Friday, June 24, 2011

तुम बताओ- क्या करूँ?



खून का तेज फव्वारा... मानो किसी ने प्रेशर वॉल्व खोल दिया हो... दीवार और छत तक पहुँच रहा है उबाल... अब फव्वारे का दबाव कम होता जा रहा है... ध्ाीरे-ध्ाीरे खून की एक मोटी ध्ाार कुर्सी से दरवाजे की और सरक रही है... और वह हल्की सी मुस्कान लिए उस सरकती ध्ाार को देख रहा है... शरीर का साथ छोड़ते हाथ से अब गाढ़ा-सा खून रिसता नजर आ रहा है... अब उसकी आँखें उनींदी सी लग रही है... कुर्सी पर शरीर निढ़ाल पड़ा है... पर वह खुश है! दर्द का असर कहीं नजर नहीं आ रहा है... कोई बुरी तरह दरवाजा भड़भड़ा रहा है, शायद खून की लकीर बहते हुए दरवाजे के बाहर तक पहुँच गई है... वह दरवाजे को देखता है और कुटिल मुस्कान के साथ आँखें बंद कर लेता है...!
मरना ही तो चाहता था वह। पर क्यों? क्या कमी थी उसके पास! बड़ा सा बंगला, नौकर-चाकर, एक मल्टीनेशनल कंपनी में अच्छी-सी नौकरी, खूबसूरत बीवी, प्यारा-सा दो साल का बेटा। माँ-बाप हैं, लेकिन वे गाँव में खेती-बाड़ी के लिए। उनकी जिंदगी भी बहुत खुश है, उनकी तरफ से भी इसे कोई टेंशन नहीं है। फिर क्यों उठाया उसने ऐसा कदम?
पत्नी ने सबसे पहले पति के स्टडी रूम से खून की लकीर देखी। उसने तुरंत चिल्लाकर नौकर, ड्रायवर को बुला लिया। जैसे-तैसे कमरे की चिटकनी टूटती है तो अंदर का नजारा दिल दहला देने वाला मिलता है। उल्टे हाथ से सीध्ो हाथ की नस काट ली गई है। पत्नी गहरे सदमे में है। बच्चा गला फाड़ कर रोये जा रहा है। ...पर उसे यह आवाज कहीं दूर से आती सुनाई दे रही है। उसे लग रहा है अब मौत करीब है। वह एक बार और हल्की सी आँखें खोलता है, बीवी की कुछ आती-जाती आकृति सी नजर आती है, शायद वह कुछ बोल रही है। ...फिर अंध्ोरा!
जब उसकी आँखें खुलती है तो उसे बीप...बीप... की आवाज सुनाई देती है और सामने स्टूल पर पत्नी बुत बनी बैठी नजर आती है। इसका मतलब वह बच गया, वह सोचता है। फिर आँखें मूँद लेता है। आँसूओं की बूँद लुढ़ककर आँखों के कोने से तकिये तक छू जाती है।
पत्नी यह देख चुकी है, वह जान गई है कि उसे होश आ गया है। वह ध्ाीरे से स्टूल पास खिसकाती है और पूछती है-क्यों...आखिर क्यों किया निखिल।
वह अपनी आँखें और भींच लेता है। पत्नी को उसके हाथ की पकड़ मजबूत सी लगती है। फिर वह ध्ाीरे से पूछती है-तुम नहीं होते तो मेरा क्या होता? तुम्हारा बेटा, उसे भी मार डालते!
उसके पास कोई जवाब नहीं है, बस आँसूओं की लड़ी तकिये में समाती जा रही है।
पत्नी जिसे वह प्यार से अनु कहता है, बोली- डॉक्टर कह रहा था, लोग अवसाद में ऐसा करते हैं। अवसाद...क्या? और क्यों मुझे नहीं बताया कि अंदर कुछ खदबदा रहा है।
पता नहीं क्यों या शायद प्रायश्चित के नाते ही वह पत्नी से आज खुलकर बात करना चाहता था। उसने ध्ाीरे से कहा- मुझे तुमसे और परिवार से या जिंदगी से कोई शिकायत नहीं है। मैं संतुष्ट हूँ, पर पता नहीं क्यों खुश नहीं! अनु मुझे माफ करना, अब नहीं करुँगा ऐसा पर मुझे अपने आप से इतनी असंतुष्टि है कि मैं जीना ही नहीं चाहता हूँ।
तुम्हारे क्यों का तो सही-सही जवाब नहीं, पर मैं अपने में ही उलझा हूँ। डिप्रेशन में रहता हूँ हरदम। मैं जानता हूँ, हमारी लव मैरिज है। मैं ये भी जानता हूँ कि मेरे बेटे को लेकर मेरे बड़े-बड़े अरमान और सपने हैं। मैं ये भी जानता हूँ कि मेरी मौत के बाद तुम टूट जाओगी, पर पता नहीं क्यों मैं खुश नहीं हूँ।
अनु दोनों हाथों में उसका हाथ लेकर चूमते हुए रुँध्ो गले से कहती है-पर मुझे बताना तो चाहिए। तुम जैसा कहोगे वैसा करुँगी, पर ये तो कोई बात नहीं होती है। 

