Saturday, July 30, 2011

कुछ बात तो है तुझमें!



मुस्काते हुए खिलता है सूरज
बो देता है रश्मियाँ
ओंस की बूँदों में
ऐसे ही ये बदलियाँ
ध्ारती की कोख
कर देती है हरी
उन ठंडे झोकों की
तो बात ही न पूछो
जो करते हैं
पूरी कायनात की कानाफूसी
...और ये चाँद भी ना
अक्सर चाँदनी को भेज
करता है दिलों में ताकाझाँकी
कई बार तो तारों की बारात
झिलमिल करती
उतर आती है सपनों में
यकीनन, कुछ बात
तो है 'तुझमें"
 

Friday, July 29, 2011

दवा!



न जाने क्यूँ
इक दर्द उठता है
बड़ी खामोशी से
डूबो देता है मुझे
गलने लगता है
मन-मस्तिष्क
ध्ाड़कनों की रफ्तार
हो जाती है मंद
क्यूँ कहती हो
अब जाना है मुझे
अब बताओ- इस दर्द
की दवा कहाँ से लाऊँ?

Tuesday, July 26, 2011

खुश ख्वाब!



कई खुश ख्वाब
देते हैं दस्तक ख्वाब में
बुनते हैं अपनी
ख्वाबों की दुनिया
फिर जब सिरहाने
आ बैठती है प्यारी सी सुबह
ये हौले से आँखों के रास्ते
उतर आते हैं दिल में
फिर तेरा नाम लेकर
ध्ाड़कते रहते हैं हर पल

जिंदगी ने पूछा...



पूछती है जिंदगी मुझसे
तुम पाना चाहते हो जो
मिल गया वो तो क्या करोगे
अब उसे भला क्या बताऊँ
जब मैं पा चुका हूँ तुझे
फिर भला कुछ और
पाकर क्या करूँगा?

Thursday, July 21, 2011

यादों का सिलसिला!



मुट्ठी खोली तो
हाथ कुछ न था
पर अंदर तक कुछ
गीला सा था
ये भी जानता था
कुछ नहीं मिलेगा
फिर भी उँगलियों को कर
सीलबंद, इतनी दूर चला
जहाँ खाली हाथ होने पर
भी यादों का सिलसिला मिला

मेरा आज...



मुझे नहीं पता
कल क्या होगा?
मिनट भर बाद की
तक नहीं कुछ खबर
बस जीता हूँ अभी में
और इस में ही
भरता हूँ रंग हर वक्त
कई बार मुझे भी घेरती
है 'कल" की चिंता
तब आँखें मूँदते ही
आज में खड़ी मिलती है 'तू"

Tuesday, July 19, 2011

तू है अफीम मेरी!



पल के लिए भी गुम नहीं
होती निगाहों से तस्वीर तेरी
न हो साथ तो जीता
हूँ यादों को तेरी
उन सवालों के जवाब देता हूँ
जो यूँ ही छूटे थे जुबाँ पर तेरी
अकेले में भी खिलखिलाता
हूँ, ठिठोली के साथ तेरी
जिस्म से खेलती है हवा
उँगली बन तेरी
रूह तक उतरी रहती
है साँसों की तपन तेरी
लटालूम फूलों में
देख लेता हूँ मुस्कान तेरी
जिंदगी की गहराई कुछ नहीं
सामने रहती है आँखें तेरी
कस्तूरी सी हरदम भरी रहती
है मुझमें ये नशीली महक तेरी
न होती है तू तो आईना भी
पूछता है-कहाँ है अफीम तेरी



 

Monday, July 18, 2011

काँटा...




अच्छी-भली
चल रही थी जिंदगी
कहाँ से आ लगा
ये काँटा
अब रूह रहती है बैचेन
दिल में रहता दर्द बेशुमार
भुक्तभोगी कहते हैं
भले कर लो जतन हजार
ये है प्यार काँटा
पता नहीं चलता कब चुभा
पर आदमी काम का नहीं रहता

कौड़ियों में दिल!



सजा है हुस्न का बाजार
खरीददार यहाँ हजार
कीमत है तो बस जिस्म की
कौड़ियों में बिकते यहाँ दिल
संभलना ऐ मेरे यार
शातिर हो गया है सौदागर
चुकाता है दिल का दाम
ले जाता है जिस्म का इनाम

Sunday, July 17, 2011

खुश चेहरा!



नींद आँख मलते हुए
जैसे ही खुली
एक खुश चेहरे ने
कुछ इस तरह दस्तक दी
नींद आने तक
मेरा चेहरा भी खिला रहा

फिर भी...



