Tuesday, August 13, 2013

तू इंसाफ कर...


खामोशी का खंजर 
जा धंसा है कुछ
इस कदर गहरे अंदर 
कि अब मेरा रकीब भी
पराया सा आता है नजर
सोचा था छोड़ दूं
वक्त के हवाले
पर कमबख्त 
वह भी मेरा ना रहा
कभी किया करता था 
घंटों खुद से ही बातें
अब मेरी आवाज ही
लगती है मुझे बेगानी
यार भी मेरे 
करते हैं सवाल
कई बार सोचा मैंने
क्यों न बता दूं उन्हें
तेरे घर का पता
पर डरता हूं 
कहीं वे देख ना ले
वो जो कोने में पड़ा 
दिल मेरा
फिर किसे, कैसे समझाऊंगा 
दोष नहीं है ये तेरा
ये राह चुनी है मैंने
तो गुनहगार भी मैं
तलबगार भी मैं
रहम कर एक बार
तेरे खिदमतगार पर
तिल-तिल मौत न दे
एक झटके में 'ना" कहकर
मेरी हंसीं मौत की
कहानी तू तैयार कर
एक बार ही सही
तू इंसाफ कर
तू इंसाफ कर...

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