निखिल के पास कोई जबाव नहीं है।
अनु बोलती है-तुम्हे मेरा परिवार पसंद नहीं है, मैं कोशिश तो करती हूँ उनसे बात ना करूँ। तुम्हे दोस्तों का साथ घूमना-फिरना, खाना, बातें करना भाता है। मैैं कहाँ मना करती हूँ। फिर क्यों?
क्या जवाब देता वह? वह बोला- मुझे कुछ भी नहीं लुभाता अब। शायद यही मेरे अंदर इनबिल्ट है कि मैं यूँ ही जाया हो जाऊँ। रोज सुबह उठता हूँ तो लगता है क्या मिलेगा ये करके? क्या कर लूँगा प्रमोशन लेकर? क्या होगा दोस्तों से गपिया कर?
शाम होती है तो खुद से पूछता हूँ- आज क्या किया सारा दिन? क्या आउटपुट रहा? कुछ खुद में तलाशा या नहीं? पता नहीं ये दिमाग सोते हुए भी प्रश्न पर प्रश्न क्यों करता रहता है? पता नहीं मैं खुद को कब पा सकुँगा? पता नहीं मैं खुद में क्या पाना चाहता हूँ? क्या कभी मैं जो पाना चाहता हूँ, वो पा सकुँगा कि नहीं?
अनु के पास इन सवालों के कोई जवाब नहीं है, वह अपने पति को बस एकटक देख रही है कि वह क्या बड़बड़ाए चला जा रहा है। वह समझने की कोशिश में है कि आखिर उसने क्यों किया यह सब?
वह फिर पूछती है- तुम बताओ, मैं वह करूँगी। पर ये तो बता दो मुझे करना क्या है?
वह कहीं शून्य में देखते हुए बोलता है-पता नहीं मैं खुद से क्या चाहता हूँ। पर इतना जरूर है कि मेरे इस कदम के पीछे तुम खुद को गुनहगार न मानो। तुम्हे कुछ भी करने की जरूरत नहीं है। तुम ऐसी ही बड़ी अच्छी हो। पर उसकी आँखें वहीं कहीं शून्य में अटकी हुई है।
अनु कुछ और बात करना चाहती है, तभी नर्स आती है और डपटते हुए कहती है- मैडम मरीज के शरीर से वैसे ही काफी खून बह चुका है। वह एकदम कमजोर है, तुम ज्यादा बात मत करो।
वह डाँटते हुए उसे बाहर ले आती है और कहती है- तुमको समझ में नहीं आता कि तुम्हारा पति बहुत डिप्रेशन में है। तुम उसे और परेशान क्यों कर रही हो।
अनु की आँखें डबडबा आती है, वह माफी माँगते हुए फिर आईसीयू के अंदर जाती है। पति को एक बार नजर भर देखती है। माथे पर चूमती है और स्टूल पर आ बैठती है।
थोड़ी देर में एक तेज शोर सुन निखिल हड़बड़ाकर आँखें खोलता है। उसे बस खून की एक लकीर दरवाजे की और सरकती नजर आती है! ...और वह खुद से ही पूछता है-आखिर क्यों...?
 

