खुशकिस्मती का अब
है ये आलम
तू डली है मेरी जेब में
और मैं, संग तेरे खुशियों के देस में

Tuesday, November 15, 2011

ख्वाब सुधारती मेरी बेटी!


कल ही की तो बात है
मैं सुनता था दादी से
कहानी खरगोश 'माँ" की
बुनता था अपना संसार
जहाँ बात होती खुशियों की
पंछियों की, परियों की
और रंग-बिरंगी तितलियों की
कल ही की तो बात है
जब मैं बस्ता उठाए जाता था स्कूल
होती थी दोस्तों संग मस्ती
गढ़ने होते थे होमवर्क न करने पर बहाने
रिजल्ट की चिंता, टिचर की फटकार
खेलों में बार-बार तकरार
हर दूसरी लड़की से प्यार
कल ही की तो बात है
टोली पिया करती थी समोसे संग कट चाय
सूनी नजर आती थी कॉलेज की क्लास
डिस्को जाते, रोज नई उम्मीदों के पंख लगाते
दिन को रात, रात को दिन करने का
हौंसला सीने में लिए घूमते
हर पिक्चर के हीरो में खुद का अक्स देखते
दुनिया के हर असंभव को ठेंगे पर रखते
कल ही की तो बात है...
वाकई बहुत तेज रफ्तार है जिंदगी
इन दिनों मेरी बेटी झाँकती है आँखों में
मुस्कुराती है, मानो कह रही हो
तेरे ख्वाबों में बहुत गुंजाईश है सुधार की!






 

Tuesday, November 8, 2011

कुछ तो है तुझमें ऐसा...



हर वक्त जलता हूँ
किसी शोले की तरह
तेरे आते ही अब्र बन जाता हूँ
कुछ तो ऐसा है तूझमें
कि तेरे छूते ही महक जाता हूँ
इन बोतलों में नहीं वो बात
तेरी नजरों से पीते ही बहक जाता हूँ
जब होती है मेरे आसपास तू
मैं खिला फूल नजर आता हूँ
जब लेता हूँ बाहों में तुझे
मैं कुबेर बन जाता हूँ
सपने में भी तुझे देख
सूरज से ज्यादा चमक जाता हूँ
जिस्म से भी परे है
अद् भुत अहसास तेरा
रूह में उतार तुझे
मैं खुद को खुदा पाता हूँ

 

Wednesday, November 2, 2011

कैसे बयाँ करूँ?



हर वक्त खोजता हूँ
वो शब्द
जो कह सके तुझे
मेरे दिल की सदा
जो बयाँ करें
मेरी तड़प, बैचेनी, दीवानगी
प्यास, जलन, घुटन, बेचारगी
जो हर वक्त उकलती रहती है
सिर्फ तेरे लिए
हाँ, जुबाँ कहती तो है
कुछ घिसे-पीटे से शब्द
तू समझती भी है
पर, तेरा समझना, मेरा समझाना
दोनों अधूरे हैं शायद
क्योंकि न तो मौन, न ही शब्दों में
बयाँ हो सकती है मेरे दिल की भाषा!

 

Friday, October 28, 2011

फरेबी...



सब तकदीर का खेल है
वर्ना ना तुम मिलते
ना हम इस दरिया में उतरते
हमें तो आता था तैरना
मगर न जाने कैसे
किनारे पर आकर डूबे
बच तो हम तब भी जाते
मगर हाय री किस्मत
फरेबी तुम निकले

दवा भी तू-दारू भी तू!



एक चम्मच सुबह
एक चम्मच शाम
मिलती है मुझे
तू दवा की तरह
हर सुबह, हर शाम
सोचता हूँ
क्या ऐसे हो जाएगी उम्र तमाम?
कौन साऽऽला जीना चाहता है
यूँ बीमारों की तरह
एक दिन ऐसा जरूर होगा
जब मैं दवा नहीं दारू समझ
पूरी बोतल उड़ेल जाऊँगा
फिर देखूँगा नशा-ए-इश्क
क्या गुल खिलाएगा
...और क्या यह नाचीज बंदा
प्यार के समंदर से जिंदा बच पाएगा?

Tuesday, October 25, 2011

मेरी दिवाली!



