Tuesday, December 31, 2013

सांता से बोलकर गायब करवा दूंगी...





न जाने क्यों क्रिसमस के एक दिन पहले ही सांता क्लॉज ने युगंधरा को गिफ्ट दे दिया। गिफ्ट भी वह जो कई बार युगी के सपने में आया होगा या वो कई बड़े बच्चों के हाथों में देखा करती रही है। टेब जिसमें हो ढेर सारे गेम्स। वाह... सुबह जैसे ही तकिये के नीचे हाथ डाला, युगी की आंखें चमक उठी। बोली- मम्मा सांता ने तो कमाल कर दिया। थैंक्यू सांता... बस उसके बाद यह पोस्ट लिखे जाने तक सांता ही सांता है। 
टेब में आंखें गड़ाकर बार्बी का मैकअप किया जा रहा है, नहलाया जा रहा है, टैंपल रन हो रही है, बिल्ली से बात हो रही है, उसे खाना खिलाया जा रहा है, सुलाया जा रहा है न जाने क्या-क्या। कमाल यह है कि अब युगंधरा यह भी देख चुकी है कि और बच्चों को सांता ने ऐसा गिफ्ट नहीं दिया है, जैसा उसे मिला है... तो अब वह मान चुकी है कि सांता केवल उसकी ही सुनता है। वह धमकाने भी लगी है कि ज्यादा परेशान करोगे तो सांता से बोलकर गायब करवा दुंगी। अपने दाता को भी वह यही धमकी दे चुकी है। दाता ने जब यह कहा कि अब गेम नहीं खेलना, बंद करो... तो बोली नहीं...दाता.. 
जब दाता ने फिर दोहराया तो बोली देखना सांता से बोलकर आपको गायब करवा देती हूं। जब उसे कहा गया कि फिर दाता गायब हो जाएंगें तो स्कूल की फिस कौन भरेगा, कार में घुमाने कौन ले जाएगा, किसका सीना चीरकर देखेगी कि इसमें युगंधरा है तो सोच में पड़ गई। फिर धीरे से कहा- मैं फिर बुला लुंगी... शुक्र है दाता की जान में जान आई। दाता का सारा प्रेम इस बार सांता के कारण दांव पर लग गया था।
खैर कमाल की है युगी... सीना चीरने का किस्सा यूं है कि एक बार बाप-बेटी के बीच बात चल रही थी। युगी ने पूछा- दाता गणेशजी को जानते हो... नहीं कहने पर बताया कि उनकी सूंड होती है... बड़ा सा पेट होता है... जिसमें ढेर सारे लड्ढू... फिर ठहाके मारकर हंसी। उसने दाता की फिर परीक्षा ली और पूछा- अच्छा हनुमानजी कैसे दिखते हैं? फिर दाता का ना सुन बकायदा एक्शन के साथ जवाब दिया... एक पैर पर खड़ी हुई, एक पैर हवा में थोड़ा फोल्ड किया फिर एक हाथ आगे किया और दूसरे हाथ में कुछ उठा रखा हो जैसी एक्शन की। उससे पूछा कि यह क्या है तो बोली हनुमान हवा में उड़ रहे हैं हाथ में पहाड़ है... क्या दाता इतना भी नहीं जानते... फिर एक और परीक्षा। इस बार उसने जानकारी दी कि हनुमानजी अपना सीना फाड़ते हैं.. आपको पता है उसमें कौन नजर आता है? दाता के फेल होने पर जवाब था- राधा-कृष्ण... उसके दाता को पसीना आ गया ये समझाने में कि वो राधा-कृष्ण नहीं राम-सीता हैं। खुब समझाने पर उसने माना कि दाता शायद सही हैं। दाता ने पूछा- अच्छा बेबी तुम्हारा सीना चीरे तो क्या नजर आएगा तो उसकी आंखें एकदम गोल हो गई। बिना समय लगाए तपाक से उसने कहा- छोटे से दाता... फिर जब उससे पूछा कि दाता के सीने में कौन होगा तो बोली- छोटी से युगंधरा....
युगंधरा एक बात और कहा करती है कि दाता मेरे एक नंबर के चम्मचे हैं और मैं दाता की एक नंबर की चम्मची हूं... है ना कमाल दोनों एक-दूसरे के एक नंबर के चम्मचे... 