Thursday, June 23, 2011

फिर पूछो ना क्या हुआ!



वह शाम
कुछ नशे में थी
थोड़ी उनींदी, थोड़ी जागी
आँखें मसलते हुए
मोड़ पर उसने देखा
और शरारत से मुस्कुरायी
बदली को इशारा कर
उसने इक बात बताई
फिर उस मोड़ पर
बूँदों की यूँ ध्ाार गिराई
बचते-बचाते भी कुछ बदन
भीगे, कुछ हुए तरबतर
बात यहीं खत्म कर देती
वह तो खैर थी
पर आज नशे की खुमारी में
वह कुछ गजब ही कर गयी
हवा के कानों में भी
वह कुछ गुनगुनायी
मद्धम झोकों ने
इक मदहोश लीला रचायी
तरबतर जिस्मों के नैन मिले
दो दिल जो कुछ देर पहले
कुछ और बुन रहे थे
अब मोड़ से वे 'एक राह" चले


 

'डर" का डर...



मुश्किल हो या आसाँ
यह है तेरा सफर
तूने चुनी है यह मंजिल
चलना भी होगा तुझी को
सोचने भर से नहीं मिलता
अपनी मर्जी का जहाँ
सुना होगा तूने भी
डरनेवालों के गले
लगती रही है हार
जीत रही है उसी की
जिसने खौफ से लड़ना सीखा
दुनिया 'डर" का डर दिखाकर
छीनती है तेरे हिस्से की खुशियाँ
वह घात लगाए बैठी है
तू आगे बढ़े, तेरी राह में रोड़े मिले
उनकी तुझसे दुश्मनी नहीं
यह फितरत है, तुझे समझना होगा
अपनी मर्जी के जहाँ की खातिर
अपने 'हमसफर" पर भरोसा करना होगा


 

Tuesday, June 21, 2011

'मैं"



दूर तलक नजर जाती है
उम्मीदों की रोशनी कहीं
चाहता हूँ पकड़ लूँ
रोशनी का वह छोर
जहाँ अब भी हैं
उम्मीदें जवाँ
दूर से आती है
हवा में घुली आहट कोई
चाहता हूँ पहुँच जाऊँ
जहाँ अब भी मुझे
आवाज दे रहा कोई
मैं क्यूँ होता जा रहा
दूर, और दूर
अपनों से, उम्मीदों से
चाहता तो हूँ मैं पास जाना
फिर क्यूँ?
मैं आ गया हूँ क्यूँ
इतना आगे कि लौट ना सकूँ
मैं फिर लौटूँगा
अपने इस 'मैं" से
फिर अपनों के बीच
देखूँगा उम्मीदों को होते जवाँ


 

Sunday, June 19, 2011

तुझको जो पाया...


पके बाल, झुर्रियाँ बेशुमार
काँपते हाथ, पोपले गाल
शायद चेहरे पर चश्मा
फिर भी हँसी में वही खनक
थोड़ी सठियायी सी
और ज्यादा बिगड़ैल बच्ची
लोगों के लिए जिद्दी बुढ़िया
पर मेरे लिए वैसी ही अल्हड़
अब तुम ही बताओ
'पा" लेने भर से
कैसे बनेगी बात?
जिसे तुम कहती हो पाना
वह तो शुरुआत भर है
जीवन की ढलती साँझ
में महकी चाय का घूँट बाकी है

 

वह स्वप्न!



