Wednesday, May 23, 2012

जरूरत!

वो कहती है
जरूरत हूँ मैं उसकी
काश, कि समझ पाती
जरूरत से कहीं बढ़कर है वो
डरता हूँ मैं
कहीं ये न हो मेरे साथ
एक दिन कबाड़खाने में पड़ा मिलूँ
क्योंकि, कई जरूरत की वस्तुएँ
किसी रोज 'धूल" हो जाया करती हैं
हो सकता है
कभी फिर, मेरा भाग्य जागे
झाड़-पोंछ कर मुझे चमकाये
फिर, अपने शो केस में सजाये
पर, वो कद्रदान कोई और होगा
तू तो नहीं