Thursday, September 8, 2011

कुछ तो है बदला!



निकर पहन दौड़ा
करता था उन गलियों में
आज भी वे वहीं हैं
वैसी ही, जैसी मैं छोड़ गया था
आज भी गोधूली नजर आती है
हाँ, गाँयें थोड़ी कम हो गई
मंदिर से वैसी ही घंटियों की आवाज
सुबह, शाम सुनाई दी
ओटले, गोबर लीपे घर
चूल्हे पर बनी रोटियाँ
बाड़ा, नीम के वे पेड़
यहाँ तक की गौरेया
गिलहरियाँ, बैल, भैंस
बिजली की लुकाछिपी
जल्दी सोती शाम
और भोर से पहले उठती सुबह
सब, सब वैसा ही
जैसा बरसों-बरस पहले छोड़ गया था
लगा, मानों पूरे गाँव पर बस
यादों की धूल जमा हो गई हो
जरा सा फटका मारा और
लगा मैं निकर में फिर दौड़ने
पर जब धुंध छटी तो पाया
बस, इंसान 'बदल" गए हैं



 

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