हर बार बुन लेता हूँ
सुनहरे से ख्वाब
जानता हूँ नहीं होंगे पूरे
फिर भी...
सुन लेता हूँ
तेरे कदमों की आहट
तुम नहीं हो
फिर भी...
गुनगुना लेता हूँ
प्रेमगीत
अकेला हूँ
फिर भी...
देख आता हूँ
वे गलियाँ, बगीचे
तुम नहीं मिलोगी
फिर भी...
पलट लेता हूँ
किताबों के पन्नो
नजर आएगा सूखा गुलाब
फिर भी...
तुम नहीं जानती
चाय की प्याली
रेस्टोरेंट की कुर्सी
कार का मिरर
घर की चाहरदिवारी
बिस्तर की सिलवटें
वो आईना, वो सोफा
कम्प्यूटर का की बोर्ड
वो, वो हर चीज
जो जुड़ी रही है तुमसे
करती है हर पल इंतजार
जानती है तुम नहीं आओगी
फिर भी...

गर मैं...



गर मैं भगवान होता
ये दावा तो नहीं करता
कोई नहीं रोता
न ही कोई भूखा सोता
हर शख्स की मौत थाम लेता
पर हाँ, गरीबों का हक मारने
खून बहाने वालों को
फाँसी पर जरूर टाँग देता

Saturday, July 16, 2011

कुछ नहीं बदला... सब बदल गया!