Saturday, December 28, 2013

आह...


इफरात में अब
कुछ भी नहीं मिलता
वो कॉफी, लॉंग ड्राईव
लंबी बातें, हाथों में तेरा हाथ
हर वक्त का साथ
सब कहीं छूट गया
बदकिस्मती की हद तो देखो
अकेलापन भी अब नसीब नहीं होता
लगता है कुछ नहीं है मेरा
हालत इतनी बदतर है ए-दोस्त
खुद को देखे ही अरसा बीत गया
सोचता हूं
एक दिन हर कतरे को फिर चुन लूं
आसमां में टंके तारों की तरह
मैं भी इन्हें दामन में अपने टांक दूं
खर्चूं तो
रखूं पाई-पाई का हिसाब
या फिर किसी बनिये की तरह
चढ़ा दूं ब्याज पर
जिस वक्त को दोनों हाथों से
जमकर लुटाया
काश, चंद लम्हे ही सही
कोई मुझे लौटा दे
काश, इफरात में न सही
कतरा-कतरा जीने की
कोई सहूलियत दे

Friday, December 20, 2013

इंतजार


मेरे पास बैठ
ए-जिंदगी जरा 
ले आगोश में मुझे 
मेरे उलझे बालों में
ऊंगलियां जरा घुमा
पेशानी पर पड़ी सलवटों को
दे सुकून जरा
बरसों हुए चैन से सोये मुझे
एक मौन की लोरी जरा सुना
मेरी पलकों को चूम कर
मीठा सा एक सपना दे जरा
सहरा के इन प्यासे लबों को
दरिया में डूबो दे जरा
थक कर चूर इस जिस्म पर
अपने निशां छोड़ जरा
आ बैठ मेरे पास ए-जिंदगी
कुछ मेरी सुन
जरा कुछ अपनी सुना

Saturday, November 30, 2013

अहसास तेरा...


जब भी तन्हाई घेरती है मुझे
पाता हूं खुद के करीब खुद को
परत दर परत 
गहरे और गहरे
धंस जाता हूं खुद में
अंधेरा, घुप अंधेरा
रोशनी का निशान नहीं
कितनी छटपटाहट
जैसे गला घोंट रहा हूं अपना ही
आकंठ तक डूबी प्यास
हर तरफ बेचैनी, अशांति
शायद इतना ही भद्दा
रहता है मनुष्य
या फिर अपना ही सच 
जाना है मैंने
पर, हूं खुशकिस्मत
जब भी चूभता हूं 
मैं खुद की नजरों में
तेरी आंखों की पनाह 
ले लेती है आगोश में
वाह, कितना अद्भुत है 
अहसास प्रेम का

Thursday, November 28, 2013

डोर


कहते हैं
वक्त के हाथ होती है
जीवन की डोर
जब धागा टूटा
साथ छूट गया
पर, उसका क्या 
जो है संग तेरे
उसके हिस्से तो है
बस चंद लम्हे
उस वक्त में 
जी लिया तो जी लिया
जी भर खुशियों को
पी लिया तो पी लिया
मैं हूं मोहताज तेरा
तूने जब-जब नजरें फेरी
मानों मेरे जीवन की डोर टूटी
वक्त की क्या मजाल
जो डोर चलाए, जीवन खींचे

काश...


