Friday, December 16, 2011

कहाँ से लाऊँ वो शब्द?

नहीं जानती है तू
कहाँ तक फैला है तेरा वजूद
फूलों की खुशबूओं
दिल तक छूते हर इक स्पर्श
गोधूली से नहाती साँझ
चौके से उठती भीनी सी लहर
धुँध में डूबी सुबह
मस्ज़िद की पहली अज़ान
मंदिरों की संध्या आरती
पहाड़ी नद के नाद
चीड़ के जंगल में झाँकती किरण
बूँदों में भीगे इंद्रधनुष
बच्चों की किलकारी
प्रकृति की हर चित्रकारी
पंछियों के कोरस
'यह कायनात है"
इस अहसास तक में
और, मेरे 'होने" के वजूद में
बस है तू ही तू
मैं बताना चाहता हूँ हर बार
पर क्या करूँ
कमबख्त शब्द ही नहीं मिल पाते
 

Thursday, December 15, 2011

ये साथ एक बार और!

सोचता हूँ कुछ देर सुस्ता लूँ
झील किनारे बैठ कर कहीं
पी लूँ थोड़ा सा मौन
खुद के अंदर उतरूँ
जहाँ बरसों पहले
जाया करता था कभी
हर चीज को फिर
सलीके से सजाऊँ
आईने को साफ कर
वही 'पुराने" कपड़े पहन
नजर भर खुद को भी देखूँ
समय के साथ उग आई
सलवटों पर गौर करूँ
तुझे भी साथ खिंच
वही सब गुनगुनाऊँ
जो बाहर के शोर में
दब गया है शायद
यूँ ही आईने में
फ्रेम कर तस्वीर अपनी
फिर, हम निकल पड़े
नए सफर पर
शोर से दूर, उस ओर
जहाँ बस बातें हो
मेरी-तुम्हारी
आँखें बंद कर हम कहें
ऐ-जिंदगी, ये साथ
एक बार और, एक बार और

Tuesday, December 13, 2011

किरचें!

क्यूँ नजर आती है
दर्द की किरचें यूँ बिखरी हर ओर
संभल कर चलता हूँ, फिर भी
कमबख्त पैर पड़ ही जाता है
चुनने की कोशिश में
हाथ भी लहूलुहान कर बैठा हूँ
यकिं था, एक-एक कर
समेट ही लूँगा इन्हें
पर, बदकिस्मती तो देखो
जिस्म में खून का कतरा न बचा
न भाग, न समेट सकता हूँ
बस, किरचों में ही कहीं
तेरा अक्स खोजा करता हूँ
सोचा था कभी
बिखेरूँगा खुशियों के फूल हर ओर
पर न जाने कैसे
मैं तंगदिल

तेरा दिल तोड़ बैठा
 

Friday, December 9, 2011

मेरा पत्थर-दिल खुदा!

सुना था मैंने
खुदा के दर से नहीं जाता
कोई खाली हाथ
मगर न जाने क्यूँ
चौखट से तेरी
लौटा हूँ हमेशा उल्टे पाँव
यह भी सुना था कभी
तकदीर देती है सभी को
एक मौका जरूर
मगर हम देखते रह गए
जिंदगी यूँ ही तमाम हो गई
कहते तो यह भी हैं कहने वाले
जो करता है कोशिश
जीत हो ही जाती है उसकी
फिर कैसे, कहाँ हुई गलती मुझसे?
खुब लगाया जोर मगर
हार हमेशा हाथ लगी
नहीं है रंजो-गम
कि मैं, पा न सका तुझे
अफसोस तो यह है कि
तू पत्थर-दिल निकली
और मैं खुदा कहता रहा तुझे

Tuesday, December 6, 2011

शर्त!

वह अपनी शर्तों पर
जिंदगी जीता था कभी
अब शर्तों के भरोसे
है जिंदगी उसकी
बहुत समझाया था
काबू में रखना
नामुराद दिल को
दे गया ना यह
तिल-तिल जीने की सजा
माना की प्यार में
कोई शर्त नहीं होती
पर कमबख्त पहली शर्त
ही यह है, कुछ भी करो
मगर इश्क में कोई शर्त न रखो
हम नहीं जानते
सही और गलत
हम तो शर्तिया कहते हैं
'दीवानगी" में हार जाओगे
हर-इक शर्त तुम
 

Monday, December 5, 2011

माया...!

