Monday, May 30, 2011

जागती नींद!



मेरी नींद
खुलने के बाद भी नहीं खुलती
हाँ, आँखें खुल जाती है
मेरा ईमान
पुतलियों में बसता है, पर रोशन नहीं
हाँ, वह बेईमान हो गया है
मेरा ध्ार्म
सोता है पर हड़बड़ा उठता है
हाँ, पर अध्ार्मी हो गया है
मेरा विवेक
आँखें मूँदे करता है सोने का ढोंग
हाँ, वह अविवेकी हो गया है
मेरी संवेदनाएँ
गहरी नींद होती है, जागती ही नहीं
हाँ, वे संवेदनशून्य हो गई हैं
मेरा जमीर
सोया रहता है पर जागता दिखता है
हाँ, वो मर गया है
और... मेरी अंतरआत्मा...
वो कभी नहीं सोती
न करती है ढोंग
न ही हड़बड़ाती है
वह सब-सब देख सकती है
पर अब वह गूंगी-बहरी है



 

Sunday, May 29, 2011

मेरी जान...!



आज सुबह बड़ी जल्दी आई या सारी रात करवटों में बीती, पता नहीं। ...पर हाँ यह रोज की खिली-खिली, मतवाली और शरारती सुबह तो नहीं थी। अजीब सी, जैसे सूरज को आज निकलने के लिए जबरदस्ती भेजा गया हो कि जाओ लोगों को जगाने का समय हो गया। सूरज उबासी लेता हुआ मुझे मिला। पक्षी भी बड़े अनमने ढंग से पंख पसारते मिले। उनकी आवाजों में रोज की ताजी चहचहाहट नहीं थी। वे भी बस फॉर्मलिटी कर रहे थे।
इतनी बेमजा और बुझी सुबह मैंने अपने जीवन में कभी नहीं देखी। हॉकर भी उनिंदा सा अखबारों का पुलिंदा मेरे आंगन में फेंक चुका था। मैंने अनमने ढंग से उनको टटोला। आँखें फाड़-फाड़ कर इनमें ताजगी खंगालने की कोशिश की... पर यहाँ भी सब कुछ बासी-बासी, बुझा-बुझा।
पड़ोसियों के सुबह-सुबह खिले दिखने वाले चेहरे भी बेरौनक नजर आए। वे भी व्यस्त दिखे, जबकि हमारा दरवाजा खुलते ही उनकी आँखों की चमक देखते ही बनती रही है। एक-दूसरे को देख फिकी मुस्कान फेंक हम अपने-अपने काम में लग गए।
क्या हो गया है आज? खैर मैंने इंटरनेट पर अपनी पसंद के गाने लगाकर खुद में जोश भरने की कोशिश की। थोड़ी देर में गाने भी मुझे पकाने लगे। हद हो गई ये तो! क्या हो गया है मुझे और सारी कायनात को। कुछ भी आज साथ नहीं दे रहा। सभी नाराज, निराश और दुखी नजर आए। सोचा क्यों ना कार, बाइक ध्ाोकर कुछ देर समय बिताया जाए। बाल्टी उठाई और कपड़ा लेकर सफाई में जुटा ही था कि लगा जैसे ये भी नहाना नहीं चाहते। मैंने कहा- रहने दो यार, जब इनकी ही इच्छा नहीं है तो मुझे क्या!
9 जैसे-तैसे बजे, बाई आई तो उसने भी नजरों से घर को टटोला। जो हमेशा बक-बक कर दिमाग खा जाती है, आज कुछ नहीं बोली। झाड़ू, पोछा और बर्तन साफ कर वह यह जा-वह जा। अब चिढ़ सी हो गई इस सुबह से। गुस्से में घर का दरवाजा बंद किया और सोचा शायद ढंग से नींद नहीं आने के कारण ऐसा है। सो कूलर फिर से ऑन किया और आँखें मूँदे लेट गया। कब झपकी लगी पता नहीं... पर एक छूअन का अहसास हुआ। गोल चेहरा, गंजी खोपड़ी, शरारती आँखें, छोटे-छोटे हाथ-पैर, गोलू से गाल, खिली मुस्कुराहट! नजर आई मेरी बेटी... मेरी जान...!
आँखें खुलते ही मेरा चेहरा खिल गया। माँ के साथ मेरी बेटी दो-चार दिन मुझसे दूर क्या है, लगता है शरीर की ऊर्जा जैसे किसी ने सोख ली हो और पूरी दुनिया घोर निराशा में डूब गई हो।
शुक्रिया बेटी... मेरी जिंदगी में आने के लिए... मुझे इंतजार है!