कुछ तो है जो खो रहा है
झड़ रहा है, खिर रहा है
हर पल, हर दिन
बढ़ रहा है तो बस
अनुभव, समझ, उम्र
और मैं
देख रहा हूं खुद में
बहुत कुछ घटते
कुछ-कुछ बढ़ते
बचपन, जो कभी मेरा था
वो दोस्त, जो बुनते थे 
संग ख्वाब मेरे
वो गांव, जो बसा था
दिल में मेरे
खेत, नदी, फसलें, रिश्ते 
सब, सब
काश, लौटा दे कोई
यदि न कर सके इतना तो
जो संग हैं मेरे 
अब न छूटे कभी
नहीं चाहिए तर्जुबा
जिंदगी में मेरी
बस, वो घुले रहे 
यूं ही मुझमें
जो बसे हैं हर पल रूह में मेरी

Thursday, October 31, 2013

'अपना"


दर्द तो वही देता है
जो अपना होता है
वर्ना तो आप हो 
ये भी, किसे पता होता है
आपके होने, ना होने का पता भी
कोई अपना ही तो देता है
वर्ना तो जिंदा हो
इससे भी किसे ताल्लुक होता है
छांह में तो सुस्ताते हैं सब
कड़ी धूप में अपना ही साथ होता है
मुसाफिर तो आते, जाते हैं
कोई अपना ही तो ताउम्र बसर करता है
कोई अपना भले दर्द दे दे
धोखा कभी नहीं देता है
अपनों का दिया दर्द 
अक्सर दवा बन जाता है
वर्ना तो दवा के नाम पर
दुनिया में जहर ही दिया जाता है

Tuesday, October 29, 2013

तू और मैं



भीगा-भीगा
कुछ रूखा-रूखा मैं 
भीड़ में भी 
कुछ तन्हा-तन्हा मैं
हर वक्त, सोते-जागते
व्यस्तता की तलाश में डूबा मैं
काम होकर भी खाली
तन्हाई में भी कहीं खोया मैं
क्या करूं, कैसे पाऊं
तुझसे छुटकर, खुद को मैं
फिर सोचता हूं 
कैसे जी पाऊंगा 
खुद को पाकर 
बिन तेरे मैं
पता है 
ये जो स्पर्श है ना तेरा
हर वक्त मेरे मर्म को
रहता है छुए
चाहूं तो भी 
तुझसे छुटकर कहीं नहीं 
जा सकता हूं मैं

Friday, October 25, 2013

झूठ



वो दिलाता रहा 
यकिने मोहब्बत
और, मुझे उसके झूठ से 
हो गई मोहब्बत
गुजारिश है मेरी
यूं ही तू 
करते रहना इजहार
अब तो कसम से
टिकी है जिंदगी मेरी
तेरे इसी एक झूठ से 

Sunday, September 1, 2013

कुछ इस तरह...


जी ले जरा 
कुछ इस तरह
क्या डर, क्या फिकर
हौंसला है अगर
तो क्या है कठिन डगर
बस तू जी ले जरा
कुछ इस तरह
आंखों में आंखें डाल
बोल तू खुलकर
ना तो ना, हां तो हां
न देख पीछे मुड़कर
बढ़ आगे कुछ इस तरह
मांग हक बांह मरोड़कर
जीत क्या, क्या है हार
बस तू खेल खुलकर 
क्या डर, क्या फिकर
जी ले जरा 
कुछ इस तरह
देख तू नजर भर
खुद में तू इस तरह
तुझ में खुदा, तुझ में है ईश्वर
तो फिर खोना क्या, पाना क्या
इस तरह रो-रोकर जीना क्या
जो हुआ, जो न हुआ
सोच, सोचकर अब डरना क्या
माना न है यकीन तुझमें
न है साहस तुझमें 
पर, मेरे लिए 
बस एक बार
तू कर यह नेक काम 
बस, जी ले जरा 
कुछ इस तरह
जी ले जरा 
कुछ इस तरह...

Tuesday, August 27, 2013

दगाबाज...