मैं अक्सर उसे कॉलेज आते-जाते देखा करता था। कभी बर्तन मांजते, कभी नल की लाइन में लगे पानी भरते या फिर गर्म लोहे पर घन चलाते। मुझे देख न जाने क्यों मुस्कुराया करती थी वो। बड़ा अच्छा लगता, कभी दिल की धड़कनें हल्की सी तेज भी हो जाया करती। एक बार जब हमारी नजरें मिली तो बरबस ही मैंने हाथ हिला दिया। अजीब लगा और तुरंत भूल सुधार करते हुए मैं तेजी से निकल भागा। ...लेकिन अगले दिन सुबह जब मैं उसके झोपड़े के पास से गुजरा तो मेरी निगाहें एक पल के लिए उधर ठहर गई। वह कहीं नजर नहीं आई। न जाने क्यों हल्की सी निराशा, फिर खुद को झटक मैं बढ़ गया आगे। ...तभी मैं देखता हूँ कि वह चंद कदम दूर खड़ी है और मुस्कुराकर कॉलेज की मेरी सहपाठियों की तरह ही हाथ हवा में लहराकर फुसफुसाई- हाय!!!
उफ्... कितनी सलोनी और आकर्षक। राजस्थानी परिधान में उसका आकर्षण और वह देहाती सा नजर आता उसका 'हाय" मैं कभी नहीं भूल सकता। फिर तो जैसे वह मुझे 'हाय" कहने के लिए ही मेरा इंतजार करती रहती, जैसे ही मैं पहुँचता वह हाथ हवा में लहरा देती। सुबह-शाम बिना नागा किए यह क्रम चलता रहता। मैं भी जैसे सुबह के हाय के बाद शाम का और शाम के हाय के बाद सुबह का इंतजार करता था।
वह होगी मुझसे 5-6 साल छोटी, यही कोई 16-17 बरस की। तीखे नख्श की उस श्यामल लड़की की मुस्कुराहट बहुत ही नशीली थी। बड़ी-बड़ी सी आँखें ढेर सारी बातें पल में कर लिया करती थी। मुझे कई बार लगा कि वह सुबह रात भर का और शाम को दिनभर का चिट्ठा पूछती रहती है और मेरी आँखें बातें करने में इतनी माहिर नहीं थी, इसलिए मैं कभी उसे कुछ बता ही नहीं पाया।
उसका घर या यूँ कहे झोपड़ा सड़क के किनारे बना हुआ था। जहाँ कुछ दो-तीन आदमी नजर आते थे। उनमें से एक बड़ी मूँछों वाला उसका पिता था और बाकी के कौन हैं, मैंने कभी इसमें अपना दिमाग नहीं खपाया। तीन महिलाएँ भी थी। जिनमें से एक अधेड़ उसकी माँ थी और एक भाभी थी, तीसरी का पता नहीं। उसमें भी अपन ने दिमाग नहीं खपाया।
वे लुहारी का काम करते हैं, जिन्हे लोकल भाषा में गाडलिया कहा जाता है। चिमटा, संडसी, कुल्हाड़ी, दराती ऐसे ही आकारों में वे लोहे को गरम कर हथोड़े से पिटकर ढाला करते हैं। मर्द तेजी से गर्म लोहे को पलटा करते हैं और महिलाएँ घन से लोहे पर वार किया करती हैं। मैंने अक्सर अन्य महिलाओं को ही घन चलाते हुए देखता था, वह कभी-कभार ही हथौड़ा मारती थी। लेकिन जब भी वह घन चलाती थी, तो मुझे बहुत मजा आता। शाायद आज भी जब मैं खुद से पूछता हूँ कि ऐसा क्यों था, तो जवाब यही मिलता बस आता था मजा! अब मुझे लगता है वह प्यारी सी लड़की इंसानों को आकार दिया करती थी और मुझे उसकी यह कारिगरी पसंद थी।
कई बार उसकी माँ के आगे बैठी वह जुएँ भी निकलवाती मिली। इस हाल में वह खुद को जब भी मैंरे सामने पाती या तो शरमा कर भाग जाया करती या नजरें इधर-उधर कर लिया करती। अब वह क्यों शर्माती थी, पता नहीं और मैं उसे इस हाल में पकड़कर क्यों खुश होता था यह भी पता नहीं।
