Monday, April 23, 2012

जिंदगी बनिये की दुकान!

काश की जिंदगी
बनिये की दुकान न हो
दो ग्राम खुशी
दस ग्राम रोना न हो
खुद से उम्मीदों का बोझ
अपनों से फायदे की आस न हो
जीत क्या, हार क्या
तेरा-मेरा वाली बात न हो
काश की जिंदगी
बनिये की दुकान न हो
जानता हूँ
हर कोई तौलता है
नफे-नुकसान के तराजू में
बस बातें ही होती है दिल की
हमेशा चलता दिमाग है
अक्लवालों की इस दुनिया में
इस हद तक रिस गया व्यापार
हर रिश्ते की है कीमत
हर संबंध का कोई खरीदार
कहीं सुना है
प्रेम में नहीं होताकोई हिसाब
पर, वहाँ भी तो चलता
मेरा ज्यादा, तेरा कम
कोई तो होगा ऐसा
जो नुकसानी का सौदा करे
और, फिर कभी मेरा मौलभाव न करे
काश की जिंदगी
बनिये की दुकान न हो 
 

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