रोज दिन, रात गुजरते हैं यूं
जैसे वक्त का डेरा हो मुंडेर पर मेरी
अरसा हुआ मुस्कुराए उसे
बस एकटक देखता है सूरत मेरी
यकिं हो चला अब मुझे
कि न बदलेगा ये कभी
ये मेहरबां न हो तो क्या
साथ तो न छोड़ेगा ये कभी
तभी एक सुबह ऐसी आई
जब आंखें खुली 
मुंडेर मेरी सूनी मिली
और, वक्त के निशां
चेहरे पर छूटे मिले

Tuesday, August 13, 2013

तू इंसाफ कर...


खामोशी का खंजर 
जा धंसा है कुछ
इस कदर गहरे अंदर 
कि अब मेरा रकीब भी
पराया सा आता है नजर
सोचा था छोड़ दूं
वक्त के हवाले
पर कमबख्त 
वह भी मेरा ना रहा
कभी किया करता था 
घंटों खुद से ही बातें
अब मेरी आवाज ही
लगती है मुझे बेगानी
यार भी मेरे 
करते हैं सवाल
कई बार सोचा मैंने
क्यों न बता दूं उन्हें
तेरे घर का पता
पर डरता हूं 
कहीं वे देख ना ले
वो जो कोने में पड़ा 
दिल मेरा
फिर किसे, कैसे समझाऊंगा 
दोष नहीं है ये तेरा
ये राह चुनी है मैंने
तो गुनहगार भी मैं
तलबगार भी मैं
रहम कर एक बार
तेरे खिदमतगार पर
तिल-तिल मौत न दे
एक झटके में 'ना" कहकर
मेरी हंसीं मौत की
कहानी तू तैयार कर
एक बार ही सही
तू इंसाफ कर
तू इंसाफ कर...

Thursday, August 8, 2013

दाता


अक्सर सोचता हूं
कुछ लिखूं आप पर
हर बार आ घेरता है 
भावनाओं का ज्वार
चित्र दर चित्र
कहानी दर कहानी
कई मंजर, कई खुशियां
इस कदर जकड़ लेती है
मैं कहीं डूब जाता हूं
आपके कपड़ों से आती 
उस गंध से
जब कभी में आपसे चिपट कर
सोया करता था बेखौफ
दुख है नहीं बन पाया 
एक उम्दा खिलाड़ी
पर, जिंदगी के खेल में
हार न मानना 
आपसे ही तो सीखा
डर की आंखों में झांकना
कभी हिम्मत न हारना
कोई भी दुख हो कमबख्त
एक नींद के बाद भूल जाना
दोस्तों का आखिरी दम तक
साथ निभाना
किसी की मदद में
कभी कदम न खिंचना
दूसरों के दुख के आगे
अपना दुख छोटा आंकना
जिंदादिल होकर 
बस आज में जीना
प्यार, दुश्मनी दोनों 
खुलकर निभाना
थोड़े कड़वे बोल
फक्कड़ी में भी मजे दिल खोल
सब आप ही से तो सीखा
पता है 
मेरी हंसी, आवाज
शक्ल, शरीर
कहां-कहां से 
निकल आते हो आप
कई बार लड़ता हूं 
नाराज भी होता हूं मैं
पर, बस चिंता है आपकी इसीलिए
दाता, जानता हूं 
कभी नहीं लिख पाऊंगा 
आप पर

Tuesday, August 6, 2013

बदलता वक्त


बारिश भी नहीं भीगाती 
न ही आता है 
शिशिर में तेरी कुरबत का ख्याल
तपन भी अब कहां वैसी
कि कंठ में आ जमे प्यास
जिंदगी की ट्रेन को 
देख रहा हूं छूटते
खिड़कियों, दरवाजों पर असंख्य हाथ 
थाम लेना चाहते हैं मुझे
पर अब, न दिल-न कदम
देते हैं मेरा साथ
हाड़-मांस का यह जिस्म
पता ही नहीं चला 
कब पत्थर में बदल गया

Monday, August 5, 2013

अकेलापन...