बचपन में एक स्वप्न
करता रहा है परेशान
गिर रहा हूँ मैं गहरे
गहरे, और गहरे
नीचे देखने पर
नजर नहीं आता कुछ
और फिर डरकर
खुल जाया करती थी नींद
अब न तो यह सपना डराता
शायद ऐसा नजर भी नहीं आता
बड़ा जो हो गया हूँ
रोज गिरता हूँ
या गिरा दिया जाता हूँ
कई बार इतना गहरा
ध्ाकेला जाता हूँ
शरीर तो क्या आत्मा
तक सिहर जाती है
जान गया हूँ, उस स्वप्न से कहीं
निष्ठुर है जिंदगी
अब मुझे वह सपना
याद आता है, लुभाता है


Sunday, June 12, 2011

भाग्य!




सुना है कई बार
भाग्य में होता है जो
वही मिलता है
लाख कर लो कोशिश
किस्मत में लिखा नहीं बदलता
मुझे यकीं नहीं 

इन सुनी-सुनाई बातों पर
मुझे रहा है हमेशा
भरोसा अपने इरादों पर
तभी तो भाग्य की बाँह मरोड़
छीन लाया हूँ तुझे उससे
अब खिसियाकर
कह रहा है मुझसे
तेरे 'भाग्य" में ही तो
लिखी थी 'यह"

 

Saturday, June 11, 2011

दर्द-बीज!


दर्द का बीज
दुखी मन में होता है अंकुरित
नकारात्मकता का खाद-बीज
पाकर पनपता है
असफलता का पानी
वृक्ष में कर देता है तब्दील
फिर इसके काँटे करते हैं
अपनों को ही छलनी
पर जड़ों में यदि डाल दो
सकारात्मकता का मठ्ठा

इसे सूखते देर नहीं लगती
एक और तरह का भी होता है दर्द बीज
जो प्यार में पनपता है
नकारात्मकता, असफलता
इसे वृक्ष बना देती हैं
सकारात्मकता में भी यह नहीं सूखता
इसकी छाँह में जो भी आया
हर हाल में उसने दर्द बेहिसाब पाया
हाँ, अंत में इस दर्द को
ही दवा बनते मैंने पाया




 

Friday, June 10, 2011

आत्मा का विलीन होना...


कहते हैं मौत के बाद
शरीर छोड़ देती है आत्मा
फिर वह परमात्मा में
हो जाती है विलीन
शायद ऐसा होता भी होगा
पर मौत के पहले
ऐसा तो होता ही है
पर कब?
'प्रेम" ही है वह तत्व
जिसके बोध्ा मात्र से
आत्मा छोड़ देती है साथ
फिर वह ऐसी जगह होती है विलीन
कि परमात्मा को भी नहीं मिलती



 

Thursday, June 9, 2011

बूँद-बूँद जिंदगी!



सुबह से ही
चू रहा है आसमान
बूँद-बूँद...
कशिश है कुछ
खिंचती-सी
होश अब हैं मदहोश
आँखों के रास्ते
दिल की खिड़की खोल
उतर गया मैं यूँ ही
बूँद-बूँद...
सफर का नशा
उस पर ये इश्क बेजुबाँ
डूब रहा हूँ अब मैं यूँ ही
बूँद-बूँद...
ऐसे डूबने का है बड़ा मजा
न जिये जाता है
न ही नसीब होती है मौत
जिंदगी को देख रहा हूँ मैं यूँ ही
बूँद-बूँद...





 

Tuesday, June 7, 2011

उदासी की किरचें!



