Friday, March 30, 2012

गिला गाल, कसैला मुँह और बस का बोनट...

यह बता तीसरी कक्षा की है। वह मेरे पास बैठती, क्लास टीचर के मना करने के बावजूद! वह मुझसे बात करते हुए टीचरों से डाँट खाती, लेकिन उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। कई बार दूसरे बच्चे पूछते भी- तू उसके पास ही क्यों बैठती है? जवाब होता- वह मुझे अच्छा लगता है। मेरा बेस्ट से भी बेस्ट फ्रेंड है वो। कई बार मुझे अजीब लगता, लेकिन मुझे भी तो वह अच्छी लगती है। ब्रेक होने पर टिफिन भी मेरे साथ ही खाती।
एक दिन जैसे ही ब्रेक हुआ, वह बोली- रूकना, तुझसे बात करनी है। सारे बच्चे चले गए, तो बोली- आय लव यू! मैंने भी हँसकर कहा- आय लव यू टू! वह बोली- पगले, मॉरल साइंसवाला नहीं, फिल्मों वाला! मैं भी हड़बड़ा गया। वह हँसी और गाल पर किस करके भाग गई।
न जाने कितनी बार वह 'किस" मेरे जेहन से उठता है और गाल को गीला कर जाता है। वही ताजा सा अहसास। अद्भुत!
मैं स्कूल के लिए अपने गाँव से पास ही के कस्बे जीरापुर जाया करता था। नौ किमी का सफर बस में तय होता था। बस हमेशा ही यात्रियों से ठसाठस भरी होती थी, जैसे अब भी ग्रामीण क्षेत्रों में होती है। मेरी बोनट पर परमानेंट जगह हुआ करती थी। उस जगह को रोककर लाने का काम ड्रायवर करता था। मुझे अच्छे से याद है बस का नाम मोती बस और ड्रायवर को सब मामा-मामा कहते थे। वह मुँह में हमेशा पान ठूँसे रखता था। बताते हैं कि वही बस का मालिक भी था। मामा को पता नहीं मुझसे क्या लगाव था कि वह नौ किमी बस मुझसे ही बातें किया करता। मैं कई बार उचक-उचक कर हॉर्न बजाया करता, वह कभी नाराज नहीं होता। चलती गाड़ी में कई बार उसकी सीट पर भी घुस जाता। बकवास सा एक टेपरिकॉर्डर था, जिसमें मेरी पसंद की टेप चला करती। वह पान भी खिलाता और कभी टॉफी भी। अब भी अक्सर मेरे सामने वह मामा आ जाता है और कई बार गुजरती बस को देखता हूँ तो एक हूँक सी उठती है कि दौड़कर उसके बोनट पर बैठ जाऊँ।
स्कूल और बस के टाईम में सामंजस्य नहीं बैठ पाने के कारण मुझे और मेरे भाई को साइकल पर छोड़ने की व्यवस्था की गई। हमें गाँव का ही एक व्यक्ति भागीरथ लेकर जाया करता था। एक दिन सुबह उसके आने में देरी हो गई। पता नहीं मुझे क्या सूझा और मैं उसे बुलाने घर जा पहुँचा। वह तैयार ही हो रहा था। उसने कहा- चाय पी लूँ, फिर चलते हैं। मैं उसके घर में एक टूटी खाट (पलंग) पर बैठ गया। उसने कहा- आप पियोगे? मैंने हाँ कह दी। वह बोला- दूध तो है नहीं, यहाँ तो काली चाय मिलेगी। मैं कुछ समझा नहीं। वह कपड़ा लेकर चाय छानने लगा। उसके पास एक ही गिलास था, जिसमें कुछ काला पेय उड़ेला। वह गिलास मेरी ओर बढ़ा दिया और खुद ने वही लौटा रखा था उसमें अपने लिए वह पेय छान लिया। मैंने कहा- यह चाय है? वह बोला- ये गरीब की चाय है। अजीब लगा कि चाय में भी अमीरी-गरीबी होती है! एक घूँट में पूरा मुँह कसेला हो गया। जैसे-तैसे थोड़ी सी चाय पी और गिलास रख दिया। आज भी अचानक ही मुँह कसैला हो जाता है। साथ ही उस घर की एक-एक चीज आँखों के सामने घूम आती है।
ऑपरेशन थियेटर के बाहर डॉक्टर की गोद में आती बेटी, उसकी गोल-गोल मुझे घूरती आँखें... शादी के फेरे हो जाने के बाद रिशेप्शन के लिए जाते वक्त मेरी पत्नी का अचानक ही कार में ताली बजाकर कहना- आज तो खुब मजा आया... दादी का डेंटल हॉस्पिटल में अपना नंबर आने पर मेरा हाथ पकड़कर डर के मारे कहना- भाग चल, भाग चल...
कई-कई किस्से और यादें हैं, जिन्हे घटे बरसों बीत गए... लेकिन ये अब भी याद आती है तो लगता है जैसे अभी-अभी तो घटा है सबकुछ! है, ना! अब कुछ रोमांचकारी और मजेदार। जिन घटनाओं को हम शिद्दत से जीते हैं, उन्हें वक्त भले ही भूला दें... लेकिन जैसे ही कोई उत्प्रेरक जेहन में दाखिल होता है, वे वैसी ही तरोताजा हो जाती है... जैसे अभी की ही तो बात है!
 

