Tuesday, June 7, 2011

उदासी की किरचें!



खिड़की के बाहर देखा तो पाया उदासी ओढ़े शाम खड़ी है। मुझे आश्चर्य हुआ! यह कैसे समझ जाती है कि मेरा दिल आज फोड़ा बना हुआ है। जब भी मैं पूरा दिल बनता हूँ, अक्सर शाम मेरे साथ आ चिपकती है। कभी-कभी मुझे उससे चिढ़-सी होने लगती है, जबकि हर बार वह मुझे अपने आगोश में ले समझाती ही है कि तू क्यूँ बेचैन हो जाता है? देख जब भी तू अकेला होता है, मैं हमेशा तेरे साथ खड़ी मिलती हूँ। तेरी डाँट भी सुनती हूँ, फिर भी ढीठ हो वह सब देखती हूँ, महसूसती हूँ। जो दर्द तू लादे-लादे घूमता फिरता है, उसे कुछ समय के लिए ही सही मैं अपने सिर भी तो लेती हूँ। यह मेरी मजबूरी है कि रात घिरते ही मुझे जाना होता है और वैसे भी तू अकेला मुझे मिलता भी तो कभी-कभी ही है। उसमें भी तू मुझे कहाँ याद करता है, जब भी मुझे लगता है ये बोझा किसी दिन तेरी जान न ले ले, मैं आ ध्ामकती हूँ। पर दिन-ब-दिन ये बोझा बढ़ता जा रहा है। तू क्यों करता है ऐसा?
वह मेरी तरफ कुछ देर देखती रही। शायद उसे जवाब का इंतजार था, लेकिन मेरे पास जवाब होता तो देता। मैं उसे नजरअंदाज कर आसमान की ओर देखने लगा।
थोड़ा रूककर वह अपना मूड बदलकर बोली-देख आज तो तेरी बेचैनी मुझसे बर्दाश्त नहीं हुई और मैं अपने साथ अपनी दोस्त बदली को भी ले आई हूँ। शायद तेरा मन कुछ हल्का हो जाए।
मुझे अनमने ढंग से न चाहते हुए भी उसे देखना पड़ा। पास भी एक काली-चिट्टी बिखरे बालों वाली गंदी सी लड़की खड़ी नजर आई।
मैंने पूछा- अक्सर तू मुझसे बिना पूछे मेरे पास आ खड़ी होती है, इतना तो ठीक है। पर यह तो हद है कि अब मेरी तकलिफ की जग हँसाई कराने के लिए अपने साथ और लोगों को भी लेकर आने लगी है। क्यों करती है तू ऐसा?
मेरी बात सुन उसका चेहरा मुरझा गया। मुझे भी उसको यूँ झिड़क देना ठीक नहीं लगा, पर मैं उस वक्त भरा हुआ था... और वह लड़की तो अब भी गोल-गोल आँखों से मुझे घूरे जा रही थी। पता नहीं क्यों उसे देखते ही मेरे दिल में जो सहानुभूति जागी थी, गायब हो गई।
मैं गुस्से से बोला- यार प्लीज! अकेला छोड़ दो मुझे। मैंने बहुत बड़ी भूल की कि मैं खुद को ढूँढने यहाँ खिड़की तक चला आया। तूझे यह मुगालता क्यों है कि तू मेरी परेशानियों को बाँट कर कम करती है। माना कि तेरे आने से खालीपन कुछ कम होता है, पर मैंने तो कभी तूझे नहीं बुलाया। ना ही मैं किसी को यह इजाजत देता हूँ कि वह मेरी जिंदगी में ताक-झाँक करें और बाद में यह दावा करे कि मैं दर्द कम करने की दवा हूँ।
हालाँकि यह बात मैं गुस्से में कह तो गया पर क्या मैं नहीं जानता कि कितनी ही बार यूँ ही इस शाम के साथ पीठ सटाए में बैठा रहा हूँ। कई बार हम लंबी दूर हाथ पकड़े सैर पर निकले और मैं उसके सामने खुलता चला गया। वह मेरी हर बात तो जानती है। वह नहीं जानती कि मैं कितने समय से यूँ ही बेचैन हो भटक रहा हूँ? वह यह भी तो जानती है कि मेरी प्यास का मुझे ही तो पता नहीं है कि ये कभी पूरी होगी? कभी किस्मत मुझ पर मेहरबान होगी? क्या मेरी तकदीर में बेचैनी ही बदी है? सब...सब... उसे पता है। सारे प्रश्न तो वह जानती है। हाँ, जवाब... वह तो मैं खुद खोज रहा हूँ। भटकाव की वजह मैं खुद हूँ पर यह भटकाव क्यों? इसका जवाब हम दोनों ही खोज रहे हैं। पर हम दोनों ही तो जानते हैं- प्याज के छिलकों की तरह दिल की परतें निकालते जाओ तो अंत में हाथ कुछ नहीं लगता। सिवाय दर्द के...
दोनों जानते है वह नहीं आएगी। वह कहीं और है! ...लेकिन यह सिर्फ मैं जानता हूँ कि जब भी यह शाम मेरे पास आती है, यह उससे मिलकर आई होती है। मैंने शाम को कभी नहीं बताया कि जब भी तू आती है, मुझे अच्छा तो लगता है। दर्द कुछ कम तो होता है, पर जब तू लौटने लगती है तो तेरी शाल में जिससे तू मिलकर आई होती है वहाँ की उदासी की कुछ किरचे नजर आ जाती है।
मैंने जब उन्हे देखा तो वे दोनों मुझे घूर रही थी। मुझे लगा उन्हे बेहद बुरा लगा है। मैं खिड़की से हटने लगा तो शाम बोली शायद आज तू बात करने के मूड में नहीं है। कोई बात नहीं कल आकर तूझसे बात करती हूँ। रात घिरने को है, मुझे जाना है। जैसे ही वो पलटी फिर मुझे किरचें नजर आई, लेकिन इस बार मैंने ही नहीं उस काली बदली ने भी यह देख लिया।
वह शाम के साथ जाने को थी, लेकिन वह ठिठक गई और बोली तू जा। मुझे यहीं रूकना है। शाम गुस्से से भरी थी, वह पैर पटकते हुए जाने लगी। मैं और बदली उसे दूर तक देखते रहे। ध्ाीरे-ध्ाीरे वह रात में कहीं गुम हो गई। न जाने क्यों मुझे रुलाई फूट पड़ी। शायद हर बार मैं अकेला होता था, इसलिए दर्द को जज्ब कर लिया करता था। ...लेकिन मेरी यह चोरी पकड़ी गई थी।
मेरे आँसूओं को देख बदली से रहा नहीं गया। उसने मुझे जकड़ लिया। वह जान गई थी मेरे दर्द की किरचों को! मेरे आँसूओं से मैं कभी तरबतर नहीं हुआ या लोगों को नजर न आए जाए दर्द की लकीरें इसलिए मैं हमेशा बंध्ाा रहता था। पर आज मुझे जकड़े हुए वह बदली भी झरने लगी थी। मैं तरबतर था, दिल हल्का हुआ या भारी ही था पता नहीं। बस...हम दोनों झर रहे थे और एक दर्द की ध्ाार जमीं पर सरक रही थी।



 

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