सुबह से जोरदार बारिश का दौर चल रहा है। नौ बजने को है, मगर अब तक सुबह अलसाई हुई ही लग रही है। शिरिष भी अलसाते हुए बिस्तर छोड़ता है और खिड़की खोल देता है।
बाहर एक महिला अपने बच्चे को लगभग ध्ाकियाते हुए तेजी से ले जा रही है। शायद बच्चे को स्कूल पहुँचाना है। इक्का-दुक्का वाहन भी सड़क पर बहते पानी को चिरते हुए तेजी से गुजर गए।
शिरिष का फ्लैट तीसरी मंजिल पर है। जब वह यह फ्लैट खरीदने पहुँचा था तो पहली ही बार में लोकेशन उसे भा गई थी। फ्लैट के बाहर देखते ही चौड़ी रोड और उससे आजू-बाजू घने पेड़ (शायद शहर के इसी हिस्से में नगर निगम की मेहरबानी से बच गए थे) नजर आते हैं। शिरिष का खाली वक्त या तो गैलरी में बितता है या कमरे की खिड़की से बाहर झाँकते हुए। उसने तीसरी मंजिल पर घर इसलिए भी खरीदा कि ऊँचाई से उसे सारा नजारा स्पष्ट नजर आए। जिंदगी को लेकर भी उसका नजरिया कुछ इस तरह का रहा है। ऊँचे से देखो तो हर चीज स्पष्ट और सटीक नजर आएगी। फिर गलतियों की गुंजाइश भी नहीं रह जाती।
उसके मम्मी-पापा बड़े भाई और भाभी के साथ गाँव में रहते हैं। वैसे भी शिरिष की फिलोसॉफी उन्हे नहीं भाती। कितनी ही बार उन्होंने उसकी शादी की कोशिश की पर अब तो वे भी बोल-बोल कर हार गए। 35 पार शिरिष से अब वे शादी की उम्मीद भी छोड़ चुके हैं।
तो शिरिष अब तीसरी मंजिल से बारिश का नजारा देख रहा है और पता नहीं ये बारिश का असर है या कोई सपना देख कर उठा है सो थोड़ा नॉस्टैल्जिक हो गया है। बैचेन है और इसी बैचेनी में तो वह पीना सीखा है। पहले जब सारे दोस्त मौज-मजा किया करते थे तो वह पास ही बैठकर सॉफ्टड्रिंक लेता था। तब सारे फ्रेंड्स उसकी हँसी उड़ाया करते थे। पता नहीं इन दो-चार सालों में वह क्यों पीने लगा?
बरबस ही उसने रम का एक बड़ा सा पैग बनाया। नीट ही छोटा सा सीप लेकर लगभग झाँकते हुए ऊपर देखने लगा, मानो वह बारिश का सोर्स पता कर रहा हो। सीप लेते ही मुँह एकदम कड़वा सा हुआ और फिर ध्ाीरे-ध्ाीरे वह रम को मुँह में घुमाने लगा। फिर उसे लगा यह कसैलापन अब उसकी जिंदगी का हिस्सा होता जा रहा है। फिर ध्ाीरे से वह उठा और गैलरी में लगी कुर्सी पर जा बैठा।
बारिश की बूँदें उसके शरीर पर छुई या रम का कसैला घूँट पेट में पहुँचा उसके शरीर में अजीब सी सिहरन दौड़ गई। उसे लगा कि जैसे किसी ने उसके गले पर गर्म साँस छोड़ दी हो। वह जानता है वह अंजली थी, जो उसकी साँसों और जिस्म में रची-बसी है। ...पर यहाँ तो वह अकेला है, फिर क्यों रह-रह कर उसकी याद अक्सर उसके बिस्तर, तकिये, चाय के प्याले, टीवी के रिमोट, किताबों, कम्प्यूटर, शर्ट, रुमाल, पेन सभी में आ बसती है? उसने रम की एक और बड़ी सीप मारी। मुँह को और कसैला कर आँखें भींचते हुए रम को पेट में ध्ाकेल दिया। वह कुर्सी छोड़ना चाहता था, किंतु वह और गहरे जा ध्ाँसा। सड़क पर इक्का-दुक्का लोग आ-जा रहे हैं, लेकिन उसे लगा वह वर्षों से वहीं बैठा है।
बारिश में वह तरबतर हो चुका है, लेकिन कहीं अंदर वह बिल्कुल सूखा है। वह मन ही मन बड़बड़ाता है-क्यों? अंजली क्यों किया? या शायद मैंने ही...!
छोटी-सी तो बात थी, पर क्या उसका डर और सामान्य सी बातों पर नकारात्मक प्रतिक्रिया छोटी बात थी। हर बार वह कहता- तुम्हारे परिवार से मैं बात कर लूँगा। तुम चिंता ना करों। क्यों डरती हो इतना? क्या मुझ पर इतना भी भरोसा नहीं है? अक्सर उसे समझाने में घंटों बित जाया करते थे। वह समझ जाती और कुछ समय बाद फिर उलझ जाती। वह कहती- मेरे अंदर यह इनबिल्ट है। तुम्हे जो बातें मामूली लगती है, वे जरूरी नहीं कि मुझे भी मामूली लगे। तुम नहीं संभाल सकते मुझे!
शिरिष खुद से ही कहता है- क्या गलती थी, मेरी? उस दिन भी तो मैं हमेशा की तरह उसे ऑफिस से घर के कोने तक छोड़ने गया था। रास्ते में यूँ ही गपिया रहे थे, एक आदमी ने आकर पूछ लिया क्या कर रहे हो। तुम्हारे घर का पता बताओ, मैं पुलिस से हूँ। जैसे-तैसे उस आदमी को समझाया। मैं जानता था, उसे तो समझा लूँगा पर क्या अंजली को समझा पाऊँगा। उस व्यक्ति के जाने के बाद तो जैसे वह बिखर गई। बोली- देखना किसी दिन तुम मरवाओगे मुझे। भाई को पता चल गया कि मैं नौकरी के बाद यहाँ तुम्हारे साथ हूँ, तो पक्का है कि मेरी नौकरी तो जाएगी ही तुम्हारी भी जमकर ध्ाुनाई होगी। मुझमें हिम्मत नहीं है कि मैं उन लोगों के सामने तुमसे शादी करने का दावा कर सकुँ।
एक दिन ऑफिस के उसके एक कलीग ने मेरे साथ उसे देख लिया। फिर क्या था अंजली मुझसे कन्नाी काटने लगी। उसकी सख्त मनाही थी कि मैं उसके ऑफीस के आसपास भी ना फटकूँ।
शिरिष ने फिर रम का बड़ा सीप लेकर आँखे मूँद ली। ऐसा नहीं है कि अंजली डर-डर कर ही उसके साथ जीती रही है। ये फ्लैट जब खरीदा था और सरप्राइज देने के लिए वह उसे यहाँ लाया, तो वह किसी पागल बदली की तरह उस पर इस कदर बरसी थी कि आज भी उसकी साँसों की गरमी जिस्म में दहकती रहती है। कैसे वे लम्हों की चोरी कर इसी गैलरी में चाय के घूँट लिया करते थे। कैसे उसकी गहरी आँखें बिना बोले कितनी-कितनी बातें किया करती थी। उसकी ऊँगलियाँ सीने पर न जाने कितने प्यार के बोल कह दिया करती थी। कितने शौक से उसने घर पर कई जरूरी चीजें टुकड़ों-टुकड़ों में जुटाई थी।
वह थी भी बड़ी विचित्र। आई लव यू कहने में उसे एतराज था। वह चाहती थी कि सभी काम बिना बोले हो जाए। वह चुप रहे और मैं समझ जाऊँ कि वह क्या चाहती है। अक्सर मैं समझ भी जाता था पर उस दिन...!
उस दिन भी मैं ऑफीस से थोड़ी दूर उसके इंतजार में खड़ा था। वह आई और मेरे साथ बैठ गई। बड़े अच्छे मूड में थी वो। मैंने चाय ऑफर की तो खुश होकर कहा- आज आध्ाा घंटा नहीं पूरे दो घंटे तुम्हारे हैं। बोलो कहाँ चलना है? मैंने गाड़ी फ्लैट की ओर मोड़ी ही थी कि फिर उसके एक कलीग ने हमें देख लिया। वह बोली- यार, जब तक शादी नहीं हो जाती, हम नहीं मिला करेंगे। मैंने कहा-ठीक है। मैं आता हूँ तुम्हारे घर बात करने। तो बोली- यार, अभी नहीं। मुझे डर लगता है, कहीं वे मना कर देंगे तो क्या होगा?
काफी समझाया। वह नहीं मानी तो नहीं मानी। उस दिन मुझे भी न जाने क्या हो गया। मैंने सीध्ो कह डाला कि ठीक है अब मैं तुमसे तब ही मिलूँगा जब तुम्हारा ये डर चला जाएगा। या तो ये डर रहेगा या मैं। उसने काफी बुझे स्वर में कहा- तुम गलती कर रहे हो। मैं खुद इस डर से छुटकारा चाहती हूँ, इसलिए ही तो तुम पर यकिन है। उस दिन भी तो ऐसी ही बारिश थी और मैं अंजू को घर छोड़ आया।
महिनों बीत गए और फिर पूरे 5 साल। मैं जानता हूँ कैसे बीता यह वक्त। कितना कुछ बदल गया है। कुछ नहीं बदला तो यह फ्लैट और यादें! अब किसी पब्लिशर की बीवी है वो। कई किताबें भी उसकी प्रकाशित हो चुकी हैं और कहानी के किसी न किसी पात्र में आज भी उसका डर जीवित नजर आता है।
शिरिष बड़ी सी सीप मारते हुए बड़बड़ाया - 'वो जहर देता तो जमाने को पता चल जाता/ उसने बस ये किया, वक्त पे दवा ना दी।" फिर ध्ाीरे से लड़खड़ाते हुए बिस्तर में गीले ही लेट गया। बाहर बारिश अब भी मुसलसल जारी थी।