Tuesday, March 27, 2012

बुरा वक्त!

 बुरे वक्त में
याद आ जाता है ईमाँ
वरना, यह भी तो
खूँटी पर टंगी चीज है
बुरे वक्त पर तो
खुदा भी नजर आता है
वरना, वह भी तो
दीवारों में कैद है कहीं
सच्चे दोस्त की परख
कराता है बुरा वक्त
वरना, कौओं में
हंस भी कहाँ नजर आता है
खुद में झाँकने को मजबूर करता है
यह बुरा वक्त
वरना, इस भीड़ के शोर में
'मैं" की आवाज कहाँ सुनता है कोई?
हौंसला, जोश, जुनून
संघर्ष, जीवटता
ऐसे अनगिनत शब्द
जीवन में घोल देता है
यह बुरा वक्त

Saturday, March 24, 2012

जिंदगी के दो बेहतरिन साल!

मेरी प्यारी बेटी,
दो साल, चुटकियों में गुजरे। मेरी जिंदगी का अद्भुत समय। ऑपरेशन थियेटर के बाहर जब पहली बार तुझे गोद में उठाया था, तब तू आँखें फाड़कर मुझे देख रही थी। हमारी पहली मुलाकात... आँखें छलकी... सोना का शुक्रिया...!
पता है बेबी, तुझे में सपनों में देखा करता था। सोचा करता था। कैसी होगी तू, क्या कर रही होगी, माँ को जानती होगी, पर मुझे कैसे जान पाएगी...! लेकिन पहली ही बार में तूने मेरे सारे सवालों का जवाब दे दिए। बेहद खूबसूरत है तू, बिल्कुल मेरे सपनों में आती रही छोटी सी परी समान।
तब से लेकर अब तक मुझे यही लगा कि सपने देखना चाहिए। सपने ही तो हकीकत बनते हैं। ...तूने ही इस बात का यकिन दिलाया कि हाँ, सपने ही हकीकत बनते हैं। आमतौर पर बच्चे एक महीने में नजरें स्थिर करने लगते हैं, पर तू शुरू से ही मुझे देखती मिली। फिर चार महीने में तेरा इगो भी देखा। तेज आवाज शुरू से ही तुझे नापसंद रही है। किसी की नाराजगी का अहसास तूझे जब छ: महीने की थी, तबसे होने लगा। इस बात ने मुझे काफी चौंकाया। पहली करवट भी मेरे सामने ही तूने ली और वह इस तरह ली, जैसे करवट लेना तेरे लिए सामान्य बात हो। बड़ी आसानी से... फिर घुटने के बल चलना, सरपट दौड़ना और फिर धीरे-धीरे खड़े होना... सब ताउम्र के लिए तूने मेरे जहन में दर्ज करवा दिया।
कुछ महीनों की थी, जब तेरी माँसी और सोना ने कान छिदवा दिये। सफेद मोतियों के बीच एक लाल मोती... पता है बेबी... तू बहुत दहाड़े मारकर किसी भी वक्त रोने लगती थी। करीब सवा साल तक यह सिलसिला चला... और, रात को तो यह रोना जानलेवा ही लगता था। उस वक्त समझ नहीं आता था कि कैसे तुझे चुप करें... क्या-क्या नहीं करते थे... बोलना तो जानती नहीं थी तो लगता था हो सकता है पेट दुख रहा हो, दाँत आ रहे हो तो वहाँ दर्द हो, भूख तो नहीं लग रही... फिर तमाम तरह के प्रयोग... तेरा भोंगा चालू... नजरें भी उतारी जाती...! मैं कभी नजर लगने जैसी बातों को नहीं मानता, पर तेरे मामले में मानता हूँ... कई बार खुद से पूछा भी... जवाब भी मिला- कहीं सच में नजर लगती हो तो!
पहला शब्द तूने 'माँ" ही बोला था। बड़ा मजा आया, लेकिन तुझ पर गुस्सा भी। थोड़ी मुश्किलों से ही सही 'दाता" भी तो बोल सकती थी। अकेले में कई बार दोहराया भी कि दाता बोलने में तुझे कहा परेशानी आती होगी...
काश! दाता की जगह मुझे 'माँ" ही कहा जाता होता। खैर तूने धीरे-धीरे दाता बोलना भी सीख लिया... मैं कई बार तुझे कुछ सिखाना नहीं चाहता हूँ... सोचता हूँ तू अपने आप दुनिया को जाने... समझे और जिंदादिली से जिए!
