Wednesday, November 30, 2011

मेरी दोस्त बनेगी...?



पता नहीं क्यों, मैं उस रात अपने फ्लेट पर उसके इस तरह आने से बहुत असहज था। वैसे असहज होना भी चाहिए, दोस्तों की जिद के कारण क्यों मैंने उस लड़की को अपने एक कमरे के फ्लेट पर लेकर आने की इजाजत दी। फिर लगा, सालाऽऽऽऽ ये दोस्ती भी कई बार क्या-क्या नहीं करवाती है। मेरे लिए भी ये लोग कई बार बुरी तरह पिटे। मजाल है कि कोई कॉलेज में मुझसे बहस भी कर ले। कैसे, ये उस पर पील पड़ते हैं। कई बार घर से पैसा देर से आने पर कड़के का बोलबाला रहता है, तब ये दोस्त ही तो हैं जो कैंटिन पर चाय, समोसे की जुगाड़ बनते हैं। सिनेमा का टिकट हो या साथ की लड़कियों को घूमाने ले जाने का चक्कर। ये दोस्त है ऐसे वक्त मेरे तारणहार होते हैं। बस एक डायलॉग के साथ- जा, तू भी क्या याद रखेगा! ...और सचमुच मैं याद नहीं रखता रहा हूँ। आज तक मैंने दोस्ती में कभी हिसाब नहीं रखा। सोचता हूँ अब उन दिनों को तो लगता ही नहीं कि कभी मैंने कोई चिंता अपने दिल में पाल के रखी हो। बस दोस्तों को बोल दो, वे क्वार्टर का इंतजाम करके आपके फ्लेट पर आएँगे और अपना तमाम ज्ञान उडेल देंगे। बोलेंगे चिंता को प्यारे 'एल" पर लेना सीख जा, नहीं तो किसी दिन तेरी 'जी" मर जाएगी। उस वक्त वाकई मैं हर चिंता-फिक्र को 'एल" पर या यूँ कहें दुनिया को उस पर रखकर दोस्तों के दम पर घूमता था।
खैर, उस दिन करता भी क्या...? दोस्तों को न जाने क्यों पीने के बाद जैसे धुन सवार हो गई कि कुछ भी हो आज तो एक लड़की लेकर आएँगे ही। दबा कर लेने का मन कर रहा है। मुझे उनका ये 'लेना" कभी रास नहीं आया, पर सुरेश तो जैसे मानने को तैयार ही नहीं था। वह अड़ गया और चिल्ला-चिल्लाकर कहने लगा कि तुझे नहीं करना है तो मत कर। हमें तो यार जिंदगी के मजे लेने दे। तू साला, ना पीता है और ना ही किसी के साथ सोता है। अकेले कैसे इस फ्लेट में काट रहा है? मुझे बहुत चिढ़ भी हुई, दिल तो करा सालो को लतिया कर निकाल बाहर करूँ। फिर वही मजबूरी, ये लतियाने के बाद भी मेरे पास ही आएँगे। जैसे मैं इनते पास जाता रहा हूँ। ...और लतियाने के बाद ये साले चिल्ला-चिल्लाकर सड़क पर अपनी इज्जत का फालूदा भी तो बना देंगे।
मैं काफी देर तक अड़ा रहा कि यार, ये गलत है। समझाया भी कि किसी आसपास वाले को पता चला तो? कितना मानते हैं वे मुझे। पड़ोसवाली आंटी तो मुझे बेटा ही मानती है। मम्मी-पापा भी जब भी यहाँ आते हैं, तो कहते हैं कि संभालना इसे। आपके पास छोड़े जा रहे हैं। कुछ गड़बड़ करे तो फोन घूमा देना और आप लोग तो इसके कान उमेठ भी सकते हो। ऐसा नहीं है कि आंटीजी ही मुझे बेटा मानती है, मैं भी तो उन्हे माँ सा सम्मान देता हूँ। हर छोटे-बड़े काम और कार्यक्रम में हमेशा हाजिर रहने वाला जीव हूँ मैं उनके लिए।
पर सालाऽऽऽ सुरेश तो अड़ गया और गिरीश, दिनेश भी कहाँ माने? सुरेश ने तो मेरे ना-ना करते रहने के दौरान ही किसी असलम को फोन लगा डाला।
असलम बोल रहा था- इतनी रात गए भी कोई लड़की मिलेगी? पहले बताना चाहिए ना। सुरेश ने काफी मान-मनौव्वल की या यूँ कहे बारी-बारी से सारे दोस्त उसके सामने गिड़गिड़ाए। असलम बोला- देखता हूँ। एक लड़की है तो। साली काफी अड़ियल है, पर करारी भी। यदि मान गई तो समझो तुम लोगों की तो निकल पड़ी। उसने सुरेश को चेताया भी कि वह बहुत सिरफिरी है। थोड़ी बियर-वियर पिला देना। तीन लड़कों से ज्यादा को वो नहीं देती... एक छोटा भाई भी साथ आता है उसके। रुपए वही लेगा... उसे रुपए से कोई मतलब नहीं है!
असलम ने कहा कि 10 मिनट बाद फोन लगाओ। मैं उसके भाई से बात करता हूँ कि क्या वह तैयार है। थोड़ी देर बाद असलम को फोन लगाया गया। असलम ने उनको खुशखबर सुनाई कि आज पिंकी तैयार है। असलम ने अनुरोध भी किया कि ध्यान रखना वह सनकी है। नाराज मत करना उसे। सुरेश बोला- अरे... यार! आज साली को बिल्कुल घरवाली बनाकर रखेंगे, तू बस ये बता कि माल कितना लगेगा?
आखिरकार तीन हजार में सौदा तय हुआ। असलम ने साफ तौर पर बता दिया कि दो हजार उसके भाई को देना और सुबह मुझे एक हजार दे देना। सुरेश ने असलम से भावताव करने की कोशिश की कि यार उसका तो ठीक लेकिन अमा यार तुम आजकल ज्यादा मुँह फाड़ने लगे हो। असलम ने कहा- यार जैसा माल होगा, किमत भी तो वैसी ही होगी। पुराता है तो बोलो, नहीं तो जब गुदा ना हो तो हाथ ही हिला लिया करो। सुरेश को ताव आ गया, उसने कहा ठीक है प्यारे, माल अच्छा हुआ तो दो सौ और ज्यादा ही दूँगा। पर सालाऽऽऽऽ गुदा की बात न कर! कितनी ही लोंडियाँ इन टांगों के नीचे से निकल चुकी है। जैसे-तैसे दूसरे दोस्तों ने मामले को शांत किया और असलम ने मान लिया कि वाकई में सुरेश के पास गुदा है और कई लौंडियाँ नीचे से निकल चुकी है।
