Friday, October 28, 2011

दवा भी तू-दारू भी तू!



एक चम्मच सुबह
एक चम्मच शाम
मिलती है मुझे
तू दवा की तरह
हर सुबह, हर शाम
सोचता हूँ
क्या ऐसे हो जाएगी उम्र तमाम?
कौन साऽऽला जीना चाहता है
यूँ बीमारों की तरह
एक दिन ऐसा जरूर होगा
जब मैं दवा नहीं दारू समझ
पूरी बोतल उड़ेल जाऊँगा
फिर देखूँगा नशा-ए-इश्क
क्या गुल खिलाएगा
...और क्या यह नाचीज बंदा
प्यार के समंदर से जिंदा बच पाएगा?

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