Thursday, February 24, 2011

कभी नजरें मिलाकर कहा है- आई लव यू!


मुझे नहीं पता कि मैंने ब्लॉगिंग क्यों शुरू की? क्या लिखूँ इसमें? क्या फायदा? क्या मिलेगा? कितने लोग पढ़ेंगे? उन्हे क्या मिलेगा? क्या यह समय की बर्बादी नहीं? खैर अब शुरूआत हुई है तो सोचा अपनी दिमागी उथल-पुथल ही इसमें उडेल दिया करूँ, शायद किसी के पास इनता जवाब हो!
तो इस बार मैं 'फायदे" के फेर में उलझा हूँ। आखिर यह जरूरी तो नहीं कि हर काम फायदे के लिए ही किया जाए। क्या हर काम में फायदा देखना उतना ही जरूरी है, जितना हमारा इस दुनिया में आने का अनजाना और अनसुलझा औचित्य। कुछ कहते हैं जब वे इस दुनिया में आएँ है तो अपने होने का औचित्य तो जमाने को बता कर ही दम लेंगे। क्या हो जाएगा एक-दो किताब लिख लेंगे? क्या हो जाएगा किसी कंपनी के सीईओ, प्रबंधक और बड़े ओहदे पर चले जाएँगे? क्या होगा खुब पैसा कमा लेंगे? बस यही कि आपके इर्द-गिर्द के कुछ तथाकथित हितैषी आपकी सफलता का लोहा मानेने लगेंगे। बस... दिखा दिया जमाने को दम... ले लिया अपने होने का अधिकतम फायदा?
फिर फायदा किसमें है? पता नहीं क्यों मेरी बुद्धि में फायदे की बातें आसानी से नहीं घुसती। मुझे जिंदगी और अपने होने को सिद्ध करने की तमन्नाा भी खास नहीं जागती। मुझे पता है मैं इस दुनिया में ऐसा कोई मकसद लेकर नहीं  आया हूँ, जो यह सिद्ध कर दे कि वाकई में मेरा होना दुनिया के लिए बहुत बड़ा मकसद था।
मुझे बस इतना पता है कि मेरे होने का मकसद यह है कि मैं दुनिया के जो औचित्यहिन मकसद है उनका लुत्फ लूँ। अपने को उन औचित्यहिन मकसद में इस तरह मशगूल कर लूँ कि मेरा होना मेरी नजरों में सार्थक हो जाए। इसलिए ही तो मुझे रात में घनघोर बारिश की आवाज पसंद है, दूर तक का सफर बिना किसी औचित्य के करना पसंद है, किसी की आँखों में आँखें डालकर 'आई लव यू" कहना पसंद है, जंगल पसंद है, विरानापन भी पसंद है, डूब जाने वाला संगीत पसंद है, अमलतास पसंद है, किलकारी पसंद है, माँ का दुलार पसंद है, पिता का प्यार पसंद है, भाई से तकरार पसंद है, दोस्तों का साथ पसंद है, झरना पसंद है, बर्फ पसंद है, विरानापन भी पसंद है तो अकेलापन भी पसंद है... छोटी-छोटी वो खुशियाँ पसंद है जो दिल में हलचल मचाती है, हमारे पागल होने का अहसास दिलाती है... बस पसंद नहीं है तो ऐसी तमाम भावनाओं में 'फायदे" तलाश करने की हमारी भूख! इस भूख ने अधिकाँश लोगों की रातों की नींद और दिन का चैन छिना हुआ है। काम में सभी उलझे रहते हैं, रोटी-तरक्की की चिंता हर व्यक्ति को होती है। लेकिन आखिर इनके चक्कर में हम 'दिल" और इसकी बातों को नहीं भूल बैठे हैं! इसलिए ही तो हमारे पास सबकुछ होने के बावजूद जिंदगी रंगहीन नजर आने लगती है। अब बताईये कहाँ है फायदा?
 

Monday, February 21, 2011

जो डूबा सो बच गया बचकर भी तो डूब गया!


