Wednesday, March 30, 2011

चाहत...

हर रोज जाया हो रहा हूँ मैं
नकली नहीं खालिस सफलता चाहता हूँ मैं
अपने 'होने" को सार्थक करना चाहता हूँ मैं
मकसद से भटक गया हूँ मैं
अपनी नजरों में चढ़ना चाहता हूँ मैं
सबको अपना बनाना चाहता हूँ मैं
भीड़ में भी तन्हा रहना चाहता हूँ मैं
अपनी ही आग में भस्म होना चाहता हूँ मैं
कई बार जीत में भी हार पाता हूँ मैं
रोज जीये जा रहा हूँ मर-मर कर
अब जुनून में जीना चाहता हूँ मैं
घूम रहे हैं कई व्याकुल
उनके लिए कुछ करना चाहता हूँ मैं
खुद में ही और गहरे
और गहरे उतर जाना चाहता हूँ मैं
प्रेम में तरबतर होकर भी
सूखा रहना चाहता हूँ मैं
भूल गया हूँ अपना बचपन
एक बार बच्चा बनाना चाहता हूँ मैं
कहीं बिछड़ गए हैं दोस्त सारे
एक-एक को ढूँढना चाहता हूँ मैं
वजूद के भ्रम में भी देखा जी कर
अब इसे तोड़ना चाहता हूँ मैं
रोज टटोलता हूँ धड़कनों को
मौत को भी छूकर देखना चाहता हूँ मैं






 

Monday, March 28, 2011

मेरे दिल की आवाज हो तुम!

तुम बताओ मैं कैसी हूँ
कई बार पूछती है वो
हर बार बताना चाहता हूँ
तुम एक दिलकश अहसास हो
बारिश की पहली बूँदों में
मिट्टी की नशीली खुशबू हो
रेगिस्तान की आग में
ठंडे पानी का सोता हो
दुनियावी चिंताओं के बीच में
मासूम बच्चे सी किलकारी हो
अमावस की अंध्ोरी रात में
पूनम सी शीतल चाँदनी हो
पथरीली-कंटीली राह में
घास की नर्म पगडंडी हो
झूठों की इस दुनिया में
एक नासमझ सच्चाई हो
भीषण सूखे के लंबे दौर में
पानी से भरी भटकी बदली हो
जिंदगी के दुखों में
खुशियों का इंद्रध्ानुष हो
तमाम चुनौतियों के बीच में
चट्टान का सीना चिर निकली कोपल हो
समुद्र की अथाह गहराई में
सीप से निकला मोती हो
थके मन-मस्तिष्क में
बहती मध्ाुर स्वर लहरी हो
भूखे भेड़ियों के जंगल में
प्यारी सी हिरणी हो
खून जमा देने वाली ठंड में
गुनगुनी अंगीठी हो
अब क्या-क्या बताऊँ तुम्हे
तुम फूलों की खुशबू हो
सुबह की पहली रश्मि हो
तेज उफनता झरना हो
मस्त पवन का झोंका हो
बया का प्यारा घोंसला हो
चूड़ियों की खनक हो
पायल की छम-छम हो
तुम अपना सा स्पर्श हो
अब तुम्हे मैं क्या कहूँ
तुम तो मेरे ही दिल की आवाज हो
तुम वो सारे अहसास हो
जो मै पल-पल जीता हूँ















 

Saturday, March 19, 2011

सहूलियत

कितनी आसानी से कह गई
अब नहीं थामा जाता हाथ
तेज झटका लगा, पूछा-क्यों?
वह निराश थी या फिर गंभीर
पता नहीं, पर वह कुछ बोली जरूर
मैं बड़बड़ाया- तुम डरो नहीं
यूँ बीच भँवर छोड़ना आसान नहीं
पर इस बार वह दृढ़ नजर आई
बोली- मैं तुम्हारी तरह साहसी नहीं
अब साथ मेरे बस की बात नहीं
मैं उसके शुष्क चेहरे को देख समझ गया
मेरी कीमत की एवज में उसने डर को चुना
या फिर इसी में 'सहूलियत" नजर आई
तभी तो जिंदगी का फैसला यूँ कर गई




 

Wednesday, March 16, 2011

ऐसा क्यूँ?