 

Saturday, May 28, 2011

तू जोड़ ले मुझे!





जिंदगी के फैसले यूँ नहीं होते
सब तेरा ही तेरा
कुछ मेरा भी तो जोड़ इसमें
फासले और बढ़ेंगे
ये तू क्यूँ नहीं समझती
कुछ कदम तू भी तो जोड़ इसमें
हर बार 'मैं" में रहती
फिर खुद से ही लड़ती
एक बार 'हम" भी तो जोड़ इसमें
चली जा रही है यूँ अकेली
कैसे सुलझेगी जीवन की ये पहेली
मेरे आहटों को भी तो जोड़ इसमें
आईना कहता है
ये चेहरा है बड़ा खुबसूरत
पर एक मुस्कान भी तो जोड़ इसमें
मुझे पता है, कसेली है ये जिंदगी
थोड़ा दूध्ा है, थोड़ा पानी
दो चम्मच 'प्यार" की चीनी तो डाल इसमें













Friday, May 27, 2011

उसका साथ!

गहरे, और गहरे
जा ध्ाँसा दिल की गहराईयों में
पता नहीं क्यूँ आज
सन्नााटा, अंध्ोरा था वहाँ
कहाँ गई वह चकाचौंध्ा
वह रोशनी, उजलापन?
यहाँ आया भी वर्षों बाद था
क्या कुछ नहीं बदला
सच, झूट में
प्यार, सुविध्ाा में
ईमान, फरेब में
खुबसूरती, दिलफरेबी में
साफगोई, चापलूसी में
स्वाभिमान, घमंड में
मेहनत, भ्रष्टाचार में
सदाचार, अनाचार में
फिर भी, फिर भी
उजाड़, विरान दिल में
दूर कुछ हल्की रोशनी नजर आई
मैं बदहवास हो दौड़ा उस ओर
देखा राख के ढेर में कोई
बैठी है चकमक पत्थर ले
सुलगाना चाहती है लौ
वह थक चुकी है
पर हारी नहीं
मुझे देख वह आ चिपटी
मेरी आँखों में झाँक बोली
चिंता ना कर- मैं हूँ ना साथ!








 

Monday, May 23, 2011

बासंती मुस्कुराहट!



सुना है
कभी वह मुस्कुराती भी थी
यह भी सुना है
वह बात बसंत की है
या उसकी मुस्कुराहट से ही
आती रही थी बासंती बहार
तब बोरा जाती थी प्रकृति
झूमने लगता था तन-मन
एक अजीब से खुमारी
बेकरारी के होते थे दिन
नई कोपलें शाखों पर
कुछ दिल से झाँकती थी
नशा... नशा... बस नशा...
अब, पता नहीं क्यूँ
गुम है कहीं
मुस्कुराहट, बसंत और मैं!





 

Saturday, May 21, 2011

तुझे मैं पी रहा हूँ!



जहर, नशा
सुरूर, मदहोशी
खुमारी, मर्ज
खुशबू, प्यास
तड़प, आदत
जुनून, पागलपन
उम्मीद, रोशनी
बेचैनी, बेकरारी
इंतजार, सफलता
विचार, ख्वाब

गीत, संगीत
कहानी, कविता
सब...सब...
जी रहा हूँ
हर दिन, हर पल
तुझे मैं पी रहा हूँ!

 

Friday, May 20, 2011

फिर क्यूँ...



आज शाम पता नहीं क्यूँ
उदासी ओड़े आई
शायद द्वंद था मन में
सूरज का साथ दूँ
या चाँद को थाम लूँ
कितना अजीब है
जानती है वह
फिर भी मानती नहीं
उसके बस में कुछ नहीं
कल फिर सूरज आएगा
जो शाम चाँदनी में घुल चुकी है
उसे वह छाँट कर
अपने में मिला ले जाएगा
खुद के तेज से वह
शाम तक 'शाम" को सताएगा
फिर ध्ाीरे-ध्ाीरे चाँद
उसे अपने आगोश में ले जाएगा
जब यह नियति है तो
फिर कैसा द्वंद?
दुख आएगा तो तपाएगा ही
सुख की ठंडक में छोड़ भी तो जाएगा!



 

ऐसी हो तुम!