खलता है मुझे
मेरा ही साथ
नहीं थामना चाहता
अब मैं किसी का हाथ
शून्य मैं 
मुझमें शून्य
ना कुछ अच्छा
ना कुछ बुरा
अजीब है, भूल रहा हूं
भेद जय-पराजय में
संवेदनाओं के बीच
झूलता मैं संवेदनहीन
क्यों, कब, कैसे
हो गया अकेला
शायद, थोड़ा जल्द 
समझ गया मैं
आया था अकेला
जाना भी होता है अकेला

Friday, July 19, 2013

लौ


तुझसे कभी 
छिना था तुझे
डूबकर तुझमें ही
बुझ गया था मैं
अब कहां से लाऊं तुझे
कैसे लौटाऊं तुझे
छोड़ भी दे अब
खुद को यूं मांगना मुझसे
मैं तो बुझकर भी 
खोज रहा हूं
जीवन की एक लौ तुझमें

Saturday, July 13, 2013

अधूरी ख्वाहिश...


पिघल कर 
चाहता हूं बूंद बन जाना 
आऊं जो तेरी हथेली पर 
तो तुझे थोड़ा तो भीगा पाऊं
जो छू लूं लब तेरे 
तो तेरे जिस्म की सैर कर जाऊं
याद बनकर कभी 
तेरी पलकों को झील बना जाऊं
और कभी आईना समझ मुझमे तू जो झांके
तेरी शोख अदा पर मैं इतराऊं
पर कहां होता है ऐसा
हर चीज पिघलते
देखी है मैंने
बस तेरी ही आग ऐसी है कमबख्त
खुद को राख होते 
देख रहा हूं मैं

Tuesday, July 9, 2013

छूटा सिरा...


राह तो तेरी ही चला हूं मैं
पर जो सिरा तुझ तक जाता था
छूट गया है न जाने कहां
भूल यकिनन है मेरी
क्यों नहीं थाम पाया 
हाथों में हाथ तेरा
क्यों नहीं दिला पाया 
अपने वजूद का यकिन तुझे
क्यों नहीं बता पाए 
ये दिल, आंखें
बसी है इनमें तस्वीर तेरी
क्यों नहीं समझा पाया
कितनी घुटन है बिन तेरे
क्यों नहीं जता पाया 
हां, मैं करता हूं प्यार तुझे
क्यों नहीं दिखा पाया
मोहब्बत की गहराई तुझे
और, ये कमबख्त आंखें
जो हर पल बुनती है ख्वाब तेरे
नहीं बता पाई 
मेरे अंदर की बेकरारी तुझे
बस भटक रहा हूं 
नहीं जानता
ये तकदीर अब कहां 
लेकर जाएगी मुझे 
छूट गया है जो सिरा
मेरा रोम-रोम हर जगह
टटोल रहा है उसे 

Saturday, July 6, 2013

तेरी हंसी

अरसा हो गया 
सुने हंसी तेरी
कि अब तो 
शिकायतों में है जिंदगी तमाम
रोशन करता हूं रोज
उम्मीद का दीया दिल में
शाम होते-होते 
उदासी में डूब जाता है कहीं
तुझे पता है
तेरी कुरबत की खातिर
हर पल मर कर 
न जाने कैसे जी उठता हूं मैं
फिर भी, नहीं होता है यकीं
तू भी वही, हूं मैं भी वही
न जाने कहां 
खो गए तू, मैं कहीं
ये तलाश, ये प्यास
तेरी एक हंसी से 
होती है शुरू
और, तमाम भी यहीं 

Wednesday, July 3, 2013

उदासी


मत पूछ सबब मेरी उदासी का
कि बात आकर रुकेगी तुझ पर
ना तू समझेगी 
ना मैं बता पाऊंगा
न जाने कहां से उग आया है
तेरे होने पर खोने 
और, तेरे ना होने पर 
कभी ना पाने का डर