प्यास ये शब्द पता नहीं क्यों इन दिनों मेरे दिलो-दिमाग में बार-बार आकर मुझे बेचैन किए हुए है। सुबह से शाम, शाम से रात और फिर वही सुबह! सब अच्छा चल रहा है, लेकिन कुछ अच्छा नहीं है। क्यों है यह प्यास? क्या इससे पार पाने का कोई उपाय है? या ताउम्र मेरा पीछा नहीं छोड़ेगी? क्या मैं इसके लिए अभिशप्त हूँ? पता नहीं!
दौलत, शोहरत, परिवार, दोस्ती, नफरत और प्रेम- हर कहीं यही प्यास नजर आती है। सभी आकुल-व्याकुल। जिसके पास दौलत है, उसे इतने से जी नहीं भरता... और...और... आखिर कोई सीमा है? शोहरत में डूबे व्यक्ति के भी यही हाल होते हैं। उसे बस मैं और मैं के अलावा कुछ नहीं सूझता है। कोई उसके आगे शीश नहीं झुका रहा है, तो वह विचलित हो जाता है। रोज टीवी चैनलों, अखबारों और रेडियो पर उसे न्यूज बनने की एक प्यास होती है। परिवार और दोस्ती में गाफिल इंसान की प्यास भी कम नहीं होती है। यह समय के साथ उल्टे बढ़ती ही जाती है। परिवार और दोस्तों के मोह में तो इंसान जो करे सो कम है।
...लेकिन... लेकिन जब बात प्रेम की हो तो यह प्यास इंसान की बस जान ही लेकर दम लेती है। पर जान जाती भी कहाँ है, वह तो हलक में अटक कर रह जाती है। उठते-बैठते, सोते-जागते बस मत पूछिये क्या हाल रहता है। प्रेम में इंसान संपूर्ण खालिस प्यास बन जाता है। हर वक्त खोने-पाने का डर, समाज-परिवार न जाने कौन-कौन से अजीब बंधन... उनके बावजूद भी हर पल मिलने की चाह... मिल गए तो बिछड़ने का डर और एक अजीब सा खिंचाव। सब कुछ बस हलक में बुरी तरह अटका हुआ। इस प्यास में एक बार कोई डूबा तो वह बच जाएगा, लेकिन बचकर भी तो वह डूब ही जाएगा। है ना अजीब! प्रेम में दर्द, टूटन और जलन का भी अपना मजा है। जो प्रेम में होता है या जिसे प्रेम हो जाता है- वह एक अजीब ही खुमारी और नशे की हालत में रहता है। दुनियादारी से बेखबर, दुनिया में है लेकिन दुनिया से दूर। शराब, अफीम, चरस, स्मैक, गाँजा, भांग और नींद की गोलियाँ जैसे दुनिया के तमात तरह के नशे छोड़े जा सकते हैं, लेकिन क्या प्रेम के इस नशे में यह संभव है? न तो इसका इलाज है और न ही इसे छोड़ा ही जा सकता है। इससे अपनाना भी अपने हाथ में नहीं होता है। प्रेम तो बस हो जाता है, क्यों...क्या... और कैसे जैसे शब्दों की इसमें रत्ती भर भी गुंजाईश नहीं है। फिर भी यदि आप प्यार को छोड़ने की हिम्मत दिखाएँगे, तो यह प्यास इस कदर बढ़ेगी कि इसमें न तो जिया जाएगा और न मरा जाएगा। ...इतना हीं नहीं प्रेम आप जितना करोगे प्यास और-और बढ़ती जाएगी। ऐसा भी तो कोई स्वीच नहीं है कि जिसे दबाते ही आप प्रेम करना बंद कर दें। आपने गलती से ऐसी कोशिश की भी तो यह प्यास आप पर इस कदर हावी होगी कि आपको पागल करके ही दम लेगी। यह प्यास आपको लड़ाती है, मिलाती है, सुख देती है, दुख देती है, हवा में तैराती है, शून्य में ले जाती है, हकीकत का सामना कराती है, भटकाती है, वितृष्णा की ओर ले जाती है, तृप्त करती है, संपूर्ण बनाती है, तन्हा कर देती है, हंसाती है, रुलाती है, बहलाती है, फुसलाती है, सहलाती है, डराती है, अपना बनाती है और पल भर में पराया भी कर देती है! न जाने क्या-क्या रूप दिखाती है। इस सारे पड़ावों में आप बस प्रेम और बस प्रेम होकर रह जाते है। इस प्यास में डूबा जा सकता है, तैरा भी जा सकता है... पर तैरकर किनारे बैठा नहीं जा सकता। अब आखिर इस प्यास का क्या किया जाए, यदि जवाब मिले तो कृपया करके मुझे जरूर बताएँ!