असलम ने बताया कि फलाँ जगह पिंकी और उसके भाई को लेने जाना पड़ेगा। तो दोनों को लेने के लिए दो बाइक से लड़के गए। वह आई तो बिल्कुल लड़के के भेष में थी। बालों का जुड़ा बाँधकर टोपी पहने थी। जींस और एक ढीला सा डेनिम का शर्ट पहने थी। लगता था जैसे किसी ग्राहक का छिनकर लाई हो। उम्र होगी 21-22 वर्ष। तीखे नक्श की गोरी सी उस लड़की में एक अजीब आकर्षण लगा। साथ में एक सिकिया सा लड़का था। जिससे सुरेश और अन्य दोस्त घेरे खड़े थे और कुछ फुसफुसा रहे थे। इतने में वह थोड़ी तेज आवाज में बोली- छोटू बात तीन लोगों की हुई है। यहाँ तो चार है, कह दे धंधे में ये चुतियापा नहीं चलेगा। तीन की बात हुई थी तो बस... तीन!
मैं पहले से ही इन सारी बातों से चिड़ा हुआ था। भड़क गया और उसकी तरफ देखकर बोला कि यहाँ तीन ही के लिए बुलाया है। मैं इन चुतियापो में नहीं पड़ता।
उसने एक पल के लिए मुझे देखा और हल्के से मुस्कराई। पता नहीं क्यों मुझे वह चेलेंज देती नजर आई। फिर उसने चिल्ला कर कहा- असलम ने लगता है तुम लोगों को एक बात नहीं बताई। सभी बोले-कौन सी? वह बोली-मेरी बियर कहाँ है? सुरेश ने सिर पिट लिया यह सुनकर। वह बोला- सालाऽऽऽ इंतजाम करते-करते बियर लाना तो भूल ही गए। तो वह बोली- छोटू चल, नहीं पुरेगा मेरे को तो। दोस्त छोटू को खिंचने लगे, तो उसने भी बोल दिया- दीदी की बात तो माननी पड़ेगी और खाने में क्या है? इस पर सुरेश ने घड़ी देखी 11 बज रहे थे। वह बड़बड़ाया- शायद दुकान खुली होगी, बेनचो... 10 बजे कौन दारू की दुकान बंद होती है, शटर आधा झुकाकर साढ़े 11 बजे तक तो खुली रहती ही है। वह पिंकी की तरह आँख मारते हुए बोला- चिंता मत कर मेरी जान, अभी तेरे लिए बियर और खाने को लेकर आता हूँ। फिर मजे करेंगे।
उसने सुरेश या किसी को भी जरा सी भी लिफ्ट नहीं दी। टोपी निकालकर उसने पास ही टेबल पर पटक दी और जुड़ा खोल दिया। बालों को बड़ी अदा से झटकते हुए वह शर्ट उतारने लगी। मैंने कहा कि यह सब मैं बाहर चला जाऊँ तब करना तो उसने कनखियों से मुझे देखा और बात अनसुनी करते हुए बटन खोलना जारी रखा। मुझे गुस्सा तो आया पर मै उसकी नजरों को देख कुछ बोल ही नहीं पाया। उसने शर्ट निकाल दिया, जब मेरी नजर उसकी ओर गई तो वह मुस्कुरा रही थी। शर्ट के अंदर एक टाइट टी-शर्ट पहने थी वो, शायद यही दिखाना चाहती थी। फिर मुझे बताने के लिए यूँ ही बड़बड़ाई कि इन साले हरामी पुलिसवालों से बचने के लिए क्या-क्या करना पड़ता है। कोई कुछ कमा ले, तो इनके बाप का क्या जाता है? मैंने उसकी बात को सुनकर भी अनसुना कर दिया।
इधर सुरेश एक दोस्त को अपने साथ ले गया था और एक छोटू से गपिया रहा था। गपिया क्या, वह ऐसा लगा रहा था मानो छोटू की चमचागिरी कर रहा हो। मुझे उसे खुब लतियाने की तीव्र इच्छा हुई। मैं कमरे में ही कुर्सी लगाकर बैठ गया। इन लोगों के लिए मैंने कमरे के बिच में एक गद्दा डाल दिया था, ताकि ये मेरा पलंग खराब न करे। वैसे भी जब कभी मेरे दोस्त आते हैं, तो मैं इसी प्रकार गद्दा डाल दिया करता हूँ। गद्दे पर कुछ अखबार बिछाकर बिच में दारू और खार मंजन (नमकीन) रखकर दोस्त इर्द-गिर्द बैठ जाते हैं। मैं भी उनके बिच नहीं पीने के बावजूद आ फँसता हूँ और उनकी बातों का रस लेते हुए खार मंजन खाता रहता हूँ। कई बार इस महफिल में मैं खुद को बिन बुलाया मेहमान समझता रहा हूँ। शायद ऐसा दुनिया में कुछ ही लोगों के साथ होता होगा कि कोई अपने की घर में मेहमान बन जाए और मेहमान, मेजबान बन आपको खार मंजन का दुश्मन समझने लगे। इस पार्टी में अक्सर मैं फ्लेट और सुविधाओं के टैक्स के रूप में एक बड़ी थम्सअप और खाने में नॉनवेज की फरमाईश रखता रहा हूँ, जो मेरे दोस्त गालियाँ देकर पूरी करते रहे हैं। ये और बात है कि कई बार मैं फरमाईश ना भी करूँ, तो वे टैक्स लेते आते हैं और हमेशा की तरह का डॉयलाग कि 'तू भी क्या याद रखेगा" सुना देते हैं। मैं हमेशा की तरह उसे याद नहीं रखता रहा हूँ।
