Thursday, June 23, 2011

फिर पूछो ना क्या हुआ!



वह शाम
कुछ नशे में थी
थोड़ी उनींदी, थोड़ी जागी
आँखें मसलते हुए
मोड़ पर उसने देखा
और शरारत से मुस्कुरायी
बदली को इशारा कर
उसने इक बात बताई
फिर उस मोड़ पर
बूँदों की यूँ ध्ाार गिराई
बचते-बचाते भी कुछ बदन
भीगे, कुछ हुए तरबतर
बात यहीं खत्म कर देती
वह तो खैर थी
पर आज नशे की खुमारी में
वह कुछ गजब ही कर गयी
हवा के कानों में भी
वह कुछ गुनगुनायी
मद्धम झोकों ने
इक मदहोश लीला रचायी
तरबतर जिस्मों के नैन मिले
दो दिल जो कुछ देर पहले
कुछ और बुन रहे थे
अब मोड़ से वे 'एक राह" चले


 

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