वक्त ऐसे ही निकलता रहा। उसे बारिश में भीगते देखा, ठंड में ठिठुरते हुए ठेले पर चाय की चुस्कियाँ लेते भी देखा। एक बार तो उसे चाय पीते देख मैंने भी ठेलेवाले से कट चाय माँगी और पीने लगा। उसने आँखों से पूछा भी- ये गलत है। मुझे जवाब देना नहीं आया। उसने हल्की सी नाराजी दिखाते हुए जल्दी-जल्दी चाय सुड़कना शुरू कर दिया। मुझे यह बड़ा अजीब लगा। सोचा- फिजूल ही बेचारी को परेशान कर दिया। मैं भी चाय जल्दी खत्म कर भागने के इरादे में था, लेकिन वह चाय खत्म कर चुकी थी। उसने अपने कुर्ते की जेब में से 2 का सिक्का निकाला और चाय वाले की ओर बढ़ा दिया। ...पर इस बार मेरी आँखें बोल गई- यह गलत है। लेकिन उसकी आँखों ने तपाक से कहा- क्या गलत है? यही सही है। तुम दोगे तो गलत रहेगा। फिर न मैं बोल पाया और न ही ये आँखें!
ऐसे ही एक साल बीत गया। न मेरे और न उसके इस तरह बातें करने का क्रम टूटा। मैं दिवाली की छुट्टियों में अपने गाँव गया हुआ था। इस बार वहाँ से लौटने में मुझे करीब एक माह लग गया। घरवाले आने ही नहीं दे रहे थे। जब आया तो मुझे कॉलेज जाने के लिए उतना उत्साह नहीं था, जितना उसे देखने का था। मैं अक्सर 10 बजे वहाँ से गुजरा करता था, लेकिन उस दिन 8 से आगे घड़ी की सूई काफी धीरे-धीरे खिसकी। फिर भी मैं करीब साढ़े 9 बजे उसके झोपड़े पर पहुँच चुका था। वह नजर नहीं आई। थोड़ा दिल घबराया, मैंने बाकी के चेहरों को पहचानने की कोशिश की। कहीं पुराने लोग झोपड़ा छोड़कर तो नहीं चले गए। ...लेकिन जो दो-तीन महिला-पुरुष नजर आए, वे वही थे। मैंने खुद से कहा- हो सकता है, वह यहीं आसपास गई होगी। घड़ी देखी और खुद को ढाँढस बँधाया कि आज जल्दी भी तो हूँ। और इतने दिनों बाद लौट रहा हूँ, उसे क्या पता कि आज मैं आने वाला हूँ। मैंने खुद को कोसा- मुझे बता कर जाना चाहिए था। बेचारी रोज इंतजार करती होगी। पर बताता कैसे- मेरी आँखें तो बोल ही नहीं पाती और ऐसे तो हमने कभी बात ही नहीं की है अब तक।
मैं टाईमपास करने के लिए टी स्टॉल पर चला गया। वहाँ कट चाय बोलकर अखबार उलट-पुलट करने लगा। चाय भी खत्म हो गई, लेकिन वह नजर नहीं आई। अब क्या करता? घड़ी देखी, सवा 10 बज गए थे। मुझे चिढ़ भी होने लगी कि मैं यह क्या कर रहा हूँ? क्यों बेफिजूल अपना वक्त जाया कर रहा हूँ। यह सोचते-सोचते ही मैंने एक पोहा भी ऑर्डर कर दिया। चाय वाले ने आश्चर्य से देखा कि सारे लोग चाय से पहले पोहा खाते हैं और ये जनाब बाद में ले रहे हैं। पर मुझे उससे क्या?
पोहा आ गया, खा भी लिया। अखबार भी लगभग चाट लिया। ऐसा करते-करते मैंने 11 बजा दिए, लेकिन उसका कहीं पता नहीं। मैं इंतजार करते हुए बुरी तरह थक चुका था, लेकिन वह नहीं आई। मैं किसी से पूछ भी नहीं सकता था, क्योंकि न तो मैं उसका नाम जानता था और मुझे यह भी समझ नहीं आ रहा था कि मैं उसके घरवालों से क्या पूछूँ?
मैं हताश होकर कॉलेज चला गया। वहाँ सारा दिन ऊथल-पुथल चलती रही कि वह कहाँ चली गई है? मेरा दिनभर कहीं मन नहीं लगा। शाम को भी वहाँ उसे छोड़कर सारे लोग नजर आए। मैंने फिर चाय पी और शाम का अखबार पढ़ा। न चाहते हुए नाश्ता भी कर लिया। ...लेकिन वह कहीं नजर नहीं आई। अब यह क्रम रोज चलने लगा। रविवार को भी उसके लिए मैं सुबह-शाम चाय पीकर आने लगा, लेकिन वह नजर नहीं आई।