तो छोटू के साथ वह लातें खाने लायक मेरा दोस्त गद्दे पर बैठा था और मैं कुर्सी पर। इधर पिंकी चुपचाप अपने बैग में से स्कर्ट निकालकर मेरे सामने आ खड़ी हुई। मैं एक पल समझ नहीं पाया कि यह चाहती क्या है? मैंने आश्चर्य से उसकी ओर देखा, तो बोली गोदी में बैठने नहीं आई हूँ। बाथरूम किधर है, जींस बदलना है। मैंने फिर चिढ़कर कहा- वैसे भी मुझे शौक नहीं आ रहा बैठाने में और बाथरूम की ओर इधारा कर दिया। थोड़ी देर सन्नााटा छाया रहा। फिर न जाने क्यों मैंने छोटू की ओर देखते हुए पूछा कि तुझे शर्म नहीं आती। वह समझ नहीं पाया मैं किससे बात कर रहा हूँ। तो मैंने कहा- तेरेको को ही बोल रहा हूँ। तेरी बहन ऐसा काम करती है और साले तू उसके साथ घूमता है। पहले तो वह सकपकाया, फिर उसने मेरे दोस्त की तरफ गुस्से से देखा। मेरा दोस्त मिमियाते हुए बोला- क्या यार, तू काम बिगड़वायेगा क्या? होगी कोई मजबूरी, बेचारा है। इस पर छोटू बोला- फालतू के जवाब देने नहीं आया हूँ। सालाऽऽऽ कोई दूसरा पैसा हड़प जाए, इससे तो अच्छा है कि मैं ही ले लूँ। और मेरे होते हुए बहन को कोई तकलिफ भी तो नहीं होगी ना।
मैंने पूछा- कैसी तकलिफ उसे? तो बोला- तुम्हे क्या पता, इस धंधे में कैसे-कैसे हरामी लोग होते हैं। कई बार भिड़-भिड़ा कर बचाया है अपनी बहन को! उसकी बात सुन कर गुस्सा तो बहुत आया कि एक तमाचा देकर निकाल बाहर करूँ और बोलूँ बेनचो तू क्या बचाएगा उसे। बचाने जैसा कुछ है भी उसके पास। ...लेकिन मेरे दोस्त को मेरा यह व्यवहार जंच नहीं रहा था, वह छोटू को बोला- छोड़ ना यार। जाने दे, मुझे मालूम है कैसे-कैसे लोग होते हैं, तू सही कर रहा है कि बहन के साथ तेरा होना बहुत जरूरी है।
मैं अभी कुछ और बोलने ही वाला था कि वह आ गई और आते ही बोली- थक गई हूँ। कब आएँगे रे तेरे दोस्त? यह पूछते हुए बिना दोस्त के जवाब के इंतजार के वह धप्प से पलंग पर लुड़क गई। मुझे यह कतई पसंद नहीं आया। मैंने कहा- पलंग पर नहीं इस गद्दे पर लेटो, वहाँ मैं सोता हूँ। उसने बिना आँॅखे खोले चित्त लेटे ही जवाब दिया- यह पवित्र बिस्तर मैला नहीं हो जाएगा। हे राम! मुझ अहिल्या का उद्धार कर दो! ...और वह जोर-जोर से हँसने लगी। मैं एकदम सकपका गया। छोटू और दोस्त मुझे घूर रहे थे। वह अचानक चुप हो गई और आँखें धीरे से खोलते हुए गर्दन घुमाकर मुझे देखा और शरारत से बोली- कर दो ना उद्धार! मैं गुस्से से चिढ़कर कमरे के बाहर आ गया और पैर पटकते हुए छत की सीढ़ियाँ चढ़ने लगा। एक बार मैंने पलटकर देखा तो वह मुझे जाते हुए ऐसे ही पड़े-पड़े देख रही थी।
मैं तेजी से सीढ़ियाँ चढ़कर छत पर जा पहुँचा। वहाँ काफी अच्छा लग रहा था। उस घुटन भरे माहौल से यहाँ कुछ खिला-खिला लगा। मैं यूँ ही छत के बिच में जाकर लेट गया। आसमान में तारे टिमटिमा रहे थे। चाँद भी बड़ा ही शीतल लग रहा था, शायद आज पूनम थी। तभी तो चाँदनी हर ओर शीतलता लूटा रही थी। जब भी कभी चाँदनी रात रही है, मुझ वह रात हमेशा पूनम की ही रात लगी है। वैसे भी गर्मी के मौसम में रात को यूँ छत पर लेटे रहना कितना सुहाना लगता है। मैं अभी कुछ खुबसूरत ख्यालों में डूबने ही वाला था कि मुझे लगा- पिंकी पास ही बैठकर मुझे देख रही है। मैं चौंका और हड़बड़ा कर उठ गया। वहाँ कोई नहीं था, सिर्फ मेरे भ्रम के। मैं चहलकदमी करने लगा।
सोचने लगा कि आखिर कोई कैसे चंद रुपयों के लालच में अपने जिस्म का सौदा करने पर आमादा हो जाता है? क्या जमीर मर जाता है, ऐसे लोगों का? तभी अंदर से एक स्पष्टीकरण आया कि हो सकता है मजबूरी हो इसमें। फिर सवाल- ऐसी क्या मजबूरी? क्या काम करके रुपये नहीं कमाए जा सकते? सवाल- पर एक रात का दो हजार तो नहीं मिल सकता ना, कब तक कोई नौकरी में खटेगा? जवाब- लड़की के लिए इज्जत ही तो सबकुछ है, फिर? सवाल- तो क्या लड़कों के लिए कुछ नहीं? जवाब- लड़कों के लिए कैसी इज्जत! उनका क्या जाएगा?
तब अंदर से कहीं से आवाज आई- यह तो कुतर्क हुआ। लड़कियों के लिए इज्जत और वही बात लड़कों को लिए लागू नहीं होती? जवाब- सालों सेे यही तो होता रहा है। अब भी यही होना चाहिए। सवाल- सालों से होता रहा, तो जरूरी है अब भी हो? सही है, तुम साले पुरुष हमेशा अपने लिए खुद ही ढाल बन जाते तो। बेचारी पिंकी को तेरे ही दोस्त एक रात की किमत देकर लेकर आए, तू चुप रहा। उसको रातभर नोचेंगे, तू चुप रहेगा। वो साला भाई, अपनी बहन का सौदा कर रहा है, तू चुप रहेगा। तेरे ही घर रात भर नीच दोस्त दारू पियेंगे, गुलछर्रे उड़ायेंगे, सिगरेट फूँकेंगे, गंदी-गंदी गालियाँ देंगे, तू चुप रहेगा। कई घटिया कामों में तू सहभागी बनेगा और दिन के उजाले में वही शराफत की चादर ओढ़कर तुम सारे लोग नकली मुस्कान बिखेरते फिरोगे, तब भी तू चुप ही रहेगा ना!