चंचल पहाड़ी नदी
यहाँ-वहाँ बल खाती
मचलती, झूमती
निडर हो चोटी से कूदती
पत्थरों का सीना चिरती
उफनती, शोर मचाती
आवेग में आँखे तरेरती
बादलों को चूमती
बियाबान में भटकती
डालियों से झूमती
मुलायम घास में सरसराती
पर जब पहुँचती
बस्ती के बीच
चुप, शांत, गंभीर हो
बस निर्मल जल से
सूखे कंठ तर करती
हाँ, बिल्कुल
ऐसी ही हो 'तुम"!



 

Thursday, May 19, 2011

सामंती सोच!



वह उकड़ू बैठा
कुछ सोच रहा था
मैं जानता था
मनोदशा, स्थिति
छोटा बेटा रोजी की खातिर
जिगर से दूर है
मझला दिमागी हालत
तो बड़ा शराब में लाचार है
एक-एक कर बिक
गए सारे बर्तन
बीवी निकली है
एक वक्त के आटे की जुगाड़ में
भूखे पेट काम कर
शरीर छोड़ रहा साथ
पूरे गाँव में अब उसे
कोई नहीं देता उध्ाार
जैसे ही मैं पास गया
आहट पा उसकी तंद्रा टूटी
उसके हाड़ में थोड़ा करंट आया
झट हाथ जोड़ उसने
छोटे मालिक के समक्ष शीश नवाया
तब एक सामंती सोच ने
उसकी ओर 50 का नोट बढ़ाया
वह बख्शीश ले घर की ओर दौड़ा
इध्ार मैं शान से, अपने ही हाथों
कर रहा था अपनी मूर्ति स्थापित!










 

Tuesday, May 17, 2011

तलहटी का कोना!



सब कुछ शांत
किसी झील की मानिंद
पता नहीं एक छोसा-सा
कंकड़ कहीं से उछला
समा गया
पानी में हल्की हलचल
स्पष्ट, तस्वीरें हिलीं
दूर तलक झीनी सी लहरें
फिर सब कुछ शांत
पंछी, पेड़ों, किनारों
आसपास को
नहीं चला कुछ पता
बस तलहटी में कहीं
जो बचा था एक कोना
वह अब नहीं रहा सूना!


 

Friday, May 13, 2011

उसके नाम जिंदगी...



मैंने जिंदगी की उसके नाम
वो लम्हों की खैरात देती रही
कई बार सोचा मैंने
क्यूँ करती है वो ऐसा?
शुरू से लेकर अंत तक
उन सारे लम्हों को टटोला
जिया था मैंने जिन्हे
अपना समझ, पूरी शिद्दत से
तब मैंने जाना
खैरात होती है सिर्फ
और सिर्फ गुजर के लिए
यह वो बख्शीश है
जो भरपूर उपयोग के बाद
बच गई होती है
जिसे किसी की झोली में
डाल भी दिया जाए
खजाने पर फर्क नहीं होता
नाम हो जाता सो अलग
अब कोई तो बताओ
खैरात पर कोई भला
जिंदगी नाम करता है?





 

ईमान का खून!



कई चेहरे देखे, कई जुबाँ सुनी
ईमान का जिक्र हर जगह पाया
जब निकला इसकी खोज में
मैं कहाँ-कहाँ नहीं भटका
अपने अंदर भी टटोला
जंगल, रेगिस्तान
गाँव, शहर सब छान मारे
निराश, हताश जब लौट रहा था
दूर आसमान में मंडराते दिखे कई गिद्ध
और नजरें दौड़ाई
भीषण गर्मी में बबूल के नीचे
एक महिला नजर आई
बिखरे बाल, कपड़े तार-तार
पास ही आँसूओं से तरबतर
पड़ा था एक कंकाल
मुझे देख वह बदहवास सी
आ चिपटी मुझसे
वह अब चीखे जा रही थी
तुम लौटा दो- मेरा ईमान
एक झटका लगा
जिसकी खोज में दर-दर भटका
क्या वह अब दुनिया में नहीं रहा
इसकी हत्या हुई या अपनी मौत मरा
कुछ सूझ नहीं रहा था
महिला चीखें जा रही थी
कंकाल देख लग रहा था
यह भूख, प्यास से खुद ही मरा
मुझे भी रुलाई फूट पड़ी
मैं भी विलाप करने लगा
पर मैं देखता हूँ
दोनों के हाथ रंगे थे
इतने में दूर एक हुजूम नजर आया
उनके कपड़े और हाथ दोनों रंगे थे!