उसने नजर आना बंद कर दिया था। मैं भी अब आँखों की भाषा समझना बंद कर चुका था। ऐसे की दो-तीन माह बीत गए, वह नजर नहीं आई। खैर, मैं रोज उसको खोजता, नहीं मिलती तो खुद से ही कहता- अच्छा हुआ साली नजर नहीं आ रही है। वैसे भी कहाँ अपना दिल लगा हुआ था। वह तो यूँ ही टाईमपास थी... पर क्या वाकई वह टाईमपास थी? दिल कहता- पर साली गई कहाँ? माना कि प्यार नहीं था, पर कुछ तो था! सालाऽऽऽ इसी 'कुछ" के कारण मैं सुबह-शाम वहाँ कुछ नजर आ जाए इस उम्मीद से देखा करता था।
अब मैं मान चुका था, कि वह कहीं चली गई है। मेरी निगाहें उस रास्ते में उसे ढूँढना कभी नहीं भूली। इधर कॉलेज में मेरी सहपाठी सोना अब बहुत अच्छी दोस्त बन चुकी थी। एक दिन मैंने उसे अपनी सारी व्यथा बताई। उसे यह भी बताया कि वह प्यार नहीं 'और कुछ" है। कुछ खास! सोना भी यह मानती थी कि हाँ, कुछ जज्बात ऐसे हैं, जो रिश्तों के मोहताज नहीं होते। उन्हे रिश्तों का नाम देना, जज्बातों की बेइज्जती है। दुनिया नहीं समझेगी, लेकिन मेरी उस दोस्त ने समझ लिया। सोना मुझे मेरे ही टाईप की लगी। मुझे लगना लगा कि यही वह है जो दुनिया में मुझे सबसे बेहतर समझ सकती है। मेरे जज्बातों की कद्र कर सकती है और मेरे द्वारा बनाए गए उन अनगिनत रिश्तों की भी।
अब वह भी मेरे साथ कई बार मेरे रूम तक आती और हर बार वह भी 'उसे" खोजती हुई ही आती। मुझे कई बार यह लगता कि सोना उसे ढूॅढकर मुझे तोहफा देना चाहती हो। मुझे उसका ढूॅढना बहुत भाता रहा है।
एक दिन सोना बहुत उत्साह के साथ रूम पर पहुँची। उसके चेहरे की चमक देखकर ऐसा लग रहा था मानों उसे किसी खजाने का पता चल गया हो। वह चहककर बोली- आज मुझे वो दिखी। मैंने कहा- कौन? बोली- अरे वही, तुम्हारी लंबी तलाश। मैं खुशी से उछल पड़ा। मैंने पूछा- तुमने कैसे पहचाना? तो बोली- जिस तरह से तुमने बातें की, उसके बारे में बताया, उसके अनुसार तो मैं भीड़ में भी उसे पहचान जाऊँ। मैं तुरंत ही सोना के साथ चल दिया।
वाकई में वही थी। इन कुछ महिनों में वह थोड़ी भरी-भरी नजर आने लगी थी। ...पर खुबसूरत वैसी ही। जैसे ही मुझे और सोना को उसने देखा, पहले तो आश्चर्य से आँखें फैल गई। फिर उसने आँखों से पूछा- यह कौन? पहली बार मेरी आँखें बोली- मेरी गर्लफ्रेंड! वह फिर बोली- क्या? मेरी आँखों का जवाब था- छोड़ो! तुम कहाँ थी?
अभी हमारी बातें चल ही रही थी कि उसकी माँ ने पूछा- ये कौन हैं? उसने हल्के से मुस्कुराकर कहा- म्हारा दोस्त! उसकी माँ, भाभी और जो दो आदमी थे वे हँसे। हमने उस ओर ध्यान नहीं दिया। माँ बोली- बैठा ना इनको, चाय पिला। उसने आँखों से पूछा और हमने मना कर दिया।
सोना ने पूछा- तेरा नाम क्या है? जबाव- माया! सोना ने मेरा प्रश्न छिनते हुए पूछा- इतने दिनों से कहाँ थी? वह हल्के से मुझे देख मुस्कुराई, बोली- मेरी शादी हो गई! मेरे मुँह से निकला- क्या? उसकी आँखों ने मुझे देखा भर। सोना ने पूछा- कहाँ? वह बोली- राजस्थान, वहीं रेवे है वो! सोना- क्या करता है? जवाब- लुहारी, और कई करेगो।