मेरा सिर घूमने लगा। अंदर से उठते हुए इन सवालों से या फिर एक-डेढ़ घंटे तक लगातार चहलकदमी से, पता नहीं। पर हाँ, मेरा सिर तेजी से घूम रहा था और मैं लगभग लड़खड़ाते हुए वहीं बैठ गया। थोड़ी देर के बाद मैं नीचे उतरने लगा, तो तेज भूख लगी थी। टाइम देखा तो साढ़े 12 बजे थे। मतलब अभी मदनी दरबार खुला होगा। सोचा- चलो 2 बजे तक मटन खाकर लौटूँगा, तब तक इनका काम भी खत्म हो जाएगा। फिर 3-4 बजे तक इनको निकाल बाहर कर दूँगा।
जैेसे ही कमरे में दाखिल हुआ, बियर, विहिस्की, सिगरेट और खार मंजन की मिलीजुली तीखी अजीब गंध मेरे नाक में जा घुसी। वैसे लंबे समय से मैं इस तरह की पार्टियों का साक्षी रहा हूँ, इसलिए इस गंध का आदि हो गया हूँ। लेकिन आज मुझे यह गंध कुछ अजीब लगी। अंदर से फिर आवाज आई- लगता है पिंकी की भी गंध मिली हुई है। मैंने कमरे में देखा पता नहीं कैसे और क्यों, मेरी नजर सीधे पिंकी पर गई और मैं बुरी तरह झेंप गया। वह महारानी की तरह पालथी मारकर पलंग पर बैठी थी और मेरी चाय के बड़े मग में बियर उड़ा रही थी। बाकी के सारे लोग नीचे गद्दे पर लौट लगा रहे थे। मुझे देखते ही दोस्त चिल्लाने लगे- आओ-आओ, खारमंजन के दुश्मन। मैंने उनकी ओर कोई ध्यान नहीं दिया और वहीं कुर्सी पर बैठ गया। सारी पार्टी नशे में नजर आ रही थी, शायद कुछ नॉनवेज जोक चल रहे थे। ...पर पिंकी को इसमें कोई इंटरेस्ट नहीं था। वह मुझे घूरने लगी। मुझे लगा- चढ़ गई है साली को। तभी वो जैसे मेरे मन की बात समझ गई थी, नशीली आँखों से मेरी तरफ देखा और बोली- चिंता मत करो, अभी दो बोतल ही तो पी है। पाँच-सात की केपेसिटी है। मैंने कहा- कौन साला यहाँ तेरी चिंता कर रहा है। तेरा तो भाई भी चिंता नहीं करता। वह मेरे इस कटाक्ष से हल्के से मुस्कुराई, बोली- इतनी चिंता तुमने ही, आज पिंकी के लिए काफी है। मैंने कहा- तुम्हे ये मग नहीं लेना चाहिए था। बोली- मालूम था, तुम्हारा है। तभी तो लिया। फिर वह मुझे घूरने लगी। अब मैं सौ फिसदी कह सकता हूँ कि उसे चढ़ गई है।
मैंने वहाँ समय बर्बाद करना उचित नहीं समझा। तुरंत खड़ा हुआ और सबको सुनाने के लहजे में कहा- मैं तो मदनी जा रहा हूँ। तुम लोग मैं आऊँ तब तक अपना काम निपटा लेना। फिर मेरे सोने का टाईम हो जाएगा।
मैं जैसे ही जाने को हुआ, पिंकी जो मुझे घूरे जा रही थी ने एक ऐलान कर दिया। बोली- पहले ये मेरे साथ सोएगा, तो आज मैं पैसे ही नहीं लूँगी। मैंने चौंक कर उसकी ओर देखा, वो अब भी मुझे आँखें फाड़कर देख रही थी। सारे दोस्त एकदम चिल्लाए, साले तेरे साथ तो हमारी भी निकल पड़ी।
पिंकी की बात पर छोटू तो चिल्लाया- क्या बके जा रही है पगली। ऐसा क्या है इन भाईसाहब में? पगला गई है साली। वो वैसे ही मुझे देखते हुए बियर का एक बड़ा घूँट लेते हुए बोली- तू नहीं समझेगा। अभी छोटा है रे तू छोटू! सुरेश जोरदार ठहाका लगाकर चिल्लाया- अरे, यूँ बोल ना जानेमन कि मेरे यार पर तेरा दिल आ गया है। सारे दोस्तों ने सुरेश की बात पर ताली दी और जोरजोर से हँसने लगे। पर वह अब भी बूत बनी मुझे ही देख रही थी, बोली- क्या चला जाएगा रे तेरा, मेरी लेने में! मैं फिर भी कुछ नहीं बोला, तो सारे दोस्त चिल्लाने लगे- बताना क्या जाएगा तेरा इसकी लेने में। मुझे बहुत गुस्सा आया। पर मैं न जाने क्यों पिंकी की नजरों से बचना चाह रहा था या उसके इस हाल के लिए खुद का ही दोषी मान रहा था। हाँ, मैं दोषी ही मान रहा था।
मैंने आवाज में जितनी नरमी ला सकता था, लाकर बोला- प्लीज पिंकी, मैं यह सब नहीं करता। तुम्हे ऐसे देखकर मुझे अच्छा नहीं लग रहा। मैं जाना चाहता हूँ। तुम लोगों को जो करना है करो, पर मुझे बख्शो। वह कुछ नहीं बोली, बस फिर एक बियर का बड़ा घूँट लेते हुए एकटक मुझे ऐसे ही देखती रही। मेरे दोस्त न जाने क्या-क्या बके जा रहे थे। मुझे बस उनके ठहाके सुनाई दिए और मैं टेबल से अपनी बाइक की चाबी उठाते हुए तेजी से बाहर निकल आया। बाहर आते ही मुझे उस गंध से मुक्ति मिली और मैंने एक लंबी साँस लेकर बाहर की ताजी हवा अपने सीने में भरी। ...लेकिन फिर कहीं से आवाज आई- शायद वो अजनबी गंध तेरे नथूनों में ही कहीं बस गई है... है ना!
मैंने खुद को झिड़कते हुए बाइक की किक मारी और चल पड़ा मदनी की ओर। वहाँ पहुँचा ही था कि सुरेश का फोन आया कि ले बात कर। उधर से पिंकी बोल रही थी- दिल तोड़ देते हो तुम तो, खैर अब भी पवित्र बिस्तर पर हूँ। ...और तुम्हारे नाम का ही प्याला हाथ में है। आज इस बिस्तर पर तुम्हारे साथ ही सो रही हूँ! हो सके तो मेरे लिए भी खाना लेते आना। ये साले तो दाल-रोटी उठा लाएँ हैं, मुझे नहीं खानी।