बीज प्रेम का


हर जगह बो देना चाहता हूं
वह बीज 
जो तेरे, मेरे होने की 
देता है गवाही
जब कभी एक पल को तू
भूलना चाहे भी मुझे
किसी कोने से तब 
मेरे होने की गंध आ घेरे तुझे

Saturday, April 6, 2013

भ्रम



भ्रमों को हो ही जाने दो दूर
देखूं तो असल चेहरा अपना
परत-दर-परत 
प्याज के मानिंद 
उतरे जब नकाब
सिवाय आंसू के 
हाथ बस रिता रहा
लौट जाना चाहता हूं
फिर अपनी खोलों में
कि मजबूरी हो गई है
चूभता है शूल-सा
अब ये नंगा बदन मुझे
वक्त लगा जानने में ये
भ्रमों से खुबसूरत है 
जिंदगी मेरी
क्यों कोई भला झेलेगा 
फिजूल में मुझे

Friday, April 5, 2013

तोहमत...



तोहमत यह है मेरे सिर
साथ होकर भी कहां साथ होते हो
हर तरफ बिखरी है
महक तेरी
फिर भला कोई चाहकर भी
अकेला कैसे रहे
चाहता हूं 
छोड़ दे तू भी अब मुझे
आजमाऊं यह भी तो जरा
कब तलक बसी रहेगी 
सांसों में मेरी
तू जिंदगी की तरह
रोज सोचता हूं 
बताऊं तूझे 
तू दौड़ती है रगों में मेरी
खून की तरह 
पर, रोक लेता हूं 
तोहमत सुनने के लिए
ये ही तो बताती है 
'मैं" भी कहीं रहता हूं 
जिंदगी में तेरी
एक हमसाये की तरह

Wednesday, April 3, 2013

उलझन



दोस्ती की चाह में
प्रेम कर बैठा
जब उसे पाया तो
फिर पुरानी गलियां याद आईं
ये दिल है, दिल 
जो हर बार 'आज" में प्यासा है 

मंजूरी



मेरा बोलना, चुप रहना
कुछ भी मंजूर नहीं
शायद यह शुरूआत है
एक दिन कह दे वो
तू ही मंजूर नहीं
एक हद तक डरता है दिल
शायद वह मकाम आता है फिर
होने, न होने में
नहीं रह जाता कोई अंतर
खोने का डर, पाने की चाह
क्या बस इतना ही
प्रेम, अधिकार, स्वीकार्य
सबकुछ कितना आश्रित
बंधनों को भी 
पता नहीं क्यों 
मुक्ति मंजूर नहीं

Thursday, March 7, 2013

पशु से पुरुषत्व का सफर



दुआ करता हूं 
जन्म ले हर घर एक बेटी
हर एक को नसीब हो देखना
उसे बढ़ते, सपने बुनते 
नसीब हो फूल से 
कोमल हाथों की छुअन
पिता के प्रेम में पल-पल
आंखों में भर आते अश्रु भी नसीब हो
उसकी हंसी, मस्ती
नाजुक संवेदनाएं भी हो नसीब
फिर देखना चाहता हूं
कैसे वह कर पाएगा
वह सब, जो अब तक 
करता रहा है 
पत्नी, मां, बहू 
या फिर उससे 
जिसे मानता रहा है महज भोग्या 
यह भी देखना है मुझे
बेटी नसीब होने के बाद
वह है कौन
जो नहीं बन पाया है
पशु से पुरुष

Tuesday, February 26, 2013

वादा प्रेम का...



तूफान, उफान के बाद
जो कुछ बचता है
उसकी जड़ें होती है गहरी 
या वजन उसे बचा रखता है
हल्की, उथली, कमजोर
का नहीं रहता कहीं जोर
मैं गवाह हूं
मैं ही हूं वह शख्स 
जिसने सहा है 
बर्बादी का हर मंजर
फिर भी मैं वहीं हूं
यकीनन रहूंगा भी
ताउम्र ऐसे ही 
हां, बस ऐसे ही 
तुझसे है वादा 

Saturday, February 9, 2013

सुनना पड़ेगा...




