Wednesday, March 30, 2011

चाहत...

हर रोज जाया हो रहा हूँ मैं
नकली नहीं खालिस सफलता चाहता हूँ मैं
अपने 'होने" को सार्थक करना चाहता हूँ मैं
मकसद से भटक गया हूँ मैं
अपनी नजरों में चढ़ना चाहता हूँ मैं
सबको अपना बनाना चाहता हूँ मैं
भीड़ में भी तन्हा रहना चाहता हूँ मैं
अपनी ही आग में भस्म होना चाहता हूँ मैं
कई बार जीत में भी हार पाता हूँ मैं
रोज जीये जा रहा हूँ मर-मर कर
अब जुनून में जीना चाहता हूँ मैं
घूम रहे हैं कई व्याकुल
उनके लिए कुछ करना चाहता हूँ मैं
खुद में ही और गहरे
और गहरे उतर जाना चाहता हूँ मैं
प्रेम में तरबतर होकर भी
सूखा रहना चाहता हूँ मैं
भूल गया हूँ अपना बचपन
एक बार बच्चा बनाना चाहता हूँ मैं
कहीं बिछड़ गए हैं दोस्त सारे
एक-एक को ढूँढना चाहता हूँ मैं
वजूद के भ्रम में भी देखा जी कर
अब इसे तोड़ना चाहता हूँ मैं
रोज टटोलता हूँ धड़कनों को
मौत को भी छूकर देखना चाहता हूँ मैं






 

1 comment:

  1. i dint like it much... but the last six lines took my heart away....!

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