Thursday, March 7, 2013

पशु से पुरुषत्व का सफर



दुआ करता हूं 
जन्म ले हर घर एक बेटी
हर एक को नसीब हो देखना
उसे बढ़ते, सपने बुनते 
नसीब हो फूल से 
कोमल हाथों की छुअन
पिता के प्रेम में पल-पल
आंखों में भर आते अश्रु भी नसीब हो
उसकी हंसी, मस्ती
नाजुक संवेदनाएं भी हो नसीब
फिर देखना चाहता हूं
कैसे वह कर पाएगा
वह सब, जो अब तक 
करता रहा है 
पत्नी, मां, बहू 
या फिर उससे 
जिसे मानता रहा है महज भोग्या 
यह भी देखना है मुझे
बेटी नसीब होने के बाद
वह है कौन
जो नहीं बन पाया है
पशु से पुरुष