Wednesday, August 31, 2011

टूटन...



घुट रहा है
कुछ टूट रहा है
धीरे-धीरे, हर पल
कहीं कोई शोर नहीं
खुद मुझे तक पता नहीं
सुबह जब जागता है सूरज
तब टटोलता हूँ खुद को
कहीं कुछ कम होता है
पर क्या, पता नहीं
डरता हूँ
ऐसे ही घिसता रहा
तो एक दिन
नहीं मिलूँगा खुद को भी
पर हाँ, हमेशा की तरह
'साबूत" नजर आऊँगा सबको
कभी पता नहीं चलेगा
खुद मुझको भी
अब 'मैं" कहीं नहीं
कहीं नहीं...

 

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