 

Friday, July 15, 2011

मकड़जाल...



चलना ही है अकेले
तो हाथ क्यों बढ़ाया
माना कि यह भूल थी
तो दामन क्यों ना छुड़ाया
आ ध्ाँसे जब गले-गले
तब ये क्यों समझ में आया
कह रहे हैं अब
सही नहीं जाती
प्यार की ये पेचीदगियाँ
तो ए-मेरी जाँ
इसे मकड़जाल क्यूँ बनाया

पराया...



कोई नहीं बाँट सकता
किसी का दर्द
इस पर यकीं हो चला है
पर क्या करूँ
नहीं देखा जाता मुझसे
अपनों का दर्द
कोशिश करता हूँ तमाम
कुछ बोझ ले सकूँ
सिर अपने
जाता भी हूँ मैं
उनके पास लेकर यही आस
हर बार लौट आता हूँ बैरंग
इस अनुभव के साथ
ये दर्द बाँटने का नहीं
ये मसला तो है
अपनों-परायों का

Thursday, July 14, 2011

महक...




अक्सर देखता हूँ
तुझे मुरझाते हुए
तब सोचता हूँ
तू क्यूँ नहीं बनी प्लास्टिक से
हर वक्त खिली रहती
नकली गुलाब-सी
पर जैसे-ही तेरे
आंचल में सिमटता हूँ
एक महक कर देती
है इस कदर मदहोश
जुट जाता हूँ
तुझे सिंचने में
फिर हौले-से खिल उठती है
तेरी मुरझायी पंखुड़ियाँ
तब भी मैं बैचेन हो
सोचता हूँ- बस ये पल
यहीं, बस यहीं थम जाए

 

'सोना"



मिल जाए तो मिट्टी
ना मिले तो सोना है
हाँ, यही तो
सब जुबाँ से सुना है
पर मेरी जिंदगी का
तर्जुबा कुछ है जुदा
मुझे जो मिला
वही तो है सोना
बाकी को मैंने
मिट्टी होते भी है देखा

Sunday, July 10, 2011

छुट्टी...




