Friday, September 28, 2012

मुझे माफ करना शिवानी...


गरीबी और भूख के कारण ही तो मेरे माँ-बाप ने बड़े भरोसे से मुझे अपने चाचा-चाची के पास भेजा था। गाँव में कई बार इंदौर का नाम सुना था... आना तो नहीं चाहती थी अपनों को छोड़कर... पर ये भी तो अपने (?) ही कहलाते थे... क्या किया इन्होंने... और इस इंदौर ने भी तो नपुंसकों की तरह देखा भर ना! जबसे इस शहर में आई कोई दिन ऐसा नहीं गुजरा... जब तिल-तिल नहीं मरी... रहम की भीख नहीं माँगी... किसने सुनी मेरी चीखें? सुनी किसी ने? पड़ोसी मेरी सिसकियां सुनकर कमरे और खिड़कियां बंद कर लिया करते थे। दिवारों पर मैंने दर्ज की है अपनी भूख और पीड़ा... पर दीवारें तो दीवारें होती है... कहाँ बोला करती हैं वे... पर इन दीवारों के अंदर और बाहर भी कहाँ बसते हैं इंसान... साले सब के सब जानवर... किसी को कोई मतलब नहीं, कोई मरे या जिये क्या फर्क पड़ता है?
...पर ये दो टांगों का जानवर बहुत हैवान है... बहुत ज्यादा। और साला ये भगवान भी कहाँ होता है? कभी सोचना रोज के अपने स्वार्थों से फुर्सत मिले तो... जिस्म के दर्द से भी कहीं बड़ा दर्द होता है... दिल पर लगे जख्म का... काश कोई मेरे इस दर्द तक कोई पहुँचे... काश किसी को यह पता चले कि रिश्तों का खून... हवस की पीड़ा... भूख... प्यास... हैवानियत... दरिंदगी... और माँ-बाप की हर पल... हर क्षण की याद में बस मौत का इंतजार कैसा होता है... काश की पत्थर बोलते और तुम सब पत्थरों में भी एक दिल होता... काश कि मैं पैदा ही नहीं होती... काश कि ना गरीबी होती... ना भूख... भूख शरीर की भी!

Tuesday, September 25, 2012

'समय"


दिन की शुरुआत
होती है तुझीसे
फिर धीरे-धीरे तू
घुल जाती है मुझमें
यूँ, शहद की मानिंद
दिन भर जुबाँ पर
मिठा स्वाद लिए
रहता हूँ मैं भटकता
फिर शाम होते-होते
पता नहीं, कब, कैसे
स्याह बदली बन
छा जाती है मुझ पर
फिर रात भर झड़ी का इंतजार
प्यास है कि कमबख्त
बुझती नहीं

 

मेरे गाँव के पास लगता है हाट


आँख मलते हुए सूरज रात का कंबल फेंक जैसे ही पूरब से झांकने लगा, मेरे गांव का नजारा देख वह चिढ़कर बोला- क्या फिर बुधवार आ गया? उसका मेरे बचपन से लेकर या तबसे जबसे वह मेरे गांव को रोशन करता रहा हो, सवाल होता होगा- ये बुधवार को इस गांव के लोग मेरे जागने से पहले ही क्यों जागकर इतनी हड़बड़ी में रहते हैं? मुझे तो थोड़ा बड़ा होने  पर यह समझ आ गया कि मेरे गांव के पास वाले कस्बे जीरापुर में बुधवार को हाट होता है, लेकिन बेचारे सूरज को तो शायद ही अब तक पता चल पाया होगा कि हाट क्या बला है और इसके लिए तमाम गांवों में क्यूं हलचल मचने लगती है?
मैंने जबसे समझ विकसित की, गांवों में हाट के लिए लोगों में एक अद्भुत जुनून पाया है। ऐसा नहीं है कि पास के बड़े कस्बों में जाकर कभी भी खरीदी करने की सहूलियत ग्रामीणों के पास नहीं होती है। हर शहर में स्थायी दुकानें होती है। वस्तुओं के दाम भी लगभग वही... पर मैं सोचता हूं कुछ तो बात होगी हाटों में कि हाट वाले दिन ग्रामीणों का हुजूम उमड़ा चला आता है। वक्त के साथ हाट परंपरा मरी नहीं उल्टे ग्रामीण क्षेत्रों में विकसित ही हुई है।
आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में सारे लोग हफ्ते भर की खरीदी और तफरिह करने के लिए इसी दिन का इंतजार करते हैं। यहां तक की हाट वाला दिन अनऑफिशियली उस क्षेत्र के अवकाश का दिन होता है। मजदूर वर्ग उम्मीद में होता है कि मालिक या ठेकेदार आज उसे निराश न करें और हाट में खरीदारी के लिए कुछ पैसा दे दे। इधर बस, टेम्पो, ट्रेक्टर आदि वाहन मालिक भी सुबह से ही सवारियां ढोने की पूरी तैयारियों में होते हैं। मंगलवार रात से ही जीरापुर में चहल-पहल शुरू हो जाया करती है। आसपास के सैकड़ों गांवों से मवेशी खरीदी-बिक्री के लिए पहुंच जाते हैं। उधर कपड़े, बर्तन, जूते-चप्पल, खिलौने, चाय, मिठाई, सब्जियों, सौंदर्य प्रसाधन, गोदने वाले अपने-अपने स्थान पर आ जमते हैं। छोटी-छोटी दरियों, चटाइयों और टेंट के नीचे दुनिया-जहान की सामग्री सज जाती है।
सालों से देखता आ रहा हूं पसीने से सने चेहरे और एक-दूसरे को धकियाते लोगों को हाट में खरीदी करते और गपियाते हुए। ...पहले मुझे लगता था-क्या बेवकूफी है। वही सामान, वही किमत फिर ऐसी मारामारी क्यूं? क्या मिलता है इन लोगों को हर हफ्ते यह बेवकूफी करने में? ...पर जब मैं भी घर का सामान खरीदने लायक समझ वाला हुआ, इस बेवकूफी में शरीक हो गया। ...क्योंकि यहां मुझे सामाजिकता, हास्य, सामंजस्य, प्रचार, मनोरंजन जैसे कितने ही रस कुछ घंटों में ही मिल जाते हैं, तो फिर कोई इतने मजे छोड़कर बोरिंग सी खरीदारी क्यों हाट के इतर दिनों में करेगा?

शामिल...

 
मुझे पता नहीं
कैसा था मैं
जब तू नहीं थी
मुझमें शामिल कहीं
अब भी पता नहीं
कैसा हूँ मैं
क्योंकि अब
तू है शामिल मुझमें
और मैं, नहीं कहीं

Sunday, September 23, 2012

तेरा वजूद...


शुक्र है नहीं करता तेरा ऐतबार
वर्ना तेरे इंतजार में
एक नहीं हजार बार मरता
गम के चिरागों से
रोशन है जिंदगी मेरी
आखिर कब तक
खुशियों की चाह में
अंधेरे में बसर करता
चलता हूँ रोज अकेला
शाम तक कारवाँ साथ होता
तू ही बता
कब तक तेरी कुरबत की खातिर
बियाबान में भटकता रहता
सोचता हूँ
छोड़ दूँ तुझे अपने हाल पे
पर कमबख्त, तेरा वजूद
रगों में मेरी
लहू बन हरदम दौड़ा करता