कई  बार शरीर होता है
दिल नहीं होता
कई बार दिल होता है
शरीर नहीं होता
कई बार दिल और शरीर होता है
'वह" नहीं होता
समझ नहीं आता, ऐसा क्यूँ होता
बस मेरे पास ही 'वह" नहीं होता
जो सिर्फ और सिर्फ मेरा होता।



 

Monday, March 14, 2011

सबसे अच्छा दोस्त...

वो कहती-तुम मेरे सबसे अच्छे दोस्त हो
ऐसे दोस्त जो हरदम मेरे साथ हो
मैं तब महज मुस्कुरा देता
तुम्हारे साथ चाय मजा देती है
तुम न हो तो दुनिया बेमजा होती है
तुम्हारे साथ सफर सुहाना होता है
तुम न हो तो भी तुम्हारा जिक्र होता है
तुम से बहस न हो तो नींद नहीं आती है
तुम बिन पिक्चर की कहानी अध्ाूरी लगती है
तुम्हारे साथ शॉपिंग की बात ही और होती है
मैं यह सब सुनकर भी मुस्करा देता
दिल की बात बताने का हौंसला कहाँ से लाता?
एक दिन हिम्मत करके हिम्मत जुटाई
मेरा हाल-ए-दिल सुन वह महज मुस्कुराई
इसके बाद हमारी बात कभी न हो पाई!







 

मेरे लिए...

तुम मुस्कुराते हुए अच्छे लगते हो
मेरे लिए हर वक्त मुस्कुराया करो
मैं कुछ भी करूँ, कुछ भी कहूँ
मैं बुरा बोलूँ या अच्छा कहूँ
तुमसे हर वक्त तकरार करूँ
तुम मुँह फुलाये अच्छे नहीं लगते हो
मेरे लिए तुम मुझसे यूँ रूठा न करो
मेरी उलझनों को क्यूँ नहीं समझते
उन्हे बढ़ने के लिए क्यूँ छोड़ देते
तुम दूर-दूर अच्छे नहीं लगते हो
मेरे लिए तुम मुझसे ही उलझा करो
कौन नहीं चाहता तुम्हारे संग भटकना
हाथों में हाथ लिए यूँ देर तक घूमना
तुम अकेले-अकेले अच्छे नहीं लगते हो
मेरे लिए तुम मुझे भी संग ले लिया करो
देखो रोज सिमट रही है जिंदगी
तुम्हे पड़ेगी ये दूरी बहुत महंगी
तुम यूँ जाया होते अच्छे नहीं लगते हो
मेरे लिए जिंदगी में मुझे भी शामिल किया करो
मेरे लिए तुम हर वक्त मुस्कुराया करो।












 

अरमानों का कत्लेआम!

खुश थी इक माँ, बेटा आएगा
पति भी काम से जल्द लौटेगा
बेटी-दामाद से घर महकेगा
बहू ने कर ली है सारी तैयारी
रात भर से लगी है बेचारी
नाती-पोतों की भी रहेगी किलकारी
किसे पता था, कौन जानता
किसी देश में यूँ प्रलय आएगा
भावनाओं, तमन्नााओं और
अरमानों का यूँ कत्लेआम हो जाएगा
मैं इतना बड़ा तो नहीं कि
दूँ ईश्वर के निर्णय को चुनौती
पर हे ईश्वर! इतना बता दूँ कि
तेरी माँ भी फूट-फूट रोयी होगी।







 

Saturday, March 12, 2011

क्यूँ छिनी यूँ जिंदगानी?

अभी-अभी ही तो वह कली से फूल बनी थी
अभी-अभी ही तो बसंती बयार चली थी
अभी-अभी ही तो भवंरों की ध्ाुन सुनी थी
अभी-अभी ही तो प्रेम अगन जगी थी
हाय अचानक क्या हुआ
बाग का फूल किसने चुराया
कमरे में उसे किसने सजाया
अपनों से पराया किसने बनाया
क्यों दे रहे हो इसे ये खाद-पानी
उसकी तो बसंती बयार में ही है जिंदगानी
हाय अब यह क्या कर डाला
इस हालत में फूल तो मुरझाना ही था
पर तुझे माली को तो नहीं मार डालना था











 

अहसान...