सोना- कैसा दिखता है? बस हँसी... कितने दिन रहेगी? जवाब- हूँ, एक महिना। फिर उसने हमारा नाम भी पूछा। नाम बताने पर उसमें उसने खास रूचि नहीं दिखाई। मेरी तरफ देखकर सोना को बोली- दीदी, तम बहुत अच्छी हो। मैं हल्के से मुस्कुराया।
अब माया से कभी-कभीहमारी बातें भी हो जाया करती थी। मुझे आते-जाते वह अपने परिजनों के सामने ही हाय कर दिया करती। मैं अब पहले की तुलना में खुद को उसके मामले में ज्यादा मुक्त महसूस करने लगा था। कई बार वहाँ से गुजरते हुए मैं उसके परिजनों से हँसी    -मजाक भी कर लिया करता था। उसके घर चूल्हे पर खाना बनता था। कई बार मोटी-मोटी रोटियाँ बनते देख मेरे मुँह में बरबस पानी आ जाया करता।
हाँ, इन दिनों वह आँखों से कम बातें करने लगी थी। अपने बनाव-श्र्ाृंगार पर उसका विशेष ध्यान होता था। वह भी आम लड़कियों की तरह गहरे रंगों की लिपस्टिक पोत लिया करती थी। फैशन उसने सड़क से गुजरती लड़कियोंं से अपना लिया था। कई बार वह मेकअप के मामले में शहरी लड़कियों को हराती नजर आई। फिर भी मुझे वह वैसी ही लगती, जैसी वह पहले दिन से लगा करती थी। अब मैं चाय पीते हुए उससे भी पूछ लिया करता और वह अक्सर चाय के लिए तैयार भी हो जाया करती। हाँ, ठेलेवाले और वहाँ आने वाले लोगों के लिए यह बड़ा अजीब था। पर, हमेें इसकी जरा भी चिंता नहीं थी। एक दिन मैंने उससे पूछा- तुझे खाना बनाना आता है? उसने आँखें गोल कर कहा- हाँऽऽऽ। मैंने कहा- मैं मान ही नहीं सकता। बोली- खाओगे?
अब की बारी मेरे हाँ करने की थी।
अगले दिन वह झोपड़े से कुछ दूरी पर मिली। वहीं जहाँ पहली बार उसका हाय मिला था, तबसे लेकर अब तक वह 'हाय" यूँ ही वहाँ खड़ा नजर आता है। आज पता नहीं क्यों, उसने मुझे देखते ही हाय नहीं किया। अजीब लगा, पास गया तो वह हौले-हौले मुस्कुरा रही थी। उफ्, वही हँसी, जिस पर सबकुछ हार जाने को दिल चाहता है। उसने लुगड़े (राजस्थानी साड़ी) में से हाथ निकालकर कागज की पुड़िया मेरी ओर बढ़ा दी। पूछा- क्या है? बोली- देख लो नी। फिर एकदम से बोली- इहाँ नहीं और उहाँ भी अकेले में। मैंने पूछा- ऐेसा क्यों? बस वह हँसते हुए तेजी से चल दी, बोली- देखना तो सरी।
मैंने वह पुड़िया कॉलेज केंपस में आते ही पार्किंग शेड में बैठकर खोली। देखा, मक्का की दो मोटी रोटियाँ और लहसून की लाल सूर्ख चटनी! मुझे रोटी में उसका हँसता हुआ चेहरा नजर आ गया। आँखें पूछ रही थी- आती है कि नी, रोटी बनाते? मैंने खाने भी कभी इतना उतावलापन नहीं दिखाया था, जितना उस दिन कोर तोड़कर गप कर गया। वाकई अद्भुत! मुझे बहुत अच्छा लगा। ...लेकिन एक रोटी और चटनी मैंने सोना के लिए बचाकर पुड़िया बैग में रख ली। फिर, सोना को लेकर कैंटिन गया और सारा किस्सा सुनाया। उसे बहुत मजा आया और तुरंत पूछा- कहाँ है मेरा हिस्सा? मुझे पता था सोना को मक्की की रोटी बहुत पसंद है, लेकिन इतनी पसंद होगी यह पहली बार पता चला। उसने बहुत मजे से चटनी और रोटी खायी और माया की 'माया" की जमकर तारिफ की।