लोग जला रहे हैं दीप
लक्ष्मी के सामने, तुलसी के पास
पंडेरी के किनारे, ताक पर
हर कोने को कर रहे हैं रोशन
रसोइयों से उठी मीठी, भीनी-भीनी खुशबू
गलियों के रास्ते फैल रही है चहूँ ओर
फूलझड़ियाँ, अनार, जमीन चकरी
लड़ रही हैं अमावस के अंधियारे से
उत्साहित बच्चे, बड़ों के बालमन
डूबे हैं मस्ती के आलम में
इंसान, घर, जानवर
यहाँ तक की प्रकृति भी
नजर आ रही है नए परिधान में
मैं भी डूबा हूँ इस जश्न में
फर्क सिर्फ इतना है
मेरी मनती है हर रोज दिवाली
शुक्रिया
मेरी जिंदगी रोशन करने के लिए

सही-गलत



'सही" क्या है
कोई नहीं जानता
सबकी होती है अपनी परिभाषा
होते हैं अपने पैमाने
हर इंसान, अपने तई इसे गढ़ता
या पुराने नियमों को घसीटता
फिर उसे ही सच मान
ताउम्र कांधे पर लादे घूमता
खुद का बनाया भ्रमजाल टूटते ही
वह 'गलत-गलत" चिल्लाने लगता
 

Sunday, October 23, 2011

तेरे प्यार का जहर!



क्यों फना हो जाती है जिंदगी
किसी एक आह पर
क्यों आँखें पथराया करती है
किसी एक राह पर
क्यों जीने की ख्वाहिश नहीं बचती
किसी के यूँ चले जाने पर
क्यों खुद को ही भूल जाता हूँ
किसी एक चाह पर
क्यों नशा छा जाता है
किसी एक मुस्कान पर
क्यों वजूद ही मिट जाता है
कोई हाथ थाम कर
न जिंदा हूँ, न गिना जाता हूँ मुर्दों में
सच है, बड़ा जालिम है तेरे प्यार का जहर

Friday, October 21, 2011

मेरा अकेलापन!



वह निगल जाता है
साबूत ही मुझे
अजगर के मानिंद
धीरे-धीरे चटकती है
हिम्मत, फिर जज्बात
खुली आँखों में
छा जाता है अंधकार
गहरे शून्य में धँसता
और धँसता जाता हूँ
इतने अंधेरे में भी कैसे
कई उँगलियाँ
मेरी ओर उठी दिखती हैं, कैसे?
पर सारी उँगलियाँ मेरी
ही तो हैं
तभी वह बड़ी कुटिल मुस्कान से
अचानक उगल देता है
तब नजर आती है
दमकती, चमकती दुनिया
अपनी सफलताओं पर कुप्पा मैं
फिर पलटकर 'उसको" नहीं देखता

Friday, October 14, 2011

नशा!




कई रातों से नहीं सोने पर
आँखों में उतरी हुई नींद
एक बोतल व्हिस्की
रम, वोदका, जीन
उसमें मिला दी स्कॉच
बियर और देसी भी
उस पर चाट ली अफीम
चरस, गाँजे, भाँग के साथ
फिर भी बच गया मैं
...पर नहीं बच सका
तेरे इश्क के नशे से ऐ-जालिम!

 

Thursday, October 13, 2011

मेरा 'बरकती सिक्का"!



भीगा हुआ वह मासूम
बड़ी उम्मीद से
हर शख्स को देखता
जैसे ही कोई जेब में हाथ डालता
वह खिल जाता
तुरंत गोता लगाकर
सिक्का निकाल लाता
कई बार खाली हाथ भी लौटता
जब भी मैंने ये नजारा देखा
उसकी चूक में खुद की हार को पाया
ऐसे में बरबस ही
तेरा हाथ खुद के हाथ में पाया
फिर नर्मदा से आँख बचाकर
मुट्ठी में भींच, तुझ 'बरकती सिक्के"
को ले मैं भागा चला आया!

Tuesday, October 11, 2011

पहाड़-सा वक्त!



गुजरता जाता है वक्त
मुट्ठी में पकड़ी 'रेत" के मानिंद
अंगुलियों में समेट लाता हूँ
सारे जिस्म की ताकत
पर ये है कि
रूकता ही नहीं
मायूस, हताश बस
देखता रह जाता हूँ इसे रिसते
...और जब तू नहीं होती
ये वक्त 'पहाड़" बन जाता है
 

पसंद...



जरूरी नहीं हर बार
हर काम तेरी पसंद से करूँ
यह भी जरूरी नहीं हर बार
हर बात तेरी पसंद की कहूँ
बस मैं वह करूँ, वह कहूँ
जिससे सब तुझे पसंद करें!

कमबख्त!



तेरी चिंगारी 'लौ" बन
सुलग रही है जिस्म में
कतरा-कतरा पिघल रहा
कतरा-कतरा जल रहा
किसी को नहीं है
इस दर्द से वास्ता
मुझे भी अब कहाँ रहा?
मैं तो बस देखता रह गया
पहले दिल पिघला
फिर दिमाग, जिस्म के बाद
अब तो लहू भी बह गया
पर कमबख्त यह लौ है कि
बुझती नहीं
और कमबख्त तू है कि
समझती ही नहीं

Thursday, September 15, 2011

एक जोड़ा आँखों का!