आजकल हम पर वह 'अहसान" करना भूल गई
पहले कई गुजारिश के बाद मिल लिया करती थी
कभी-कभी मुस्कराहट के फूल बिखेर दिया करती थी
बीमार होने पर हमारी खबर भी लिया करती थी
हमारे प्यार की गहराई जानने की कोशिश भी किया करती थी
हमसे दिन को भी रात बुलवाया करती थी
तारिफ सुनना हो तो चाय पर भी बुला लिया करती थी
झूठा ही सही प्यार निभाने का वादा भी कर दिया करती थी
फिर ऐसा क्या हुआ कि जो वह करती थी, अब नहीं करती
पता चला है आजकल उस पर कोई 'अहसान" करना भूल गया!







 

Friday, March 11, 2011

तूफान...


एक दिन आया बहुत तेज तूफान
बारिश का भी था जोरदार उफान 
मैंने देखा था वह तूफानी बवंडर
हर ओर नजर आ रहा था तबाही का मंजर
शाखों की क्या बिसात, जब पेड़ छोड़ चुके थे जड़ें
तिनके के मानिंद उड़ रहे थे कई घरोंदे बड़े-बड़े
क्या इंसान और क्या जानवर
सब थे बिल्कुल लाचार
चारों और मचा था हाहाकार
ऐसे में कहीं एक बदहवास-सी कोई
लगता था जैसे बरसों से नहीं सोई
आँखों में ज्वाला लिए देने लगी तूफान को चुनौती
कभी छप्पर को संभालती, कभी चौके तक दौड़ जाती
तूफान भी अपनी जिद पर अड़ा
लेकिन मासूम का हौंसला भी बड़ा
दोनों झुकने को नहीं थे तैयार
मेरा बस चलता तो मैं रोक लेता वह बवंडर
पर क्या करूँ मैं भी था दिल के हाथों मजबूर
क्योंकि जो तूफान था वह उमड़ा था मेरे दिल में
और घुस जाना चाहता था उसके दिल में
मासूम के दिल में थे कई घरोंदें
आखिर वह कैसे यूँ पार होने देती सारी हदें
उसने तूफान को भी यह अहसास कराया
फिर क्या था दोनों ने मिलकर एक नया घरोंदा बनाया
पर यह क्या, अब एक नहीं दो-दो जगह तूफान आया।



 

Thursday, March 10, 2011

बहुत बुरा...


मैं बुरा हूँ, और बुरा होता जा रहा हँू
कितनी मासूमियत से कह गया वो
सुना है किसी के इश्क में गाफिल है वो
दुनिया की तमाम बुराईयों से भी नावाकिफ है वो
हो सकता है इस इश्क में और भी मजबूरियाँ हो
कहीं दिल रोता हो और कहीं हंसता हो
पर बुरा होना या होते जाने का यह तो कारण नहीं
खुद को यूँ ही लहूलुहान करना इंसाफ तो नहीं
फिर वह क्या करे कि वो बुरा ना रहे
वह भी पहले की तरह उजला नजर आता रहे
हो सकता है एक दिन वह इश्क करना छोड़ दे
दामन पर लगे दाग के लिए दामन ही तार-तार कर दे
अब कौन उसे समझाए और कैसे?
इश्क में न कुछ भला होता है और ना ही बुरा
मजबूरियों में भी इश्क रहता है जवाँ
तुम मिट जाओगे पर नहीं मिटा पाओगे इश्क के निशाँ
तुम जितना बाहर आने के लिए छटपटाओगे
मेरे प्यारे, दिन-ब-दिन तुम इसमें डूबते ही जाओगे
अच्छे-बुरे के फेर से निकलकर तब तुम फखत इश्क कहलाओगे।




 

Tuesday, March 8, 2011

बख्शीश



मेरी एक दोस्त है 'उदासी"
बहुत प्यारी, मगर कुछ बदहवास-सी
मैं अक्सर उससे सटकर बैठ जाता हूँ
उसके लिए गीत भी गुनगुनाता हूँ
उसे बहलाता हूँ, फुसलाता हूँ
कभी-कभी उसकी गोदी में सिर रख मुस्कुराता हूँ
उसे खुशदिल करने के तमाम उपाय अपनाता हूँ
मेरे प्रयासों की बख्शीश में कभी-कभी दे जाती है वह
बस और बस एक फखत 'खिलखिलाहट"












Monday, March 7, 2011

जिंदगी ने तुम्हे चुना...


