Tuesday, February 4, 2014

निराशा...


जब निराश होता हूं
चाहता हूं थामे हाथ कोई
बातें करें मुझसे मेरी
देखे अंदर झांककर
अंधेरे में चिंगारी सुलगाये
बालों को सुलझाती ऊंगलियां
दिल की गुत्थियां सुलझाये
मौन की भाषा से
ढेरों बातें करता जाए
भीतर उठे लपटें तो
प्यार की बारिश कर जाए
हताशा के काले बादलों में
मेरा साया बन जाए
अकेले में भी
साथ की उम्मीद जगा जाए
लेकिन, जब निराश होता हूं
साथ होती है बस निराशा
मेरी चाहत, कईं-कईं बार
मेरे ही हाथों डूबी है
मेरी ही निराशा में
और मैं
अभिशप्त हूं
ऐसे ही उसे डूबकर
हर बार
मरते देखने के लिए

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