अकेला होता हूँ
पर नहीं होता
कार चलाते हुए
पास की सीट होती है भरी
एक जोड़ा आँखों का
हर वक्त देख रहा होता है
खाना खाते, सोते
जागते, हँसते, बोलते
हर वक्त
कई बार मुझे देखकर
मुस्कुराता है
गलतियों पर चेताता भी है
लड़ना तो जैसे उसका शगल हो
हाँ, कभी प्यार भी जताता है
अक्सर मैं सोचता हूँ
इसके सिवा उसे कुछ काम नहीं?
पता नहीं कैसे वह पढ़ भी लेता है
मेरे दिल की बात
तब वह लड़ता नहीं
बस थोड़ा-सा 'छलक" जाता है
वाकई में...
साथ के लिए जरूरी नहीं
किसी का 'साथ" होना

Saturday, September 10, 2011

मम्मा!



वो कहती है
मुझे भी 'मम्मा"
समेट लेता हूँ
दामन में उसे
तब पिता का अहसास
कहीं नहीं होता
और धड़क उठता है
'माँ" का दिल
चंद पल ही सही
हो जाती है मेरी कोख हरी



 

Thursday, September 8, 2011

कुछ तो है बदला!



निकर पहन दौड़ा
करता था उन गलियों में
आज भी वे वहीं हैं
वैसी ही, जैसी मैं छोड़ गया था
आज भी गोधूली नजर आती है
हाँ, गाँयें थोड़ी कम हो गई
मंदिर से वैसी ही घंटियों की आवाज
सुबह, शाम सुनाई दी
ओटले, गोबर लीपे घर
चूल्हे पर बनी रोटियाँ
बाड़ा, नीम के वे पेड़
यहाँ तक की गौरेया
गिलहरियाँ, बैल, भैंस
बिजली की लुकाछिपी
जल्दी सोती शाम
और भोर से पहले उठती सुबह
सब, सब वैसा ही
जैसा बरसों-बरस पहले छोड़ गया था
लगा, मानों पूरे गाँव पर बस
यादों की धूल जमा हो गई हो
जरा सा फटका मारा और
लगा मैं निकर में फिर दौड़ने
पर जब धुंध छटी तो पाया
बस, इंसान 'बदल" गए हैं



 

Wednesday, September 7, 2011

देख, क्या कहते हैं ये इशारे!



आज खिला-खिला है सूरज
जरूर खिलकर हँसेगी वो
सुबह से झर रहा है आसमाँ
प्यार के दो बोल बरसाएगी वो
सारा दिन लिहाफ ओढ़े है
गुनगुनी अंगीठी नजर आएगी वो
किस कदर चहक रही है चिड़िया
आज जरूर फुदकती मिलेगी वो
महकी, कुछ बहकी सी है हवा
जरूर मदहोशी में होगी वो
आज मौसम छेड़ रहा सुरीली तान
निश्चित ही दिल के तार छेड़ेगी वो
ये झूमते क्यों नजर आ रहे हैं पेड़
मस्ती के आलम में होगी वो
हर दिन, हर पल, हर जगह
मैं खोजता हूँ तुझको
और उन संकेतों को
जो नजर आते हैं
और ले जाते हैं
मुझे तेरे और करीब


 

Monday, September 5, 2011

ना समझी!





वो ना समझे
दर्द की गहराई
वर्ना वे भी डूब जाते
या हमारी जान ले जाते




Wednesday, August 31, 2011

टूटन...



घुट रहा है
कुछ टूट रहा है
धीरे-धीरे, हर पल
कहीं कोई शोर नहीं
खुद मुझे तक पता नहीं
सुबह जब जागता है सूरज
तब टटोलता हूँ खुद को
कहीं कुछ कम होता है
पर क्या, पता नहीं
डरता हूँ
ऐसे ही घिसता रहा
तो एक दिन
नहीं मिलूँगा खुद को भी
पर हाँ, हमेशा की तरह
'साबूत" नजर आऊँगा सबको
कभी पता नहीं चलेगा
खुद मुझको भी
अब 'मैं" कहीं नहीं
कहीं नहीं...

 

Tuesday, August 30, 2011

खुशियाँ



चाही थी मुट्ठी
भर खुशियाँ
नसीब ने मन भर
दर्द पाया
चलना चाहता था
मैं साथ तेरे
मगर हौंसला ना
जुटा पाया
अब इंतजार है
तेरे लौटने का
जानता हूँ मेरे दामन
में बदी है बस निराशा
शून्य से भला लौटकर
कौन है आया

 

Thursday, August 18, 2011

देश का युवा है तू!



