Tuesday, January 31, 2012

'मैं"

'मैं" को परे रख
अब देख खुद को
धँस, और धँस
क्यूँ घबरा गया
अब फिर से
समा जा 'मैं" में
तेरी औकात नहीं
खुद की 'गंद" समेटने की
सालेऽऽऽ
जिये जा तू
'मैं" के सैप्टिक टैंक में!
एक दिन
उसमें ही दफन हो जाना
पर, कमबख्त
तू है ही रक्तबीज
तेरी मिट्टी से
कई 'मैं" फूट आएँगे
 

Saturday, January 28, 2012

'तिलचट्टा"

जन्म से लेकर मौत तक
सजा है बाजार
जहाँ जिस्म से लेकर
वैभव तक होती है नुमाईश
कभी खुद इंसान बनता है वस्तु
कभी वस्तु हो जाती है इंसान से बढ़कर
कुछ बिकते हैं सरे बाजार
कुछ की लगती है बंद कमरों में बोली
हाँ, इस दौर में भी
कहीं-कहीं
इंसानों की तरह दिखता
एक 'इंसान" नजर आ जाता है
वह टूट जाता है, झुकता नहीं
एक नष्ट होता, दूसरा भी आ जाता
किसी 'तिलचट्टे" के समान
पता नहीं कैसे?
अनंतकाल से अब तक
है उसका वजूद
वह खुद को कहता है 'स्वाभिमानी"
पर, वह किसी काम का नहीं
परिवार, रिश्तेदार, दोस्त, पड़ोसी
सब रहते हैं उससे परेशान
लेकिन, वह जीता जाता है
यही सोचकर
शायद, वह देश, समाज
परिवार के कभी काम आ सके
 

Monday, January 23, 2012

ऐसा कहाँ होता है!

खाली होना भी
खलता है
और, व्यस्त होना भी
सोचता हूँ
दिमाग में उग आए जंगल की
थोड़ी काँट-छाँट कर दूँ
पर, मुझे कहाँ पसंद है
व्यवस्थित बगीचा
सोचता हूँ
उलझनों की ऊहापोह से निकलकर
जी लूँ, कुछ देर अपने साथ
पर, मैं खुद को ही क्यों खलता हूँ?
तंग आ गया हूँ
हर वक्त के सफर से
पर, सुस्ताने से कहाँ राहत पाता हूँ
सोचता हूँ
कर दूँ भीड़ में इस कदर गुम
ढूँढने से भी ना मिलूँ खुद को
पर, कमबख्त!
वहाँ भी तो अकेला होता हूँ
कहीं मिलेगा ऐसा एकांत?
जहाँ अकेले रहकर भी
अकेला ना रहूँ
जहाँ, अकेला ना रहकर भी
निपट अकेला हो जाऊँ
थक जाना चाहता हूँ इस कदर
दिल, आत्मा, शरीर सब
एकसाथ चूर हो जाएँ
धीरे-धीरे 'शून्य"
गहरे, और गहरे
मुझमे, मैं उसमें
समा जाऊँ
पर, कमबख्त!
ऐसा भी कहाँ होता है!
 

Sunday, January 22, 2012

बुनी है एक राह!

कई ख्वाबों की रहगुजर के बाद
एक राह बुनी है मैंने
वह तुझ तक ही तो जाती है
बस, तुझ तक ही
अभी चलना शुरू ही किया है
आकर मिली है कुछ तितलियाँ भी
जो बात कर रही है फूलों की
पंछियों ने भी आकर की है
तारीफ उस हँसीं मंजर की
मछलियाँ भी झील से झाँक
कह रही है खुशामदीद
कहीं से कोयल ने
छेड़ी है इकतार
जुगनूओं ने टाँकी है
मदहोश रोशनी की लंबी कतार
मस्ती के इस आलम में
देख आ पहुँचा मैं तेरे आँगन में
छोड़ दो, दूर हटो
अब ना फेंकों मुझे फिर बियाबान में
जहाँ बात न हो तेरी-मेरी
बिखरी हो दुनियादारी
खुलेआम ख्वाबों का कर कत्लेआम
की जा रही हो सौदागरी
कैसे, जी पाऊँगा मैं?
तू ही बता!
जो राह बुनी है
वह, बस तुझ तक ही तो आती है!
 

Saturday, January 21, 2012

ये 'फरिश्ते"

 
तोहमतें लगाने वाले
देखो 'फरिश्ते" हो गए
उनकी जुबाँ से कितने ही
उजले दामन दागदार हो गए
कैसे पकड़े कोई गिरेबाँ उनकी
कदम-कदम पर वो ही वो हो गए
चुप रहकर भी नहीं बच सकता कोई
वे किचड़ उछालने में इतने माहिर हो गए
क्या हो इनका इलाज, नहीं आता समझ
ये तो लाइलाज मर्ज हो गए
अर्जी लगाई है इनकी
मगर, खुदा का इंसाफ तो देखो
दोज़ख के दरवाजे भी इनके लिए बंद हो गए
भुगतना होगा ताउम्र यूँ ही
सोचकर ही उम्र के आधे बरस कम हो गए
 

Monday, January 16, 2012

मेरी राह!