जिंदगी जब किसी के लिए खुशियाँ चुनती है   
तो वह अमीरी-गरीबी नहीं देखती
वह सूतर और सिरत भी नहीं देखती
वह नहीं समझती आस्तिक-नास्तिक का फर्क
न ही करती वह उसकी बदनामियों का जिक्र
वह न उम्र देखती है, न तर्जुबा ही देखती
तालिम भी नहीं देखती है, न गुण-अवगुण ही देखती
मैंने जिंदगी से कहा- तू बड़ी है जालिम
जब तूझे भेद करना ही नहीं आता
तो कैसे ढूँढती है तू उस दिल का पता?
जिंदगी बोली- किसने कहा मैं चुनती हूँ खुशियाँ
सच यह है जो चुनता है खुशियाँ, मैं उसे चुनती हूँ
मैंने तुम्हे भी इसलिए चुना, क्योंकि तुमने खुशियॉ को चुना।।

 

कब आएगा वह पल?


क्या हूँ मैं, क्यों हूँ मैं छिड़ा है द्वंद हर पल
हर चेहरा, हर किताब पढ़ डाली
अब कहाँ जाऊँ, क्या करूँ सोचूँ हर पल
मिल जाए मुझे वह जो इस मन में अटका
कैसे मिले, कौन लाए बेचैन हूँ हर पल
रूह में देखा उतकर, मिलों भी देखा चलकर
थक कर चूर शरीर की उलझन बढ़ रही हर पल
लगता है अब करार आएगा उस पल
जब शून्य में विलीन हो जाएँगे सारे पल






 