रात... मेरी चेतनावस्था और उसके लिए मेरे आने की आहट। आज रात 3 बजे जैसे ही मैं बिस्तर में घुसा, उसे मैंने किस किया। वो थोड़ी कुनमुनाई... फिर किस का जवाब आया... लव यू दाता। मैंने फिर उसे किस किया तो लगभग मुझे धकेलते हुए बोली- दाता अपनी जगह पर सो जाओ... दाड़ी चुभती है। अचानक वो उठ बैठी और बोली दाता दाढ़ी बना लेना... मैने कहा- ठीक है कटा लूंगा... मुझे मालूम था वो यही बोलेगी... नहीं... कटाना नहीं.. दाढ़ी बना लेना। मैं उसे फिर जकड़ लेता हूं और वो फिर मुझे धकेल देती है। 
रोज रात का किस्सा है ये। मैं बिस्तर में घुसता हूं और वो जागती है। मैं किस करता हूं और वो एकदम चैतन्य हो जाती है... फिर शुरू हो जाता है हमारी बातों का सिलसिला।
दाता आय लव यू से शुरू हुआ यह किस्सा दिनभर क्या-क्या किया... नानी के साथ कैसा दिन गुजरा... और सोना से मिलने कौन-कौन आया था... किसने क्या कहा... न जाने क्या-क्या याद रखती है वो। रात में मुझसे बोली- वन... टू... थ्री... सुनाती हूं। मैंने कहा ठीक है... तो जो शुरू हुई तो हिन्दी-अंग्रेजी पोयम... गाने सब टेपरिकॉर्डर की तरह चलने लगे। मैंने कहा- बेबी बहुत रात हो गई है... सो जाते हैं...तो एकदम भड़क गई... बोली- सुनना पड़ेगा। 
हम दोनों ठहाका लगाकर बोले- ठीक है। फिर वो शुरू हो गई। कमाल है... ये कमबख्त चांद सा खिला चेहरा और पटर-पटर बातें करती वो... काश कि जिंदगी यहीं थमी रहे... काश कि न नौकरी... न दुनियादारी... का झंझट रहे। काश... कि वक्त यहीं रूक जाए। 
...पर शुक्र है वक्त अपनी गति से चल रहा है और एक दिन वो 17 बरस की भी होगी... न जाने क्यों उसे इस उम्र में देखने की ख्वाहिश इसके जन्म से ही है। ...और न जाने कैसे और कब मुझे पता चला कि उसे सुनने और देखते रहने की ख्वाहिश जन्म-जन्मातंर से यूं ही प्यास की तरह मेरे कंठ में आ बसी है। 

Wednesday, January 2, 2013

यूं हुए हम 'एक"


एक हाथ जब थामता है
दूजे को
क्यूं दोनों की रेखाएं
एक नहीं होती
एक दिल जब सुनाता है
दूजे का हाल
क्यूं दोनों की धड़कन
एक नहीं होती
एक विचार जब बंटता है
दूजे के साथ
क्यूं फिर दोनों की राय
एक नहीं होती
एक कदम जब बढ़ता है
दूजे की ओर
क्यूं फिर राहें
एक नहीं होती
एक रंग चढ़ता है
दूजे पर
क्यूं फिर विश्वास की डोर
एक नहीं होती
एक जिस्म पिघलता है
दूजे में
फिर क्यूं दोनों जान
एक नहीं होती
एक लम्हा मिलता है जब
दूजे के साथ
फिर क्यूं कद्र
एक-सी नहीं होती
कोई तो है बात
फिर भी हममें ऐसी
कि मिलते ही एक-दूजे से
नियति, नियत
न जाने क्यूं, कैसे
हो गई एक