तेरे पैर कमाल हैं। घुंघरूओं वाली पायल में तुझे ठुमक कर चलते देखना... फिर तेरा दौड़ना... कमाल लगता है। जब तू खड़ी होने लगी थी, तब कोई भी गाना सुनकर तेरा डोलता हुआ डांस... कैमरे को देखकर शुरू से ही पोज देना... कहाँ से सीखा तूने? लगता है तू जन्मजात ब्यूटी कांशस है। तभी तो बिना बालों वाली लड़की किसी के भी घने बाल देखकर सबसे पहले उन पर ही प्रतिक्रिया देती है और खुद का सिर छूने लगती है। यह तब की बात है जब तू बोलना नहीं जानती थी, जब बोलने लगी तो किसी बच्चे के लंबे बाल देखते ही खुद के सिर पर हाथ लगाते हुए बोलती-बालऽऽऽ
क्रीम, पाउडर, काजल, बिंदी, चूड़ियाँ, ढेंगलर, क्लिप, कंघा, डियो सबकी जन्मजात दीवानी लगती है। खिलौनों से पता नहीं क्या दुश्मनी है, वे बस आते-जाते ठोकरें मारने के लिए ही बने हैं। हाँ, लखन दादा का पहले जन्मदिन पर दिया डूबीसिंह तेरा फेवरेट है। इस एक साल में तू हमेशा ही उसे टांगे-टांगे घूमी, सोते समय भी उसे अपने साथ रखती है। ...और ब्रूनो पर भी थोड़ी मेहरबानी कर लेती है।
हर सवाल पर कोनफिडेंटली 'हाँ" कहना सोना से ही सीखा है। ये बड़ा मजेदार लगता है मुझे। एक बार तू अपने शूज ढूँढ रही थी। हमने कहा- सुन, जूते बालकनी में रखे हैं, ले आ। तूने बड़ी शान से हाँ कहा और कमरों में घुमकर आ गई। फिर कहा- बालकनी, फिर वहीं- हाँ और घूम-फिरकर वापस, फिर कहा- बालकनी, फिर वही- हाँ। हमें बड़ा मजा आया। आखिरकार मैं तूझे बालकनी में ले गया और बताया कि इसे बालकनी कहते हैं, तब भी वही सबकुछ जानने वाला 'हाँ", जैसे तुझे बालकनी पता थी।
एक बात और बहुत मजेदार लगती है तेरी! तुझसे पूछो कि कितने बजे हैं, जवाब- स्टाइल के साथ...पाँचऽऽऽ, कब जागी, पाँच... कितनी रोटी खाई, पाँच... हर सवाल में पाँच!
तेरी खम्माघणी करने की अदा पर जान लूटा देने का मन करता है। वो झुकना, प्यारे से हाथों को आपस में मिलाना... कितना सलोना है। हालाँकि कई बार तुझसे खम्माघणी करवाने को लेकर मैं विरोध भी झेल चुका हूँ कि बेटी को क्या बार-बार झुका रहे हो। अभी से उसे स्त्रीबोध क्यों करा रहे हो? पर, मैं तुझे जितना प्यार करता हूँ चाहता हूँ सब तुझे उतना ही चाहे... मेरी नजर में गरिमामय स्त्री थोड़ा सा झुककर दुनिया को कदमों में झुका सकती है।
तू बोलना सीखी तो मुझे भी 'मम्मा" ही बुलाती थी। यह अजीब लगेगा, लेकिन मुझे हल्का सा उस वक्त तेरी माँ सा अहसास होता था। अब कैसे, यह तो शायद मैं खुद न समझ पाऊँ!
एक बड़ी कार दुर्घटना भी मुझसे होते-होते बची। तब तू पीछे बैठी थी, लेकिन शायद तू समझ गई थी कि कुछ गड़बड़ है और चिल्लाई थी दाताऽऽऽ
स्टीयरिंग छोड़कर तुझे संभालू अचानक दिल ने यह कहा था। ...लेकिन उसी पल लगा कि मैं कार को पलटने से बचा सकता हूँ और हम बच गए। अब भी मुझे लगता है कि तेरे लिए बचा हूँ मैं!
बेबी, जब तुझे ये पत्र लिख रहा हूँ तो एक के बाद एक कितनी ही बातें और यादें तेजी से आ-जा रही है। उन भावनाओं को पेज पर उतारना नामुमकिन है।
तेरे किस...छुअन...मस्ती...खिलखिलाहट... नकली हँसी... नाराजी... मम्मा की दुमछल्ली बनना... नानी की गोद में जाकर हमें बाय कहकर टालना... अजीब सा फ्लाइंग किस... दादी का सिखाया गाना... ओए कहना... शादी करनी है मुझे... इस माँग के साथ मम्मा से फोन लगवाना... किससे? तो दाता से कहना...
ढेर सारा प्यार...

