Tuesday, August 27, 2013

दगाबाज...


रोज दिन, रात गुजरते हैं यूं
जैसे वक्त का डेरा हो मुंडेर पर मेरी
अरसा हुआ मुस्कुराए उसे
बस एकटक देखता है सूरत मेरी
यकिं हो चला अब मुझे
कि न बदलेगा ये कभी
ये मेहरबां न हो तो क्या
साथ तो न छोड़ेगा ये कभी
तभी एक सुबह ऐसी आई
जब आंखें खुली 
मुंडेर मेरी सूनी मिली
और, वक्त के निशां
चेहरे पर छूटे मिले

Tuesday, August 13, 2013

तू इंसाफ कर...


खामोशी का खंजर 
जा धंसा है कुछ
इस कदर गहरे अंदर 
कि अब मेरा रकीब भी
पराया सा आता है नजर
सोचा था छोड़ दूं
वक्त के हवाले
पर कमबख्त 
वह भी मेरा ना रहा
कभी किया करता था 
घंटों खुद से ही बातें
अब मेरी आवाज ही
लगती है मुझे बेगानी
यार भी मेरे 
करते हैं सवाल
कई बार सोचा मैंने
क्यों न बता दूं उन्हें
तेरे घर का पता
पर डरता हूं 
कहीं वे देख ना ले
वो जो कोने में पड़ा 
दिल मेरा
फिर किसे, कैसे समझाऊंगा 
दोष नहीं है ये तेरा
ये राह चुनी है मैंने
तो गुनहगार भी मैं
तलबगार भी मैं
रहम कर एक बार
तेरे खिदमतगार पर
तिल-तिल मौत न दे
एक झटके में 'ना" कहकर
मेरी हंसीं मौत की
कहानी तू तैयार कर
एक बार ही सही
तू इंसाफ कर
तू इंसाफ कर...

Thursday, August 8, 2013

दाता


अक्सर सोचता हूं
कुछ लिखूं आप पर
हर बार आ घेरता है 
भावनाओं का ज्वार
चित्र दर चित्र
कहानी दर कहानी
कई मंजर, कई खुशियां
इस कदर जकड़ लेती है
मैं कहीं डूब जाता हूं
आपके कपड़ों से आती 
उस गंध से
जब कभी में आपसे चिपट कर
सोया करता था बेखौफ
दुख है नहीं बन पाया 
एक उम्दा खिलाड़ी
पर, जिंदगी के खेल में
हार न मानना 
आपसे ही तो सीखा
डर की आंखों में झांकना
कभी हिम्मत न हारना
कोई भी दुख हो कमबख्त
एक नींद के बाद भूल जाना
दोस्तों का आखिरी दम तक
साथ निभाना
किसी की मदद में
कभी कदम न खिंचना
दूसरों के दुख के आगे
अपना दुख छोटा आंकना
जिंदादिल होकर 
बस आज में जीना
प्यार, दुश्मनी दोनों 
खुलकर निभाना
थोड़े कड़वे बोल
फक्कड़ी में भी मजे दिल खोल
सब आप ही से तो सीखा
पता है 
मेरी हंसी, आवाज
शक्ल, शरीर
कहां-कहां से 
निकल आते हो आप
कई बार लड़ता हूं 
नाराज भी होता हूं मैं
पर, बस चिंता है आपकी इसीलिए
दाता, जानता हूं 
कभी नहीं लिख पाऊंगा 
आप पर

Tuesday, August 6, 2013

बदलता वक्त


बारिश भी नहीं भीगाती 
न ही आता है 
शिशिर में तेरी कुरबत का ख्याल
तपन भी अब कहां वैसी
कि कंठ में आ जमे प्यास
जिंदगी की ट्रेन को 
देख रहा हूं छूटते
खिड़कियों, दरवाजों पर असंख्य हाथ 
थाम लेना चाहते हैं मुझे
पर अब, न दिल-न कदम
देते हैं मेरा साथ
हाड़-मांस का यह जिस्म
पता ही नहीं चला 
कब पत्थर में बदल गया

Monday, August 5, 2013

अकेलापन...


खलता है मुझे
मेरा ही साथ
नहीं थामना चाहता
अब मैं किसी का हाथ
शून्य मैं 
मुझमें शून्य
ना कुछ अच्छा
ना कुछ बुरा
अजीब है, भूल रहा हूं
भेद जय-पराजय में
संवेदनाओं के बीच
झूलता मैं संवेदनहीन
क्यों, कब, कैसे
हो गया अकेला
शायद, थोड़ा जल्द 
समझ गया मैं
आया था अकेला
जाना भी होता है अकेला