लोगों को छुट्टी चाहिए
खुद के लिए, साथ के लिए
फिर वे गुजारते हैं सारा दिन
भविष्य में, यादों की जुगाली में
कुछ करते जरूरी छूटे काम
या करते सारा दिन आराम
कुछ खपाते किताबों में सिर
या छुट्टियों का कोटा करतेे हैं पूरा
पर मुझे छुट्टी चाहिए सब चोचलों से
ताकि मैं जी सकूँ सारा-सारा दिन
...बस मेरे प्यार के साथ

सफर!




गाड़ी 120 और दिल
हजारों-हजार गुना तेज
उस पर सुबह का ये
गिला, सीलन भरा मौसम
पहाड़ों पर उग आई
बादलों की ये टुकड़ियाँ
आसमाँ से झरते पानी
को हटाते ये वाइपर
उफ्, क्यों मैंने दिल पर
जमा बूँदों पर यूँ हाथ फेर दिया
पूरा सफर यादों से भीगा रहा
मैं रहा वैसा ही रेगिस्तानी सूखा

Friday, July 8, 2011

हार!



जब भी हारा हूँ
हारा हूँ खुद से
कमबख्त परायों में जो
खुद को देख लेता हूँ
कोशिश की है कई बार
'खुद" को बदलने की
हर बार खुद को
पराया पाता हूँ
शिकवा नहीं है मुझे
खुद से और उन दगेबाजों से
मैं तो अब खुद में
और उनमें भी भेद नहीं पाता हूँ


















 

Monday, July 4, 2011

'प्रेमगीत"





जब हम बात करते हैं
तो झगड़ते हैं
मौन करता है हमें बेचैन
दूरी में सोचते हैं
क्या चल रहा होगा वहाँ
फिर जब मिलते हैं
होती है शिकायतें तमाम
इक-दूजे की गलतियाँ
बैठ जाते हैं गिनाने
फिर पता नहीं कैसे
लगते हैं 'प्रेमगीत" गुनगुनाने

बदल गया हूँ!



क्यों हूँ मैं ऐसा
जैसा पहले नहीं था
पहले कैसा था
जैसा अब नहीं हूँ
क्या मैं बदल गया हूँ
या तब बदला हुआ था
आईने के सामने खुद को
खुब उलट-पलट कर देखा
अंदर तक झाँका, परखा
सही कहते हैं वे
वाकई मैं बदल गया हूँ
अच्छा-भला था दुनियादार
अब फखत 'प्यार" हूँ

Sunday, July 3, 2011

मासूम ख्वाब!



सोने के बाद और
गहरी नींद के ठीक पहले
चादर से सरकते हुए
तकिये की झालर से
बालों की रहगुजर कर
आँखों में आ बसते हैं
अनगिनत मासूम ख्वाब
वहाँ नहीं होते
ध्ार्म, समाज, रिश्तों के बंध्ान
दुनिया से दूर इस दुनिया में
चलती है तो बस दिल की
देखता, सुनता, महसूसता
भी है तो बस दिल ही
और जब दिल की चलती है
तो पल में जी लेता हूँ जन्म-जन्मांतर

साथ चलें!




बचपन से लेकर
जवाँ होने तक
एक ख्याल हमेशा
देता रहा है दस्तक
नहीं होगी नजर कमजोर
झुर्रियाँ, पके बालों से
रहूँगा कोसों दूर
पर जबसे दादी ने यह कहा
अब जाना है दुनिया से दूर
सोचता हूँ क्यों नहीं हो रहा
मैं भी तेजी से बूढ़ा

किश्त...



मकाँ की किश्त
तो कभी गाड़ी की
हर वक्त चिंता
बस किश्त की
सोचा था कभी
जिंदगी जिऊँगा एकमुश्त
पर अब किश्तों के बीच से कहीं
निकाल रहा हूँ किश्तों में जिंदगी

माफी...



माफ करना ए-जिंदगी
इस बार बस दाना-पानी
अगले जनम तुझे
भरपूर जी लेंगे

Saturday, July 2, 2011

इस बारिश...



सोचा था इस बारिश
इस कदर बरसोगे तुम
कभी रोपा था जो बीज
उसे अंकुरित कर दोगे तुम
बरसों-बरस का सूखा
इक पल में हर लोगे तुम
दिख रही हैं जो दरारें
सोता बन झरोगे तुम
बेजान हो चुके ठूँठ को
कोपलों से भर दोगे तुम
पथरीली इस नद में
उफान ला दोगे तुम
रोज... रोज...
घनघोर घटा बन छाते हो
फिर निराश, हताश छोड़
किसी और राह चले जाते हो
हर पल... हर क्षण...
चातक सम ताकता हूँ