खिड़की के बाहर देखा तो पाया उदासी ओढ़े शाम खड़ी है। मुझे आश्चर्य हुआ! यह कैसे समझ जाती है कि मेरा दिल आज फोड़ा बना हुआ है। जब भी मैं पूरा दिल बनता हूँ, अक्सर शाम मेरे साथ आ चिपकती है। कभी-कभी मुझे उससे चिढ़-सी होने लगती है, जबकि हर बार वह मुझे अपने आगोश में ले समझाती ही है कि तू क्यूँ बेचैन हो जाता है? देख जब भी तू अकेला होता है, मैं हमेशा तेरे साथ खड़ी मिलती हूँ। तेरी डाँट भी सुनती हूँ, फिर भी ढीठ हो वह सब देखती हूँ, महसूसती हूँ। जो दर्द तू लादे-लादे घूमता फिरता है, उसे कुछ समय के लिए ही सही मैं अपने सिर भी तो लेती हूँ। यह मेरी मजबूरी है कि रात घिरते ही मुझे जाना होता है और वैसे भी तू अकेला मुझे मिलता भी तो कभी-कभी ही है। उसमें भी तू मुझे कहाँ याद करता है, जब भी मुझे लगता है ये बोझा किसी दिन तेरी जान न ले ले, मैं आ ध्ामकती हूँ। पर दिन-ब-दिन ये बोझा बढ़ता जा रहा है। तू क्यों करता है ऐसा?
वह मेरी तरफ कुछ देर देखती रही। शायद उसे जवाब का इंतजार था, लेकिन मेरे पास जवाब होता तो देता। मैं उसे नजरअंदाज कर आसमान की ओर देखने लगा।
थोड़ा रूककर वह अपना मूड बदलकर बोली-देख आज तो तेरी बेचैनी मुझसे बर्दाश्त नहीं हुई और मैं अपने साथ अपनी दोस्त बदली को भी ले आई हूँ। शायद तेरा मन कुछ हल्का हो जाए।
मुझे अनमने ढंग से न चाहते हुए भी उसे देखना पड़ा। पास भी एक काली-चिट्टी बिखरे बालों वाली गंदी सी लड़की खड़ी नजर आई।
मैंने पूछा- अक्सर तू मुझसे बिना पूछे मेरे पास आ खड़ी होती है, इतना तो ठीक है। पर यह तो हद है कि अब मेरी तकलिफ की जग हँसाई कराने के लिए अपने साथ और लोगों को भी लेकर आने लगी है। क्यों करती है तू ऐसा?
मेरी बात सुन उसका चेहरा मुरझा गया। मुझे भी उसको यूँ झिड़क देना ठीक नहीं लगा, पर मैं उस वक्त भरा हुआ था... और वह लड़की तो अब भी गोल-गोल आँखों से मुझे घूरे जा रही थी। पता नहीं क्यों उसे देखते ही मेरे दिल में जो सहानुभूति जागी थी, गायब हो गई।
मैं गुस्से से बोला- यार प्लीज! अकेला छोड़ दो मुझे। मैंने बहुत बड़ी भूल की कि मैं खुद को ढूँढने यहाँ खिड़की तक चला आया। तूझे यह मुगालता क्यों है कि तू मेरी परेशानियों को बाँट कर कम करती है। माना कि तेरे आने से खालीपन कुछ कम होता है, पर मैंने तो कभी तूझे नहीं बुलाया। ना ही मैं किसी को यह इजाजत देता हूँ कि वह मेरी जिंदगी में ताक-झाँक करें और बाद में यह दावा करे कि मैं दर्द कम करने की दवा हूँ।
