Saturday, February 15, 2014

खडा़ सिक्का... ये जिंदगी....



जब भी चुनी है कोई राह
चौराहे पर उलझा हूं
जब भी आया है कोई ख्याल
न जाने कैसे चले आते हैं
साथ उसके अनगिनत विचार
जब भी छिडी़ है भावना की एक तरंग
न जाने कहां से उठ आता है ज्वार
हार-जीत के बिच घमासान
आशा-निराशा के बिच का द्वंद
समाज-वैयक्तिक के बिच की खिंचतान
किस कदर खुद को निचोड़ लेता हूं मैं
एक कतरा भी नहीं होता पास मेरे
किसी पेंडूलम की भांति झुलते
हर वक्त खुद को देखना
साधते रहने की ताउम्र की साधना
क्या बस इतनी-सी है जिंदगी?
या नदी, पहाड़, झरने, जंगल
चहचहाहट, मुस्कुराहट
इंसानियत, मुहब्बत
सबको जी भर
एक सांस में भर लेने को ही
कहा जाता है जिंदगी?
पता नहीं
फिलहाल, सिक्के के दो पहलूओं के बिच

Iखड़ीO हुई है मेरी जिंदगी
 

Thursday, February 13, 2014

करता रहूंगा प्यार तुझे...


हाथ में लाल गुलाब
घुटनों के बल
या कुछ यूं करूं
ले आऊं तुझे
एक लांग ड्राइव पर
चटक चांदनी में
कह दूं अपनी बात
या कुछ यूं करूं
नाव में हो सवार
मझधार में हो जाऊं
थोड़ा रूमानी
या फिर
किसी झील के किनारे
नजरों के रास्ते
तुझे करा दू्ं दिल की सैर
या कुछ यूं करूं
तितलियों के देश में
फूलों के बिच
थाम कर तेरा हाथ
दिखा दूं अपने ज़ज्बात
हर वो बात करूं
जो छूती हो दिल को तेरे
और, लाती हो करीब
और करीब तेरे
क्या इतना भर काफी नहीं
हर बार की तरह
फिर एक बार
कह दूं तुझे
हां, प्यार है तुझसे
और, ताउम्र करता रहूंगा
यूं ही प्यार तुझे

Friday, February 7, 2014

सब स्वप्न...


एक जान कैसे होते हैं
नहीं पता
ये भी नहीं पता
कब देखा था तुझे जी भर
क्या कभी थामा था
अपने हाथों में तेरा हाथ
सीने से तुझे लगाकर
धड़कने कभी क्या गिनी थी मैंने
दूर तक, बहुत दूर तक
यूं ही मौन कभी घूमते थे हम?
तेरी महक
कभी उठती थी मेरे जिस्म से?
हंसी तेरी
आवाज, वो घंटों बात
कभी की थी हमने?
नहीं पता
ये भी नहीं पता
क्या कभी जीया जाता है ऐसे
शायद सब कुछ, हां सब कुछ
स्वप्न था
ना होता तो
क्या कभी तू नहीं दिला देती याद
 

Tuesday, February 4, 2014

निराशा...


जब निराश होता हूं
चाहता हूं थामे हाथ कोई
बातें करें मुझसे मेरी
देखे अंदर झांककर
अंधेरे में चिंगारी सुलगाये
बालों को सुलझाती ऊंगलियां
दिल की गुत्थियां सुलझाये
मौन की भाषा से
ढेरों बातें करता जाए
भीतर उठे लपटें तो
प्यार की बारिश कर जाए
हताशा के काले बादलों में
मेरा साया बन जाए
अकेले में भी
साथ की उम्मीद जगा जाए
लेकिन, जब निराश होता हूं
साथ होती है बस निराशा
मेरी चाहत, कईं-कईं बार
मेरे ही हाथों डूबी है
मेरी ही निराशा में
और मैं
अभिशप्त हूं
ऐसे ही उसे डूबकर
हर बार
मरते देखने के लिए