मैं कुछ बोलता, उसके पहले वह फोन काट चुकी थी। मेरा दिल जोर से चिल्लाने को हुआ, फिर सोचा सुरेश को फोन लगाकर ढेर सारी गालियाँ दूँ। कहूँ कि मेरे पलंग पर कुछ ना कियो, जो करना है नीचे गद्दे पर करो। लेकिन जानता था, वहाँ अभी तो पिंकी की चल रही है। कौन सुनेगा? साले हरामी हाँ-हाँ कर देंगे। दिल तो कर रहा था कि असलम कौन है सालाऽऽऽ, उसे भी ढूँढ कर जमकर लतियाऊँ। कहूँ- खबरदार, जो इस लड़की से ऐसा काम करवाया तो! फिर अचानक ख्याल आया कि मुझे यह क्या हो गया है। 'इस लड़की" से क्या मतलब, वो है ही कौन? फिर दिल कसेला हो गया कि न जाने कितनों के साथ सो चुकी है सालीऽऽऽ। मुझसे कोई थोड़ा-सा मीठा क्या बोला, मैं तो बिछ ही गया उसके समाने।
तुरंत मैंने पिंकी को झटका और मटन मसाले का आर्डर देकर उसके आने का इंतजार करने लगा। फिर एक ख्याल- हो सके तो मेरे लिए भी खाना लेते आना... क्यों भई, बरात में आई है क्या मेरी? मैं टाईमपास करने लगा। बाहर एक आदमी काउंटर पर खड़ा होकर अपने ऑर्डर का इंतजार कर रहा था। वह खाना पैक कराकर ले जाना चाहता था, उसे जल्दी थी। वह बार-बार बाहर इशारा कर वेट करने को बोल रहा था। मैंने अपनी कुर्सी से उचक कर देखा तो स्कूटर के पास एक महिला खड़ी नजर आई। शायद उसकी बीवी थी, फिर वही ख्याल- हो सके तो मेरे लिए भी खाना लेते आना!... ये क्या हो गया है मुझे! मैंने फिर अपने आपको झिड़का। तभी एक लड़का मेरा ऑर्डर लेकर आ गया। वो जाने को हुआ तो प्याज के लिए मैंने उसे आवाज दी... छोटू! मेरा सिर चकराया... छोटू... कैसे मुझे उसके भाई की याद आ गई! वो पास आया तो मेरे मुँह से निकला- एक मटन मसाला, 5 नहीं 3 रूमाली रोटी और एक प्लेट राईस... जीरा राईस... हाँ... पैक कर देना!
कैसे! कैस! और क्यों! अंदर मानों चीख-पुकार मची थी। मैं उन चीखों के बिच ही खाना खाने में लगा रहा। हड्डी चूस रहा था कि फिर... घर पर ऐसे ही वे लोग उसे नोंच रहे होंगे। मुझसे खाना नहीं खाया गया। आधा ही छोड़ मैं उठा और बेसिन की ओर हाथ धोने चला गया। लौटा तो वह लड़का ऑर्डर पैक कराकर खड़ा था। एक बार फिर मैंने लड़के को देखा, फिर जेब में से 20 का नोट निकाल कर देते हुए कहा- थैंक्स छोटू...। फिर वही- हो सके तो मेरे लिए भी खाना लेते आना... लेकिन इस बार जैसे ही ये शब्द कौंधे, मेरे चेहरे पर बरबस ही मुस्कुराहट दौड़ गई।
मैं जब होटल से बाहर निकला तो एक दोराहे पर खड़ा था। क्या मुझे ये खाना लेकर घर जाना चाहिए? क्या रात के 3-4 बजे मैं उसे घर से बाहर निकाल फेंकुँगा? क्या वाकई में दोस्त उसे नोंच रहे होंगे, जैसे मैं हड्डी? क्या वह मेरे ही बिस्तर पर होगी? ...और फिर मेरा सिर चकराने लगा। मुझे खुद से एक चिढ़ सी हुई कि क्यों में बेफिजूल की बातों को इतना महत्व दे रहा हूँ। पर...क्या ये वाकई बेफिजूल की बातें हैं? ओह...क्या हो गया है मुझे?
मेरा दिमाग सुन्ना हो चुका है। अब मुझे चलना चाहिए। मैंने खुद को आदेश दिया- हाँ...हाँ... ये खाना लेकर ही मुझे जाना है।
मैं जब घर पहुँचा तो करीब ढाई बजे होंगे। मेरा बिस्तर काफी अस्त-व्यस्त था और उससे भी ज्यादा अस्त-व्यस्त मुझे पिंकी नजर आई। छोटू गद्दे से लुड़क कर दिवार में घुसा सोया पड़ा था और दो दोस्त भी आधे गद्दे पर और आधे जमीन पर लुड़के पड़े बातें कर रहे थे। एक शायद बाथरूम में था। मुझे देखकर दोस्त चिल्लाये- आ मेरे शेर... क्या सूत कर आ रहा है। हमने तो यहाँ दबाकर सूता। पर प्यारे थोड़ी देर बाद आना था ना, एक ट्रिप और बाकी है। मैंने उसका कोई जवाब नहीं दिया। बस, पिंकी की तरफ देखा और उसने उनिंदी आँखों से मुझे। चेहरे पर जबरिया मुस्कान लाते हुए पूछा या बताया- पता है बहुत भूख लगी है, खाना मिलेगा? मैंने कुछ नहीं कहा और पैकेट आगे बढ़ा दिया। उसने हाथ बढ़ा कर पैकेट थाम लिया। बहाने से या यूँ ही पैकेट लेते हुए मेरे हाथ से उसकी उँगलियाँ छू गई। इतनी गर्मी में भी इतनी ठंडी... वह ठंडक आज तक मेरे पूरे जिस्म में एक लकीर की तरह जाती है और एक अजीब सिहरन बदन में दौड़ जाती है। इतने में बाथरूम से निकलकर जैसे ही मेरा दोस्त आया, वह पिंकी पर आ गिरा। उसने कोई प्रतिकार नहीं किया, बस मुझे नजर भर घूरकर देखा। मुझे ऐसा क्यों लगा कि मुझे दोस्त को रोकना चाहिए था... पता नहीं। बस वो पल था कि मैं खुद को रोक नहीं पाया और जोर से चिल्लाया- सब निकल जाओ, घर से। मैंने लगभग घसिटते हुए पिंकी के ऊपर पड़े दोस्त को खिंचा और धकियाते हुए कमरे के बाहर कर दिया। गद्दे पर पड़े दोस्त सकते में आ गए। वे चिल्लाये- क्या हुआ भाई, बता तो सही! क्या हुआ कि माँ की .. कहते हुए मैंने छोटू को एक जोरदार लात जमाई। वह तिलमिला कर उठा। तभी मैंने उसकी कॉलर पकड़ कर खिंचा और चिल्लाया- बेनचो, तेरी बहन के साथ ये सब हो रहा है और तू यहाँ पड़ा हुआ है। चल अभी के अभी बाहर निकल। वो बोला- बोस, तुम ठीक नहीं कर रहे हो। उसका यह बोलना था कि मैंने एक जोरदार तमाचा उसको जड़ दिया।
