Saturday, January 28, 2012

'तिलचट्टा"

जन्म से लेकर मौत तक
सजा है बाजार
जहाँ जिस्म से लेकर
वैभव तक होती है नुमाईश
कभी खुद इंसान बनता है वस्तु
कभी वस्तु हो जाती है इंसान से बढ़कर
कुछ बिकते हैं सरे बाजार
कुछ की लगती है बंद कमरों में बोली
हाँ, इस दौर में भी
कहीं-कहीं
इंसानों की तरह दिखता
एक 'इंसान" नजर आ जाता है
वह टूट जाता है, झुकता नहीं
एक नष्ट होता, दूसरा भी आ जाता
किसी 'तिलचट्टे" के समान
पता नहीं कैसे?
अनंतकाल से अब तक
है उसका वजूद
वह खुद को कहता है 'स्वाभिमानी"
पर, वह किसी काम का नहीं
परिवार, रिश्तेदार, दोस्त, पड़ोसी
सब रहते हैं उससे परेशान
लेकिन, वह जीता जाता है
यही सोचकर
शायद, वह देश, समाज
परिवार के कभी काम आ सके
 

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