                                                                                                                      तेरे मम्मा-दाता


 

Friday, March 23, 2012

आई लव यू दाता...

एक बुजुर्ग की आँखों में
अकेलेपन की बूँदें छलकी देख
दिल बैठ-सा गया
कैसे भरूँ उनका वो सूना कोना
जहाँ कभी रहा करते थे 'अपने"
जिन्हें, जालिम वक्त ने
एक-एक कर चुरा लिया
जिसने ताउम्र का वचन दिया था कभी
वह अब यादों में ही निभा रही है साथ
टीस उठती है कहीं भीतर
आखिर क्यों मानते हैं हम
बेटियों को पराया धन
और, बेटा
जब दुनिया निन्यानवे के फेर में है
तो वह 'बेचारा" क्या करे?
भाई-भतिजों को कैसे दोष दिया जाए
सबकी अपनी दुनिया, अपने बंधन
उनके लिए
शायद कुछ नहीं कर सकता मैं
अनायास ही, मोबाइल पर
एक नंबर डायल हो आया
हैलो सुनते ही मैंने कहा
आई लव यू दाता (पापा)

Wednesday, March 21, 2012

तेरा-मैं!

नींव तक चला गया पानी
पैंबंद छत पर लगाता रह गया
जब धँस रही थी दीवारें
सामान समेटता रह गया
दिल पर लगा ज़ख्म
दर्द की दवा लेता रह गया
निकला था मीलों लंबे सफर को
बियाबान में भटकता रह गया
कई कयामतों से होकर गुजरा
मगर तेरे एक झोंके में बिखर कर रह गया
गलियों-गलियों खोजता रहा
जब मिली तू तो खुद को खोकर रह गया
शुक्र है खुदा का
जो कुछ हुआ, मेरे साथ हुआ
होश में लाने के लिए जब तूने छूआ

एक बार फिर
तेरा मैं होकर रह गया

Friday, March 9, 2012

वर्चूअल होली!

सारा-सारा दिन
हरा, नीला
पीला, गुलाबी गुलाल
मन में लिए घूमता रहा
जब-जब नजरों के सामने
पाया तुझको
जब्त किया खुदको
उस पल की ताक में
जो बस हमारा हो
यूँ ही बीत गया
होली का हर पहर
और, तू
दिन, दिन भर
बातों के रंग घोलती रही
मुझे सराबोर करती रही

Saturday, March 3, 2012

समझ!

तुम नहीं समझोगे मुझे
कहती है वो
झगड़ती भी है
बिन पानी मछली-सी
तड़पती भी है
लौट आती है जैसे
चिड़िया अपने नीड़ में
वैसे ही, मेरी बाहों में समाँ
कहती है वो
एक तुम ही तो हो
जो समझते हो मुझे

शोर

कैसे बयाँ करूँ तुझे
मैं हाल-ए-दिल
शोर में गुम है तू कहीं
और, मुझे इंतजार खामोशी का
की है, कईं बार
कोशिश मैंने
लेकर आया भी
कोलाहल से बाहर निकाल तुझे
तब न जाने कैसे
तेरे 'मौन" के शोर में
दब गई मेरी जुबाँ