Thursday, July 14, 2011

महक...




अक्सर देखता हूँ
तुझे मुरझाते हुए
तब सोचता हूँ
तू क्यूँ नहीं बनी प्लास्टिक से
हर वक्त खिली रहती
नकली गुलाब-सी
पर जैसे-ही तेरे
आंचल में सिमटता हूँ
एक महक कर देती
है इस कदर मदहोश
जुट जाता हूँ
तुझे सिंचने में
फिर हौले-से खिल उठती है
तेरी मुरझायी पंखुड़ियाँ
तब भी मैं बैचेन हो
सोचता हूँ- बस ये पल
यहीं, बस यहीं थम जाए

 

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