Monday, September 26, 2016

शब्द बेजुबान



हवा में तैरती शब्दों की नदी
पता नहीं कौन से समुद्र में
हो जाया करती है विलीन
कौन सुनता है
क्या कभी किसी को
सुना भी गया है
या कह देने भर का मसला है
हर बात सुनी गई
फिर भी अनसुनी ही रह गई
हर तरफ बस शोर है
फिर भी शब्द बेजुबान
काश कि मौन मुखर हो
सुन सके वे सारी बातें
जो बयां होकर नहीं सुन पाया कोई

Friday, September 16, 2016

शून्य


रिश्ते को जीने से
उसके जीने की आदत हो जाती है
जीते-जीते ही उसमें
रिसने की आदत हो जाती है
बूंद-बूंद कर
एक खालीपन की आदत हो जाती है
इस रिक्तता में ही कहीं
खोने की आदत हो जाती है
फिर इस शून्य में ही कहीं
मैं और वह समा जाते हैं
रिश्ते को जी लेने से
बचता कुछ नहीं है
ना मैं होता हूं
ना वह
लेकिन, ना जीया जाये तब
मैं तो होता हूं
साथ होती है
मरघट सी विरानी

Friday, March 25, 2016

बर्थ डे प्रोमिस


वो कहती है- दाता मेरा रिजल्ट आने वाला है। मैंने कहा- अच्छा... तो डर लग रहा है।
तो जवाब आता है- डर क्यों?
मैं- तो कम मार्क्स आने का डर नहीं है।
वो- नहीं, मुझे सब आता है। नानी कहती है... मुझमें बुद्धि है।
मैं- अच्छा, यदि कम मार्क्स आए तो मैं पप्पियां देना बंद कर दूंगा।
वो- नहीं।
मैं- क्यों?
वो- दाता... रिजल्ट का पप्पियों से क्या संबंध?
कुछ दिन बाद वो धीरे से मेरे सीने पर लेटती है, कहती है- दाता, पप्पियां देना बंद मत करना, प्लीज।
मैं भरी आंखों से उसे सहलाता हूं, पर बैचेन हूं बहुत। उसे मेरा कहा इतना याद है। क्या इतना सिरियसली लेती है वो मुझे? क्या उस दिन का मेरा कहा अब तक उसमें कहीं घुम रहा था, परेशान कर रहा था?
फिर रिजल्ट आने वाले दिन वह सुबह 6 बजे ही उठ जाती है। जल्दी है उसे नतीजे से ज्यादा इसकी कि वह फर्स्ट में जाने वाली है। मुझे जल्दी जगा देती है कि उठो रिजल्ट आने वाला है। आपको और मम्मा को चलना है स्कूल। फिर धीरे से धमकी- पप्पियां देना ही है, उसका रिजल्ट से कोई संबंध नहीं है।
मैं हां कहता हूं, तभी फरमाइश आ जाती है कि नानी ने कहा था कि रिजल्ट आएगा तो पिजा खिलाएंगें। मैं फिर आदतन बोलता हूं कि अच्छा रिजल्ट रहा तो पिजा। उसका गुस्से से फिर एक जवाब- दाता, रिजल्ट का पिजा से कोई संबंध नहीं है। मैं हंसता हूं और कहता हूं अच्छा क्यों नहीं है संबंध। तो जवाब मिलता है- दाता, पिजा खाने की चीज है, जैसे खाना खाते हैं वैसे ही। अब रिजल्ट आएगा या नहीं आएगा तो क्या मैं कुछ खाऊंगी नहीं?
मैं खोया-खोया उसके स्कूल पहुंचता हूं। सारे रास्ते ये सोचता हुआ कि कितना कुछ है जो यह जरा सी जान मुझे सीखा रही है। आखिर ऐसी उम्मीदें क्यों? उम्मीदों का बोझ ही क्यों? शर्तें ही क्यों? शर्तें पूरी करने का दबाव क्यों? स्पर्धा क्यों? सफलता-असफलता के पैमाने क्यों?
ऐसी ऊहापोह में रिजल्ट हाथ में आता है और वो मेरी आंखों में झांक कर कहती है- देखा दाता... रिजल्ट अच्छा आया ना... वो तो आना ही था। अब तो पप्पियां दोगे ना और चलो पिजा खाने।
लव यू युगी...ना कभी पप्पियां बंद होगी ना कभी पिजा के लिए किसी रिजल्ट का इंतजार होगा। प्रोमिस कि तुझे कभी कोई परीक्षा से नहीं गुजरने दूंगा।