 

Monday, May 9, 2011

'अफीम"



खुद को खत्म करना
कोई मुश्किल काम नहीं
बुजदिलों का काम है ऐसी खुदकुशी
इसमें वह मजा भी कहाँ?
चंद लम्हों में ही काम तमाम
आत्मा जब छोड़ देगी शरीर
फिर बचेगा ही क्या?
तो भला इस मौत में
वह रस रहा ही कहाँ?
जिंदगी से खुशियाँ चाहने वाले
ढूँढ ही लेते हैं रोज मौत के तरीके
मैंने भी अपने लिए
की है तिल-तिल मौत मुकर्रर
पल-पल दरकता हूँ
अब मैं रोज मरता हूँ
बदहवासी, उद्वेलन, विचलन
हताशा, निराशा, गम
वहम, नशा, दर्द
पागलपन और दीवानापन
इस मौत में रचे-बसे हैं
इस खुदकुशी का एक नाम भी है
जिसे दुनियादार 'प्यार" कहते हैं
और मैं कहता हूँ इसे 'अफीम"


 

Saturday, May 7, 2011

मेरी भगवान!



शून्य, बस शून्य
सन्नााटा, घुप अंध्ोरा
चारों ओर समुद्र
इन सबमें डूबा मैं
फिर भी पल रहा था
तेजी से बढ़ रहा था
क्यों, कैसे
चमत्कार ही तो था
बस एक डोर के सहारे
जो शायद जुड़ी थी मेरे पेट से
और एक सिरा कहाँ था
मैंने टटोला भी
आँखें फाड़-फाड़
देखने की कोशिश भी की
अंध्ारे में कुछ नजर न आया
वह डोर मुझे सिंचती रही
बड़ा और बड़ा करती रही
नौ माह, हाँ नौ माह
मैं लिपटा रहा उस डोर से
मैं जान गया था
यही मुझे सिंच रही है अपने खून से
फिर मैंने यह भी जाना
यही है मेरी भगवान
अंध्ोरी खोह से जब मैं
बाहर आया, डरा हुआ था
खूब रोया-चिल्लाया भी
तब मैंने पहली बार देखा
मेरी डोर का रूप
कितनी खुबसूरत, सलोनी
उसने झट से मुझे सीने से चिपका लिया
मैं शांत, निश्चिंत, निडर हो
दुबक गया उसकी गोद
आज भी वही डोर मुझे सींच रही है।

 

Friday, May 6, 2011

कसौटी!



हर बार यूँ न परख मुझे
तूझे यह देखना होगा
जब खुद को मैं झोंकता हूँ
सूर्ख हो चुकी भट्टी में
हर बार पिघलता हूँ
फिर लावा बन निकलता हूँ
तेरी कसौटी की जो बूँदें
मेरे तन को छूती हैं
वे राहत तो देती हैं
पर मैं छूट जाता हूँ अगढ़ा
फिर से मुझे ढलना होता है
तेरी पसंद के आकार में
पर तू यह नहीं जानती
हर बार अंदर कुछ तो बदलता है
पगली, फिर क्यूँ यूँ परखती है मुझे?





 

Sunday, May 1, 2011

थाम ली जिंदगी !



जब मैंने उसे छूकर देखा
वह चौंक गई
उसे कुछ पराया सा स्पर्श लगा
झील सी आँखों को
उसने और गहरा, फैला दिया
कठोर चेहरा कर
फिर न छूने की मौन चेतावनी भी दी
इस बार मैंने उसे छूआ नहीं
बल्कि जकड़ लिया
वह छटपटाई, कसमसाई
और ध्ाकियाते हुए चली गई
शायद वह घबराई हुई थी
या फिर डरी हुई, या दोनों
मुझे अपने दुस्साहस पर
गुस्सा भी आया, शर्म भी
मैं मनाने, समझाने
पीछे-पीछे भागा
खुब चिल्लाया
दहाड़े मार रोया भी
मैं उसे समझाना चाहता था
ऐ जिंदगी...
मैं तुझे देखना, छूना चाहता हूँ
मौत आने तक तुझे ही
बस तुझे ही गले लगाना चाहता हूँ
पर हाथ से छूट चुकी थी वह
मैं बदहवास, पागलों सा
यहाँ-वहाँ दौड़ रहा था
तभी मेरी नींद उचट गई
...और मैंने खुद को
जिंदगी के आगोश में पाया
फिर मैंने जिंदगी को
बहुत मजबूती से जकड़ लिया!