हालाँकि यह बात मैं गुस्से में कह तो गया पर क्या मैं नहीं जानता कि कितनी ही बार यूँ ही इस शाम के साथ पीठ सटाए में बैठा रहा हूँ। कई बार हम लंबी दूर हाथ पकड़े सैर पर निकले और मैं उसके सामने खुलता चला गया। वह मेरी हर बात तो जानती है। वह नहीं जानती कि मैं कितने समय से यूँ ही बेचैन हो भटक रहा हूँ? वह यह भी तो जानती है कि मेरी प्यास का मुझे ही तो पता नहीं है कि ये कभी पूरी होगी? कभी किस्मत मुझ पर मेहरबान होगी? क्या मेरी तकदीर में बेचैनी ही बदी है? सब...सब... उसे पता है। सारे प्रश्न तो वह जानती है। हाँ, जवाब... वह तो मैं खुद खोज रहा हूँ। भटकाव की वजह मैं खुद हूँ पर यह भटकाव क्यों? इसका जवाब हम दोनों ही खोज रहे हैं। पर हम दोनों ही तो जानते हैं- प्याज के छिलकों की तरह दिल की परतें निकालते जाओ तो अंत में हाथ कुछ नहीं लगता। सिवाय दर्द के...
दोनों जानते है वह नहीं आएगी। वह कहीं और है! ...लेकिन यह सिर्फ मैं जानता हूँ कि जब भी यह शाम मेरे पास आती है, यह उससे मिलकर आई होती है। मैंने शाम को कभी नहीं बताया कि जब भी तू आती है, मुझे अच्छा तो लगता है। दर्द कुछ कम तो होता है, पर जब तू लौटने लगती है तो तेरी शाल में जिससे तू मिलकर आई होती है वहाँ की उदासी की कुछ किरचे नजर आ जाती है।
मैंने जब उन्हे देखा तो वे दोनों मुझे घूर रही थी। मुझे लगा उन्हे बेहद बुरा लगा है। मैं खिड़की से हटने लगा तो शाम बोली शायद आज तू बात करने के मूड में नहीं है। कोई बात नहीं कल आकर तूझसे बात करती हूँ। रात घिरने को है, मुझे जाना है। जैसे ही वो पलटी फिर मुझे किरचें नजर आई, लेकिन इस बार मैंने ही नहीं उस काली बदली ने भी यह देख लिया।
वह शाम के साथ जाने को थी, लेकिन वह ठिठक गई और बोली तू जा। मुझे यहीं रूकना है। शाम गुस्से से भरी थी, वह पैर पटकते हुए जाने लगी। मैं और बदली उसे दूर तक देखते रहे। ध्ाीरे-ध्ाीरे वह रात में कहीं गुम हो गई। न जाने क्यों मुझे रुलाई फूट पड़ी। शायद हर बार मैं अकेला होता था, इसलिए दर्द को जज्ब कर लिया करता था। ...लेकिन मेरी यह चोरी पकड़ी गई थी।
मेरे आँसूओं को देख बदली से रहा नहीं गया। उसने मुझे जकड़ लिया। वह जान गई थी मेरे दर्द की किरचों को! मेरे आँसूओं से मैं कभी तरबतर नहीं हुआ या लोगों को नजर न आए जाए दर्द की लकीरें इसलिए मैं हमेशा बंध्ाा रहता था। पर आज मुझे जकड़े हुए वह बदली भी झरने लगी थी। मैं तरबतर था, दिल हल्का हुआ या भारी ही था पता नहीं। बस...हम दोनों झर रहे थे और एक दर्द की ध्ाार जमीं पर सरक रही थी।



 

Wednesday, June 1, 2011

तेरी 'छूअन"



इक सरसरी सी दौड़ती है
सारी इंद्रियाँ उस ओर
देखने लगती हैं
पूरा जिस्म सुनने लगता है
ध्ाक-ध्ाक की अद्भुत रिदम
आँखों में उतर आता है
पूरी बोतल का नशा
जुबाँ, बे-जुबाँ हो
चख लेना चाहती है स्वाद
रोम-रोम लेने लगता है साँस
मन भी चिपट जाता है उस ओर
दिमाग छोड़ देता है तब साथ
सिर्फ होती है जज्बातों की बात
इक प्यास व्याकुल हो
पी जाना चाहती है वह अहसास
बस, कुछ ऐसी ही है तेरी 'छूअन"