 
एक पगडंडी
जो मुझे लुभाती रही है
छोर पर खड़ा हो
निहारा करता हूँ उसे
मोड़, कई मोड़
पेड़ों की घनी छाँह
हरी दूब
चाहता हूँ दौड़ना
देखना चाहता हूँ
उसका अंतिम
बढ़ाए भी कदम
कुछ पदचिन्ह देख
फिर, रोक लिए
अब नहीं लुभाती 'वो"
उतरा हूँ अब
मैं भी बियाबान में
चुभते काँटों
झंखाड़ के बीच
'नई" लुभावनी राह बनाने
 

'हमारे" लिए!

वो कहती है
ध्यान रखो अपना
'हमारे" लिए
अजीब है
एक नजर भर ने
कर दिया इतना बड़ा
फिर, ताउम्र
वही रखती रही ख्याल मेरा
कहती रही- ध्यान रखो अपना
 

Friday, January 13, 2012

कोई!

कई बातें होती है ऐसी
भूलकर भी कहाँ भूलता है कोई
साथ का भी है कुछ ऐसा
छूटकर कहाँ छूटता है कोई
चलती रहती है जिंदगी
मगर जम जाती है राहें कोई
निराशाओं के समंदर में भी
उम्मीद बँधा जाता है कोई
भटक जाओ तो
पदचिन्हों के सहारे ढूँढ लेता है कोई
भीड़ में भी जब तन्हा होता हूँ
निहारने लगता है चेहरा कोई
मरने तक का है साथ मेरा
फिर भले हजार तोहमतें लगाए कोई
क्यूँ होता है ऐसा
किसी एक मुस्कान पर
पिघल जाता है कोई
कुछ नहीं बचता उसका
सर्वत्र फैल जाता है कोई
 

Tuesday, January 10, 2012

दीप जलाएँ

एक दीप जलाया है अभी
थोड़ा ही सही
मिटा तो है अंधेरा
जानता हूँ
लौ मंद होते ही
फिर छा जाएगा सर्वत्र
मगर एक
कोशिश तो की है

एक दिन ऐसा भी आएगा
हर दिल जलाएगा दीप
फैलेगा उजियारा चहूँओर
कभी ना मिटने के लिए

तब हर दिन नई उमंग
नवसृजन आकार लेगा
उठो, आओ, मिलकर
सब दीप जलाएँ !

 

बात 'हमारी"


सच-झूठ
तेरा-मेरा
राग-द्वेष
अपना-पराया
मोहब्बत-शोहरत
विश्वास-अविश्वास
ऐसे न जाने कितने
मंतर देखे
अपने हिसाब से
जपते तोते देखे
सही क्या है
पता नहीं
क्या 'सही" कभी
होता है सही
शायद, पता नहीं
हर जगह बिखरी है
बस 'दुनियादारी"
फिर कैसे, कब, कहाँ
कर पाएँगे बात 'हमारी"?

Wednesday, January 4, 2012

अ-देह!

अदेह जब देह बन जाए
तो जहाँ तू बुलाए
मैं पहुँच जाता हूँ
जब सुन रही होती है संगीत
मैं ही तो गुनगुना रहा होता हूँ
तेरी जुबाँ का स्वाद
मुझे भी लगता है नमकीन
कपड़ों की तरह
तू पहन लिया करती है मुझे
रजाई समझ
दुबक जाती है मुझमें
रोज सुबह प्याला समझ
तेरे अधर छूते हैं मुझको
तेरे अंदर जो धड़कता है
वह दिल भी तो हूँ मैं
तू माने ना माने लेकिन
तेरी हर चीज में समाया हूँ मैं
तूझमें हूँ मैं, मुझमें है तू
कितनी अच्छी है ना यह अ-देह
हर आकार, प्रकार, स्वरूप
धर सकती है और
जी जाती है जन्म-जन्मांतर
 

Tuesday, January 3, 2012

क्या पता!

मौत जब छूकर गुजरी
पल में मिल गया
पूरी जिंदगी का हिसाब
सेकंड में पूरी किताब
झर्र से खत्म हो गई
हर पन्नों पर 'अपने"
जैसे कह रहे हो
अभी हम जिए ही कहाँ?
बाद तक सोचता रहा
शायद ताउम्र करता रहूँगा मनन
अब बस जीऊँगा उनके लिए
जो उन पन्नों में दर्ज थे
क्या पता 'वह" छूने की बजाय
इस बार साथ ले जाए?

दोष

कई तूफानों से गुजरा
मगर साबूत ही रहा
बहुत यकीं था खुद पे
तभी एक झोंका
मेरा वजूद तक मिटा गया
कितने अच्छे थे
वे तूफानों के दिन
जब लड़ता था अपने लिए
अब खुद को मिटा कर
उसकी आँखों में
अक्स अपना ढूँढा करता हूँ
दोष उसका है, न मेरा
ये तो हवा ही कुछ है ऐसी
जो भी चपेट में आया इसकी
वह बहने से कहाँ रोक पाया है?

Sunday, January 1, 2012

कैसे मिले मौका?

इस बेकराँ दिल को
कैसे चैन आए
तू ना होकर भी होती है
मैं होकर भी नहीं
मिलकर भी कहाँ मिल पाते हैं
बस शिकायतों में यूँ ही
रह जाया करते हैं रिते
जब थामा था हाथ
तब क्या पता था
इतनी बेरहम होगी जिंदगी
मिलने की तो दूर की बात
समय गुफ्तगू तक का ना होगा
कोशिश में हूँ
चलाऊँ कुछ ऐसा चक्कर
दिन बीते जुल्फों तले
रात गुजरे तेरी खुमारी में
तेरे प्यार का जश्न
ये बेचारा दिल भी मनाए