अगले ही दिन सोना मुझे लेकर माया के पास पहुँच गई। सोना जैसे ही उसकी तारिफ करने वाली थी, उसने रोक दिया। इशारे से बताया कि घरवालों को थोड़े ही मालूम है। फिर शिकायती लहजे से उसकी आँखें बोली- मैंने तो आपके लिए ही रोटी बनाई थी, दीदी को क्यों दी? मेरी आँखों ने भी जवाब दिया- समझा कर यार! वो बोली- हाँ, हाँ... जानती हूँ सब!
एक दिन वह मुझे चाय पीते देख वहाँ चली आई। मैंने पूछा- चाय। उसने कहा- हाँ। फिर धीरे से बोली- कल हूँ जा री हूँ। मैं चौंका- कहाँ? फिर बोला- ओह, ससुराराल। वह- हाँ, थोड़ी निराश होकर बोली- जानो पड़ेगो नी। मैं अनिच्छा से मुस्कुराया, बोला- हाँ, मजे करना। वह बोली- वह तो इहाँ है, वहाँ तो... पूछा- वहाँ तो क्या... बोली- कुछ नहीं काम और घरआलों की याद... बस। मैं- दारू पीता है क्या वो। वह- हाँ और अच्छा भी नी लागे। परेशान करता है...बस! मैं- मत जा, मना कर दे। वह आश्चर्य से आँखें गोल कर- सुसराल तो जानाईज् पड़े। सबली औरतां जाय। मैं- मना करके तो देख। वह- देख ली, माँ ने खुब गार दी। भई छोड़ने जाएगा। मैं कुछ नहीं बोल पाया, बस उसे देखता रहा। हाँ, दिमाग जरूर उबल रहा था। मंथन चल रहा था कि आखिर क्यों होता है ऐसा। माँएँ ही अपनी बेटियों को क्यों जुल्म सहने का पाठ पढ़ातीं है? जब वे ससुराल में परेशान हैं, तो फिर उनकी तकलिफों से क्यों मुँह मोड़ लिया जाता है? क्या शादियाँ करके बेटियों के बोझ से मुक्त होने की मानसिकता नहीं है ये। खैर, यह तो सड़क पर बने एक झोपड़े की बेटी की दास्ताँ है, लेकिन यही हाल तो शहरों का है, यहाँ बने कई आलिशान घरों का भी हाल इससे जुदा तो नहीं?
वह चली गई! उसका 'हाय"वहीं सड़क पर रात-दिन चौबीसो घंटे मुझे मिल जाया करता। बड़ा अच्छा लगता। दिल कहता- यदि ईश्वर तू है, तो उसे खुश रखना। उसकी याद मेरे जेहन में मीठी याद रही। फिर एक दिन शहर की खुबसूरती की जद में वह झोपड़ा भी आ गया। कॉलेज से लौटते हुए वह चूल्हा, पलंग, गोदड़ियाँ, संडसी, चिमटे नजर नहीं आए। चायवाला भी दूर कोने में नजर आया, पूछा- क्या हुआ? बोला- साहब, सड़क चौड़ी होना है। सारे झोपड़े तोड़ दिए गए, जो सामान नहीं हटा पाए, वह जब्त हो गया। पूछा- वह झोपड़ा कहाँ गया? बोला- पता नहीं, सामान समेट कर चले गए। आगे ढेरा डाल लिया होगा उन्होंने। उनका क्या है, वे तो खानाबदोश हैं। आते-जाते रहते हैं। मरण तो हमारा है। आगे की बात मैंने नहीं सुनी और तेजी से शहर से बाहर जाती सड़क की ओर बढ़ गया। वे लोग कहीं नहीं मिले।
मैं उस रात करीब दो बजे लौटा। मेरा रूम पार्टनर और दोस्त मुझे खोज रहे थे। मैंने उन्हे कुछ नहीं बताया। उन्हे बताने का कोई सार नहीं था। एक तो शुरू से कहानी बतानी पड़ती, दूसरे सहानुभूति की बजाय मेरा मजाक ज्यादा उड़ाया जाता। खैर, अगले दिन सोना को मैंने बताया कि अब कभी माया से हमारी मुलाकात नहीं होगी। ऐसे ही करीब 5-7 बरस बीत गए, अब माया कभी-कभार ही याद आती थी। ...और जब भी याद आती, खुशियाँ हजार दे जाती थी। इस बीच हमने शादी कर ली। मेरी दुल्हन वही माया की दीदी- सोना बनीं। अब भी हम उधर से गुजरते, कई बार माया का जिक्र हो जाया करता।
