Saturday, May 7, 2011

मेरी भगवान!



शून्य, बस शून्य
सन्नााटा, घुप अंध्ोरा
चारों ओर समुद्र
इन सबमें डूबा मैं
फिर भी पल रहा था
तेजी से बढ़ रहा था
क्यों, कैसे
चमत्कार ही तो था
बस एक डोर के सहारे
जो शायद जुड़ी थी मेरे पेट से
और एक सिरा कहाँ था
मैंने टटोला भी
आँखें फाड़-फाड़
देखने की कोशिश भी की
अंध्ारे में कुछ नजर न आया
वह डोर मुझे सिंचती रही
बड़ा और बड़ा करती रही
नौ माह, हाँ नौ माह
मैं लिपटा रहा उस डोर से
मैं जान गया था
यही मुझे सिंच रही है अपने खून से
फिर मैंने यह भी जाना
यही है मेरी भगवान
अंध्ोरी खोह से जब मैं
बाहर आया, डरा हुआ था
खूब रोया-चिल्लाया भी
तब मैंने पहली बार देखा
मेरी डोर का रूप
कितनी खुबसूरत, सलोनी
उसने झट से मुझे सीने से चिपका लिया
मैं शांत, निश्चिंत, निडर हो
दुबक गया उसकी गोद
आज भी वही डोर मुझे सींच रही है।

 

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