Saturday, July 25, 2015

समझदारी


छोड़ने की बात वो कहते रहे
हम पकड़ने पर जोर देते रहे
हम निरे बेवकूफ थे
बेवकूफ ही रहे
वो समझदारी से
ये बात समझते रहे
वो चलाते रहे
हम चलते रहे
कब समझेगें हम
पता नहीं
वो दिल को हमारे
खिलौना समझ खेलते रहे
हम देखते रहे
यूं ही धीरे-धीरे टूटते रहे
ऐसे ही एक दिन
हम कबाड़ में फेंके जाते रहे
हम निरे बेवकूफ थे
बेवकूफ ही रहे
हां, सच तो यह भी है
छोड़कर हमें
उनसे हम छूटे नहीं
अपनी ही समझदारी पर
कईं बार वो रोते रहे
हम निरे बेवकूफ थे
बेवकूफ ही रहे
 

Friday, July 17, 2015

ख्वाहिश


अरसे से नहीं मिला मैं
नहीं की बातें खुद से
धूल की मोटी परत
आ जमी है भीतर तक
हर ओर बिखरे पड़े हैं शब्द
बेतरतीब, बेख्याल
सोचता हूं समेटूं, सहेजूं
शब्दों को फिर अर्थ दूं
धूल के पीछे छूपी
संवेदनाओं को जरा शक्ल दूं
बहुत हुआ, कसम से
आ जरा अब पास मेरे
घड़ी भर तू भी सांस ले
दो घूंट जिंदगी के
फिर संग पी मेरे
मेरी संवेदनाओं, शब्दों को
फिर से पिरोकर बातों का नाम दे
मुझ से फिर मिला दे मुझे
इसे फिर मोहब्बत तक अंजाम दे