Sunday, March 6, 2011

मिलिये मेरी दोस्त 'युगंध्ारा" से


मेरी बेटी 'युगंध्ारा"। प्यारी, भोली और इन दिनों मेरी दोस्त! हाँ, वाकई वो मेरी सबसे अच्छी दोस्त बन गई है। मुझे नहीं पता कि मैंने सुबह कब देखी थी, लेकिन इन ग्यारह महिनों में लगभग रोज सुबह वह हमें जगा देती है। वो बोलना जानती तो कहती क्या दाता (पापा को हम यही कहते हैं) सुबह का वक्त रोज सोकर जाया कर देते हो! कभी तो चिड़ियों की चहचहाहट, बहकी हवा, मतवाले सूरज के बीच हॉकर और दूध्ावाले की आवाज का लुत्फ ले लिया करो। पता है मम्मा सुबह-सुबह रजनीगंध्ाा सी महकती और गुलाब सी खुबसूरत लगती है। यह सबकुछ वह बोलती नहीं, लेकिन बेटी ने यह महसूस करना मुझे सिखा दिया है।
पहले मैं रात में 3 बजे सोया करता था, अब भी सोते-सोते 2 तो बज ही जाते हैं। लेकिन पहले के सोने और अब के सोने में बहुत अंतर है। पहले एक बार जो सोये तो अगले दिन 10-11 तो बजना तय है, इस बीच मजाल की कोई जगा दे। ...लेकिन अब रात में मेरी दोस्त मुझे 2-3 बार तो जगा ही देती है। उसका फिर सोने का मुड नहीं हुआ तो उसके साथ खेलना और मस्ती भी करना पड़ता है। अब इसे कई मजबूरी कहेंगे, मगर मेरे लिए यह एक साध्ाना है और इसका मजा तो चखकर ही पता चल सकता है। रात-रात भर जागने से हम दोनों (पति-पत्नी) का सिर भारी रहता है, कई बार डिस्प्रीन भी लेना पड़ती है। नींद से बोझिल आँखें, सिरदर्द और थकान के बाद भी मेरी इस नन्ही दोस्त ने हमें मुस्कराना और जिंदगी के बेहतरीन लम्हे बटोरना सिखा ही दिया।
रोज सुबह 10 बजे मेरी पत्नी सोना नौकरी के लिए निकल जाती है। बेटी को रोज माँ का यूँ चले जाना खलता है। कभी-कभी वह रोने भी लगती है। माँ का हृदय व्याकुल भी होता है और मैं जैसे-जैसे अपनी बेटी को सीने से चिपका कर समझा देता हूँ कि माँ शाम को फिर तुझसे मिलेगी। बेटी को इंतजार करना होता है, शाम तक माँ का। मुझे लगता है यह नन्ही जान शायद इंतजार शब्द तो नहीं जानती है, लेकिन इंतजार की किमत इसे हमसे कहीं...कहीं... ज्यादा है! (जबकि इसे यह भी पता नहीं होता की माँ के लिए उसे कितना इंतजार करना होगा, वह माँ को रोज या हर घड़ी कमरे के कोनों में, खिड़की में, दरवाजों में ढूढँती भी होगी) इसने हमें इंसान और परिजनों की कद्र और किमत करना सीखा दिया, जो शायद हम जीवन की आपाध्ाापी में भूलते जा रहे थे। वैसे मुझे इंतजार करने से हमेशा ही सख्त कोफ्त रही है या शायद सभी को रहती हो। लेकिन जब बेटी को इंतजार करते देखता हूँ, तो लगता है इस समय का गला ही घोंट दूँ। यह इंतजार फिलहाल मुझे दर्द देता नजर आ रहा है। इस इंतजार ने मुझे उन पलों को और शिद्दत से जीना सिखा दिया, जो हम अपने 'अति" प्रिय के साथ जीते हैं। अब मैं ऐसे पलों में घुल जाता हूँ, मुझे वह समय तमाम दुनियावी प्रलोभनों से मुक्त रखने लगा है। मुझे नफरत हो गई है इंतजार से, मुझे प्यार हो गया है उस पल से जो पल मेरा है।
जैसे ही माँ नौकरी पर जाती है, बेटी का इरादा सोने का हो जाता है। उसे भी पता होता है कि अब जागने में कोई मजा नहीं है। थोड़ा सोकर फिर मस्ती के लिए जरूरी ताकत और ताजगी जुटा ली जाए। एक-डेढ़ घंटे मेरे घर में खामोशी आ पसरती है। मैं और खामोशी मिलकर बेटी को निहारते और दुलारते हैं। उसकी चेहरे के चढ़ते-उतरते भावों से यह जानने की कोशिश करते हैं कि उसके सपनों में क्या-क्या घट रहा होगा! उसकी जो नाजुक सी मुस्कान अभी आकर चली गई है, क्या उसमें उसने तितलियों के बाग की सैर की थी या परियों से मुलाकात! हमारी छूअन से कई बार वह आँखें खोलकर देखती है और करवट बदकर फिर सपनों की दुनिया में खो जाती है। यह वह वक्त है, जब खामोशी ने बड़ी खामोशी से मुझे यह सिखा दिया कि जिंदगी एक कोमल और खुबसूरत सपने की तरह भी हो सकती है, बस आपके सपने भी इक एक बरस की लड़की की तरह मासूम और 'पाक" होना चाहिए।
करीब 12 बजे वह जागती है। मुझे वह एक अलग ही भाषा में पुकारती है। मैं उसके पास पहुँचता हूँ, तो गालों और होठों पर गुलाबी सी मुस्कान लिए हुए वह होती है। मानो पूछती है- दाता आप अभी मेरे साथ बाग की सैर कर रहे थे और अब जागी हूँ तो इस कांक्रीट की दीवारों के बीच क्या कर रहे हो? हम खाना साथ खाते हैं और मैं जब एक-एक कोर उसके मुँह में देता हूँ, तो उस खाने का स्वाद उसकी आँखों में ढूँढने लग जाता हूँ। यह भी एक अजीब तृप्ति है, जब वह र्प्याप्त खा चुकी होती है तो मुझे लगता है मेरा पेट भर गया। कई बार जब वह चिढ़-चिढ़ करती है तो लगता है वह भूखी तो नहीं। इस दौरान कोशिश होने लगती है कि थोड़ा कुछ वह खा ले। बेटी ने मुझे 'भूख" का महत्व भी बता दिया। उसने यह समझा दिया कि 'दाता" को नाम का दाता नहीं होना चाहिए। उसे वाकई में 'देने वाला" बनना चाहिए।
मेरी इस नन्ही दोस्त के साथ मुझे भी नन्हा बनना पड़ता है। यदि आप बड़े बनकर इसके साथ कोई खेल में शामिल होना चाहते हो तो नामुमकिन है कि आप इसका दिल जीत पाओ। वह आपके साथ खेलना तो दूर आपको भाव भी नहीं देगी। यदि आपको उसके साथ खेलना है तो उससे भी छोटा बनना पड़ेगा। उसे आपको घुटनों के बल खड़ा रखवाना पसंद है तो ऐसा ही करना होगा। यदि वह चीजें बार-बार फेेकें तो आपको बार-बार उठाकर मुस्कराते हुए उसे देना होगी। यानि आपको तथाकथित 'बड़े" होने का गुरूर अपने ही हाथों डस्टबीन में डाल देना है, तभी तो आपका यह नन्हा दोस्त 'आपका" रहेगा। वर्ना यह पल भर में पराया कर देगा।
मेरी बेटी ने एक और अत्यंत प्यारे, मासूस और कोमल अहसास से परिचय कराया है। वह है अजनबी को अजनबी भले ही समझो, लेकिन उसे भी 'अपना" समझो। क्या हुआ भले उसकी शक्ल पहली बार देखी हो, क्या हुआ भले ही वह अमीर-गरीब हो, क्या हुआ भले ही वह वृद्ध हो, क्या हुआ भले ही वह निराश-हताश नजर आ रहा हो, क्या हुआ भले ही वह अपना दुश्मन क्यों न हो- बस आप उसकी ओर प्यार से 'मुस्करा" दीजिए और इस मुस्कराहट से उसे भी अपना बना लिजिए!
ऐसे अनेक सबक रोज मेरी यह नन्ही दोस्त मुझे दे रही है। शुक्रिया 'युगंध्ारा"।


