बारिश भी नहीं भीगाती न ही आता है शिशिर में तेरी कुरबत का ख्याल तपन भी अब कहां वैसी कि कंठ में आ जमे प्यास जिंदगी की ट्रेन को देख रहा हूं छूटते खिड़कियों, दरवाजों पर असंख्य हाथ थाम लेना चाहते हैं मुझे पर अब, न दिल-न कदम देते हैं मेरा साथ हाड़-मांस का यह जिस्म पता ही नहीं चला कब पत्थर में बदल गया
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