दोस्त कुछ समझ नहीं पाए, जिसे मैंने बाहर धकेला था वो फिर अंदर आ गया। अब तीनों एक ट्रिप और की मिन्नातें करने लगे। मेरा गुस्सा सातवे आसमान पर था। मैंने कहा- जो करना था कर लिया, अब निकलो यहाँ से। तुम और तुम्हारी दोस्ती की ऐसी-की-तैसी।
कमरे में इतने ऊधम हो रहे थे और वह वैसे ही हाथों में पैकेट लिए बिस्तर पर पड़ी थी। कोई प्रतिक्रिया नहीं, बस मुझे एकटक देखे जा रही थी। अब मैं उसकी ओर मुखातिब होकर चिल्लाया- सारे लोग तुझे नोंच रहे हैं, तुझे कुछ लगता है कि नहीं! वह फिर भी कुछ नहीं बोली। मैं चिल्लाया- अभी, इसी वक्त यहाँ से निकल जा। ...और उसका हाथ पकड़ कर खिंचा, तो उसका भाई मुझ पर झपट पड़ा। वो चिल्लाया- तेरी हिम्मत कैसे हुई मेरी बहन को हाथ लगाने की। तब भी वो कुछ नहीं बोली, बस इशारे से उसने अपने भाई को चुप रहने का हिदायत दी। उसकी इस हरकत से पता नहीं क्यों मेरे गुस्से में कमी आई, मैंने धीरे से कहा- प्लीज, अब तुम जाओ। दोस्तों की ओर बिना देखे मैं उसे देने के लिए पर्स से रुपए निकालने लगा। मैंने पर्स में जितने रुपए थे, सारे टेबल पर रख दिए। वह मुझे तब भी देखती रही, फिर उसने खाने का पैकेट टेबल पर रखा और शर्ट पहनने लगी। फिर स्कर्ट के अंदर से उसने जींस पहनी और स्कर्ट को घड़ी कर बैग में रख दिया। फिर बालों को बाँधने लगी। इसके बाद टोपी भी पहनी। तब तक दोस्त बड़बड़ाते रहे कि यार इतना नाटक करने की क्या जरूरत है। क्यों, बिना बात रायता फैला रहा है? पर मैंने कोई जवाब नहीं दिया।
छोटू उनसे पैमेंट माँगने लगा और उन्हे छोड़ने की बोलने लगा। वे उसे लेकर बाहर गए और शायद मजा नहीं आया बोलकर तोड़बट्टा करने लगे। मैं तब तक अपनी कुर्सी पर धँस चुका था। अब वह जाने के लिए बिल्कुल तैयार थी। जूते भी पहन चुकी थी।
पैकेट को एक बार हाथ लगाया, फिर मेरे सिर पर हाथ फेरा। मैंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। वह बोली- आज पहली बार पेट भर खाया और जी भर सोई। मैंने उसकी ओर देखा, लगा वह नशे में नहीं है। उसकी नजरें मुझे अपने अंदर तक उतरती लगीं। वह बोली- पता है, कई आदमियों और औरतों में एक रंडी छूपी होती है। वह सोच में ही दिन में कई बार पता नहीं किस-किस के साथ सो लेती है और कुछ सोकर भी नहीं 'सो" पातीं।
वह चली गई। मैंने उसे जाते हुए नहीं देखा। दोस्त भी गाली देते हुए उन्हे छोड़ने चले गए। पूरा घर बिखरा पड़ा था, पर क्या मेरे अंदर उससे ज्यादा बिखराव नहीं था। मैंने दरवाजा बंद किया और उसी बिस्तर को अपने ऊपर लपेट कर पड़ा रहा। आज भी कारण खोज रहा हूँ कि मैंने ऐसा क्यों किया? शायद किसी दिन जवाब मिलेगा।
पता नहीं क्यों में पिंकी से मिलना चाहता था... या अब भी चाहता हूँ। एक-दो साल दोस्तों से उसके बारे में बात करने की हिम्मत नहीं हुई। दोस्त कहते हैं- यार, उस रांड का दिल तुझ पर आ गया था। उन्हे ये भी शक है कि मेरा भी आ गया था। ...और मुझे यकिन है! लेकिन मैं उसका फोन नंबर दोस्तों से माँग नहीं पाया। 4-5 साल बितने के बाद जब दोस्तों ने मेरे उस रात के मामले में मजे लेना बंद कर दिए, तो हिम्मत करके मैंने सुरेश से पिंकी का फोन नंबर माँगा। इस पर उसने मेरे साथ काफी देर मसखरी की। जब मैंने बताया कि मैं एक स्टोरी के लिए उसका नंबर माँग रहा हूँ तो वो बोला कि असलम का नंबर था मेरे पास तो। तो मैंने कहा असलम का ही दे दे, तो बोला कि यार, कुछ साल पहले अखबारों से पता चला था कि उस दल्ले को पुलिस ने पकड़ लिया है और उससे पुलिस ग्राहकों का पता कर रही है। तब मैंने उसका नंबर डिलिट कर दिया था, उसके बाद शादी हो गई और फिर यार इन सब कर्मकांडों की जरूरत ही नहीं पड़ी।
मुझे भी लगा कि बंद किताब को फिर क्यों खोलने की जरूरत? मैं भी अपने काम में लग गया, पर जब भी कभी अखबारों में छापापारी की खबरें पड़ता हूँ तो पिंकी या असलम को जरूर खोजता हूँ। क्यों...? इसका जवाब हमेशा की तरह मुझे नहीं मालूम है, लेकिन अंदर किसी कोने से एक आवाज जरूर आती है कि बस उससे ढेर सारी बातें करनी है... और पूछना है- मेरी दोस्त बनेगी?
 

