Friday, October 21, 2011

मेरा अकेलापन!



वह निगल जाता है
साबूत ही मुझे
अजगर के मानिंद
धीरे-धीरे चटकती है
हिम्मत, फिर जज्बात
खुली आँखों में
छा जाता है अंधकार
गहरे शून्य में धँसता
और धँसता जाता हूँ
इतने अंधेरे में भी कैसे
कई उँगलियाँ
मेरी ओर उठी दिखती हैं, कैसे?
पर सारी उँगलियाँ मेरी
ही तो हैं
तभी वह बड़ी कुटिल मुस्कान से
अचानक उगल देता है
तब नजर आती है
दमकती, चमकती दुनिया
अपनी सफलताओं पर कुप्पा मैं
फिर पलटकर 'उसको" नहीं देखता

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