Monday, January 16, 2012

मेरी राह!

 
एक पगडंडी
जो मुझे लुभाती रही है
छोर पर खड़ा हो
निहारा करता हूँ उसे
मोड़, कई मोड़
पेड़ों की घनी छाँह
हरी दूब
चाहता हूँ दौड़ना
देखना चाहता हूँ
उसका अंतिम
बढ़ाए भी कदम
कुछ पदचिन्ह देख
फिर, रोक लिए
अब नहीं लुभाती 'वो"
उतरा हूँ अब
मैं भी बियाबान में
चुभते काँटों
झंखाड़ के बीच
'नई" लुभावनी राह बनाने
 

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