Monday, November 28, 2011

सामाजिक



मैंने सिखाया उसे
चलना, खाना, पीना
पर नहीं सिखाता तो
क्या उसे यह नहीं आता?
अब पढ़ाने लगा हूँ
दुनियादारी के पाठ
चिल्लाने, रोने पर मनाही
उठने, बैठने का सलिका
अदब, तहजीब
न जाने क्या-क्या
लगता है एक दिन
इसके अंदर भी
इसका अपना कुछ नहीं बचेगा
यह भी कहलाएगी 'सामाजिक"
फिर कभी इसका भी दिल करेगा
सबकुछ छोड़ भागने का
 

कहाँ मिलेगी टाइम मशीन?



माँ की गोद में दुलार पाते
छोटी से फ्रॉक पहने
इधर-उधर दौड़ते लगाते
छोटी-छोटी जिद करते
रोते, झल्लाते, खिलखिलाते
बेग थामें स्कूल जाते
सहेलियों संग शोर मचाते
पड़ोसी के यहाँ से फूल
बेर, जाम चुराते
हर नई चीज को देखकर
आश्चर्य में पड़ते
माँ से चोटी बनवाते
पहली बार साड़ी पहनते
मेकअप करते
गाड़ी चलाना सिखते
केंटिन में गपशप करते
हाँ, मैं सब देखना चाहता हूँ
पर कहाँ से लाऊँ टाइम मशीन?
अब बेटी में ही देखना होगा
तुझे भी बढ़ते
क्या करें, मिले भी हम
आधी उम्र बीत जाने के बाद
फिर भी खुश हूँ मैं तुझे पाकर
सोचता हूँ
बुढ़ापा तो गुजरेगा मजे से

Thursday, November 24, 2011

मैं कारीगर...

डरता हूँ मैं खुद से
इसलिए खुद को बाँधता हूँ
मेरे बंधन हैं इतने मजबूत
तोड़ना चाहता हूँ
पर कहाँ तोड़ पाता हूँ?
जब खड़ी कर रहा था
दीवारें खुद के लिए
तब डरता था सेंधमारी से
अब चाहकर भी
एक किल तक नहीं गाड़ पाता
कई बार कोशिश की गई
मेरी दिवारों में सेंध की
हर बार जीत गया मैं कारीगर
पर अब घुटता है
मेरा भी दम यहाँ
अफसोस
बाहर आवाज तक नहीं जाती

काश!