एक दिन शाम को सोना घर लौटी। काफी उदास। आते ही गले मिलकर सुबकने लगी। मैं घबरा गया, पूछा- क्या हुआ? वह कुछ भी बोल नहीं पा रही थी, बस चुप थी, बिल्कुल चुप! फिर धीरे से बोली- उस बेचारी का क्या दोष था, किस बात की सजा मिली उसे? मैं कुछ भी नहीं समझ पा रहा था, बड़ी मुश्किल से उसे संभाला। वह कुछ नॉर्मल हुई तो बोली- आज मैंने माया को देखा। मैं बोला- यह तो अच्छी बात है ना, फिर उदास क्यों हो? कहाँ मिली वह? बोली- रास्ते में, शायद अब तुम्हे भी वह रोज मिलेगी। जो शहर के बाहर खंडवा की ओर सड़क जा रही है, वहीं उनका डेरा है।
उसने बताया- मैंने माया को देखते ही गाड़ी रोकी। वह देखते ही चहक गई। मैंने पूछा भी कि कब आई? बोली- कुछ ही दिन पहले। पर दीदी भईया कैसे हैं? मैंने कहा- अब वे मेरे पति हैं। वह बहुत खुश हुई। बोली भी- मुझे मालम था। मैंने पूछा- पर तुझे क्या हुआ है? कैसी मुरझा गई है। बोली- बीमार थी नी। मैंने पूछा- क्या हुआ? बोली- ज्यादा तो नी मालम, पर म्हारा मरद का पाछे बीमारी पड़ गई थी। हूँ पर भी आई गई। हूँ तो बची गई पर ऊ नी बच्यो! मुझे गहरा झटका लगा- पूछा क्या हुआ था तेरे मरद को? बोली- बड़ा डॉक्टर ने कई जाँचा की। 'एस" नाम की बीमारी थी वा। शरीर खुब फुली ग्यो और मर ग्यो बापड़ो। यह बताते-बताते सोना फिर छलक गई। मेरा पूरा शरीर सुन्ना पड़ गया था। कुछ भी सुनाई देना बंद हो गया। बहुत देर तक हम ऐसे ही बैठे रहे। मैंने पूछा- वह कैसी है? सोना बोली- वह ठीक है, उसने बताया कि अस्पताल से दवाई मिलती है। बिना नागा उसे दवाईयाँ लेना होती है। मैंने पूछा- बच्चे? सोना बोली- नहीं है। मुझे थोड़ी राहत हुई।
सोना ने कहा- कल मिलेंगे हम उससे। ...पर मैं बुरी तरह डर गया। मैं चाहता था उससे मिलना, लेकिन उसका सामना करने की ताकत मुझमें नहीं थी। मैंने सोना को इंकार कर दिया। हाँ, अब मैं वहाँ से गुजरता जरूर हूँ, गाड़ी के शीशे चढ़ाकर। कई बार दूर से उसे देख भी लेता हूँ। अब वह बड़ी लगने लगी है। मुस्कान वैसी ही, शायद कभी बदलेगी भी नहीं। हाँ, थोड़ी चेहरे और आँखों की चमक कम नजर आती है। अब वह घन काफी चलाने लगी है... शायद जिंदगी को आकार देना सिख लिया हो या उसे मालूम चल गया हो कि इसे सही आकार खूब पीटकर ही दिया जा सकता है। सोना अब भी मिलती है उससे। हाल भी पूछती है और दवा रोज लेते रहने की हिदायत भी देती है। वह मुझसे ज्यादा अच्छी दोस्त सोना की बन चुकी है। माया कभी-कभी मेरे बारे में सोना से हाल पूछती है। कहती भी है- आजकल याद नी आए म्हारी? सोना टाल जाती है, बोलती है टाईम नहीं मिलता। इस टाईम नहीं मिलता पर अक्सर वह फिकी मुस्कान दे देती है। मानों सोना को चुनौती दे रही हो- मेरे लिए टेम नी है। ऐसो हो ही नी सके। मैं और सोना भी जानते हैं- ऐसा हो ही नहीं सकता।
मुझे कई बार उससे मिलने की तीव्र इच्छा होती है। सोचता हूँ- सबकुछ छोड़कर उसके पास भाग जाऊँ और कहूँ- क्या हो गया है तुझे? पर ठीक ही तो है, उसे नहीं पता कि उसे क्या हुआ है? क्या कर लेती वह और मैं? फिर ले तो रही है वह दवा, उस गलती की जो उसने की ही नहीं। वह तो जाना ही नहीं चाहती थी, वहाँ! माया... ओ... माया... क्या करूँ तेरा...!