चल आ, चला आ
साथ दे तू
एक-एक कर
हजार हाथ जोड़ तू
मुश्किलें अनंत हैं
मगर हिम्मत न हार तू
चल आ, चला आ
जीत ले हर जंग तू
कौन कहता है
भ्रष्टचार, अत्याचार
अनाचार, दुराचार
नहीं मिटा सकता तू
बस ठान ले तू
जान ले तू
न रूकेगा, न दबेगा
न थकेगा, न डरेगा तू
बस आगे और आगे
बढ़ता ही जाएगा तू
हिन्दूस्तान की शान तू
जान तू, ईमान तू
अभिमान तू, स्वाभिमान तू
तुझमें समाया देश, देश में तू
चल आ, चल आ
मिटा दे अब अंधकार तू
सूर्य बन अब चमक तू
खुद को पहचान तू
इस देश का है युवा तू


 

Friday, August 12, 2011

खोज...




उफ् यह तूने क्या किया
खालीपन खुद का
चुपचाप भर लिया
मेरे अंदर से मुझको
ही खाली कर दिया
जब होने लगी आदत
तेरी ओ जालिम
तब बड़ी सफाई से
मुझको अलग कर दिया
अब हाल मेरा ऐसा है
न मैं खुद में हूँ
और अब न तुझमें
मैंने अपने अंदर भी खोजा
वहाँ रूह को छोड़
हर चीज सलीके से मिली



 

राख हुई जिंदगी...



अभी तो सुलगती रहेगी
ये जिंदगी...
खुशफहमी में पहुँचा करीब
तो मिला राख का ढेर
खोजती रहती हैं बेबस निगाहें
कोई तो मिले इसका सौदागर
जानता हूँ मैं-अब नजर नहीं
आएगी कोई भी परछाई
जब तक होती है गर्माहट
खिंची चली आती है तमाम आहट

Thursday, August 11, 2011

तेरी याद!


धुनी रमाए हैं पेड़
पंछी भी कहीं उनमें ही
समा कर दे रहे साथ
मदहोश हवा चाहती
है खुब शोर करना
पर मौन संगीत को तोड़ने की
वह नहीं जुटा पाती हिम्मत
ये इमारत, वाहन
दूर तलक जाता रास्ता
सबके सब हैं खामोश
शायद भीगा हुआ है
इनका भी कोई कोना
खिड़की से जब देखता हूँ
दिलों में उठते हैं कईं बुलबुले
बाहर दूर तलक
बहती नजर आती है 

तेरी याद







 

Sunday, August 7, 2011

सही वक्त...




सही वक्त के इंतजार में
जिंदगी गुजार दी
वो बैठा सोचता रहा
समय उसे छूकर गुजर गया
जब उसने आईना देखा
वक्त के निंशा चेहरे पर नजर आए
गिली पलकों को
छूअन की सिहरन ताजा हो आई


दस्तक...



चुन ली हैं कई दीवारें
फिर दिल के छेद से
झाँकते हैं इस उम्मीद से
कोई आए, वीरानी में दस्तक दे
पर जब कोई देता है आवाज
तो कहते हैं- कोई पागल है
दे दो थोड़ी सी खैरात
कह दो- अब भूल कर भी
न आए इस और

Saturday, August 6, 2011

सही!



कोई सही नहीं होता
एक कम गलत तो
एक होता है थोड़ा ज्यादा
पर जब कोई देता है
'मैं" पर पूरा जोर
तो वह होता है पूरा गलत
फिर भी सही तो
कोई नहीं होता

दर्द




दर्द की दवा ढूँढते
मैं खो बैठा खुद को
न दवा मिली
और न मैं 'मैं" रहा
साथ चलकर कुछ
दिलाते हैं यकिं
मेरे होने  का
जब होने लगता है
खुद पर मुझे ऐतबार
तभी वे दे जाते हैं
दर्द बेहिसाब

Friday, August 5, 2011

मुखौटा!





चढ़ा लिए हैं
भाँति-भाँति के लेप
फिर उसे ही चेहरा
मान, जी रहा है इंसान
हर थपेड़े से वह खुद को
नहीं, आवरण को बचाता
फिर अपना-पराया भूल
ताउम्र मुखौटे से करता है प्यार

दोस्त...


मुझसे किसी ने दोस्ती
की परिभाषा पूछी
मेरी जुबाँ पर
तेरा नाम आया
जब तेरी खूबी पूछी
तो मुफलिसी का
वो वक्त याद आया
फिर तेरे साथ बिताया
हर पल दौड़ा चला आया

चिंता!




'कल" की चिंता में
वह मर गया आज ही

Thursday, August 4, 2011

तस्वीर!



जब भी आता हूँ तेरे पास
कोरा केनवास रहता हूँ
तेरी ऊँगलियों के कूचे
उकेर देते हैं कई सतरंगी सपने
फिर वे ख्वाब मेरे जिस्म में
तेरी खुशबू से बस जाते हैं
और मैं जिंदा तस्वीर बन
महकता रहता हूँ दिन-दिन भर।