खुशी की आस में
ताउम्र भटका
मौत जब खिंचने लगी
अपने दामन में
तब मुट्ठी खोली तो
खुशियों का आँगन मिला

Wednesday, November 23, 2011

चल आ...

सोचता था मैं ही
पागल हूँ दुनिया में
तुझे देखकर भरम टूट गया
जी तो पहले भी रहा था
पाकर तुझे सलीका आ गया
घुली है तू चुटकी भर नमक की तरह
अब जिंदगी में जायका आ गया
पता है जब छुआ था लबों को तेरे
तब से ही 'अफीम" का नशा छा गया
अब साथ है मेरे ताउम्र
सोचकर ही सफर का मजा आ गया
पता है तुझे
भरी पड़ी है दुनिया होशियारों से
यह जलती है हम दीवानों से
चल आ, अब चलें दूर कहीं
जहाँ बस हम हों
बातें हो दिवानगी की
झटकें जब भी यादों की धूल तो
कण-कण में हम हो बसे
 

Tuesday, November 22, 2011

धीमी-सी तेज जिंदगी!


पहले रेंगकर
फिर घुटनों के बल
यहाँ-वहाँ घूमती वो
पैरों पर धीरे से
सीख गई खड़े होना
कभी गिरती
फिर उठ खड़ी होती वो
सीख गई गिरकर, दौड़ना
हर चेहरे पर गड़ा दिया करती थी नजरें
अब चेहरों में से सीख गई वो
'अपनों" को पहचानना
रोते-रोते न जाने कब
खेलने लगी चेहरे पर मुस्कुराहट
फिर धीरे से सीख गई वो
आवाज को शब्दों में पिरोना
कुछ ऐसी है मेरी 'जिंदगी" की
धीरे-धीरे, बढ़ती तेज रफ्तार

 

Thursday, November 17, 2011

मेरी जेब में तू!



एक बार सोचा
क्यों ना रात भर के लिए
जेब में डाल संग ले चलूँ तूझे
जीभर देखूँ, मुठ्ठी भर बातें करूँ
चाँद को चिढ़ाऊँ
तारों को तेरी चुनर में जड़ूँ
तेरे बालों में उँगलियाँ डाल
चाँदनी में नहाऊँ
तेरे लिए तुझे ही गुनगुनाऊँ
घूँट-घूँट कर पी जाऊँ
जब खून में तू घुल जाए
तेरी यादों के तमाम निशाँ दिखाऊँ
तेरी खुशबू को रोम-रोम में बसाऊँ
फिर ताउम्र मैं भी महका फिरूँ
एक ही रात में ए-दिलनशीं
मैं कुछ ऐसा कर जाऊँ
जिंदगी की जद्दोजहद से दूर
तुझे खुशियों के देस ले जाऊँ
मेरी खुशकिस्मती का अब
है ये आलम
तू डली है मेरी जेब में
और मैं, संग तेरे खुशियों के देस में

Tuesday, November 15, 2011

ख्वाब सुधारती मेरी बेटी!


कल ही की तो बात है
मैं सुनता था दादी से
कहानी खरगोश 'माँ" की
बुनता था अपना संसार
जहाँ बात होती खुशियों की
पंछियों की, परियों की
और रंग-बिरंगी तितलियों की
कल ही की तो बात है
जब मैं बस्ता उठाए जाता था स्कूल
होती थी दोस्तों संग मस्ती
गढ़ने होते थे होमवर्क न करने पर बहाने
रिजल्ट की चिंता, टिचर की फटकार
खेलों में बार-बार तकरार
हर दूसरी लड़की से प्यार
कल ही की तो बात है
टोली पिया करती थी समोसे संग कट चाय
सूनी नजर आती थी कॉलेज की क्लास
डिस्को जाते, रोज नई उम्मीदों के पंख लगाते
दिन को रात, रात को दिन करने का
हौंसला सीने में लिए घूमते
हर पिक्चर के हीरो में खुद का अक्स देखते
दुनिया के हर असंभव को ठेंगे पर रखते
कल ही की तो बात है...
वाकई बहुत तेज रफ्तार है जिंदगी
इन दिनों मेरी बेटी झाँकती है आँखों में
मुस्कुराती है, मानो कह रही हो
तेरे ख्वाबों में बहुत गुंजाईश है सुधार की!






 

Tuesday, November 8, 2011

कुछ तो है तुझमें ऐसा...



हर वक्त जलता हूँ
किसी शोले की तरह
तेरे आते ही अब्र बन जाता हूँ
कुछ तो ऐसा है तूझमें
कि तेरे छूते ही महक जाता हूँ
इन बोतलों में नहीं वो बात
तेरी नजरों से पीते ही बहक जाता हूँ
जब होती है मेरे आसपास तू
मैं खिला फूल नजर आता हूँ
जब लेता हूँ बाहों में तुझे
मैं कुबेर बन जाता हूँ
सपने में भी तुझे देख
सूरज से ज्यादा चमक जाता हूँ
जिस्म से भी परे है
अद् भुत अहसास तेरा
रूह में उतार तुझे
मैं खुद को खुदा पाता हूँ

 

Wednesday, November 2, 2011

कैसे बयाँ करूँ?



हर वक्त खोजता हूँ
वो शब्द
जो कह सके तुझे
मेरे दिल की सदा
जो बयाँ करें
मेरी तड़प, बैचेनी, दीवानगी
प्यास, जलन, घुटन, बेचारगी
जो हर वक्त उकलती रहती है
सिर्फ तेरे लिए
हाँ, जुबाँ कहती तो है
कुछ घिसे-पीटे से शब्द
तू समझती भी है
पर, तेरा समझना, मेरा समझाना
दोनों अधूरे हैं शायद
क्योंकि न तो मौन, न ही शब्दों में
बयाँ हो सकती है मेरे दिल की भाषा!