Saturday, December 3, 2011

साथ तेरा...

कई रातें गुजारी है हमने
यूँ जागते
मानों फिर ऐसी रात
लौट कर ना आएगी
कई-कई बार बित जाते हैं
घंटों यूँ बातों में
मानों फिर कभी
हम ना मिल पाएँगे
कई बार नापी है ये सड़कें
खुली आँखों से यूँ ख्वाब देखते
मानो फिर ऐसे सफर पर
हम ना निकलेंगे
सफर दर सफर
मंजिल दर मंजिल
उम्र के हर पड़ाव पर
ऐसे ही जीना है मुझे
संग तेरे
कि, अब साथ तेरा
आखिरी हो या
यह बन जाए पहला
 

आस

खुशी की चाह में
जब बढ़ने लगे कदम
उसने कहीं ओर क्यूँ
खोज लिया अपना ठिकाना
हम तो बेशर्म इतने
पहुँच गए उस घर तक भी
लेकिन उस जालिम ने
दरवाजा ही ना खोला
हलक सूख जाने तक
खूब नाम उसका पुकारा
तब, शक्ल देख उसने कहा
ये बता आखिर तू कौन है हमारा?
लगता था मुझे
पसंद है उसे साथ मेरा
लेकिन, जब होश आया तो
मिला गमों के बिच बसेरा मेरा
 

Friday, December 2, 2011

'उम्मीद"

'उम्मीद" भी होती है
कितनी नामाकूल
हर बार झाँसा देकर
ये जब्त कर लेंती हैं संवेदनाएँ
लगता है बस अब
ठीक हो जाएगा सबकुछ
कुशल राजनेता की तरह
देती है सुहावने आश्वासन
हर विपरीत परिस्थिति के लिए
होता है इसके पास दिवास्वप्न
कईं बार तो इसके भरोसे
हो जाती है उम्र तमाम
मौत के मुहाने पर भी
यह बचने की दे देती है उम्मीद
अच्छा ही है तुझे नजर
नहीं आता किसे देना है दिलासा
यह भी अच्छा है कि
झूठा ही सही जगाती तो है आशा
सोचता हूँ
तू न होती तो
कभी असंभव, संभव न हो पाता
तूफानों से लड़ना न आता
असफलता पर न छटपटाता
यूँ जीतता भी न जाता
हर बार सुनहरे ख्वाब न सजाता
मत पूछ ऐ-फरेबी
तेरे बिना तो मैं
जीना ही भूल जाता