 

Tuesday, March 1, 2011

जो डर गया-समझो मर गया


मेरा दोस्त कार चलाना सीख रहा था। कार चलाते समय वह अक्सर यह कहता- देखना एक दिन मैं एक्सीडेंट जरूर करूँगा। मैं हमेशा यह समझाता कि यार ऐसा कुछ नहीं होगा, बस तू अपना यह डर दिल से निकाल दे। ...लेकिन एक दिन अचानक बाईक वाला सामने आया और डर से उसने ब्रेक की बजाय एक्सीलेटर दबा दिया। वह तो गनीमत है कि समय पर मैंने इस्टीयरिंग घूमा दिया और कार बाईकवाले से न टकराते हुए डिवाइडर में जा घुसी। बाल-बाल बचे...! पर इस घटना के बाद मेरा उसकी ड्रायविंग पर से भरोसा उठ गया। भले ही अब वह अच्छी ड्रायविंग करता हो, लेकिन मेरी नजर में अब वह डरपोक ड्रायवर है, जो कभी भी दुर्घटना कर सकता है।
मेरी यह सोच है (हो सकता है आप इससे इत्फाक ना रखें) कि जो काम आप डर को साथ लेकर करते हैं, एक न एक दिन उसमें आप ही के कारण कुछ गड़बड़ जरूर होती है। इसी प्रकार का एक उदाहरण और है।
जब मैं 15-16 साल का रहा होऊँगा, उन दिनों मैं और मुझसे दो साल छोटा मेरा भाई व संगी-साथी गाँव के पास स्थित नदी पर नहाने जाया करते थे। नदी काफी चौड़ी और गहरी थी। एक दिन भाई को सूझी की दादा क्यों ना हम तैरकर नदी पार करें। मेरे सामने यह छोटे भाई का चैलेंज समान था। यदि ना करता तो भाई को लगता दादा डर गए हैं और हाँ में यह डर था कि यदि बीच में साँस टूट गई या थक गए तो मर जाएँगे। अंतत: अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बनी यह तैराकी शुरू हुई। मेरा भाई मेरी तुलना में मजबूत काठी का है। वह तैरे जा रहा था और मुझे डर लग रहा था कि आज तो जरूर डूब जाऊँगा। नदी के बीच में पहुँचते-पहुँचते मेरी हिम्मत लगभग जवाब दे गई। मैंने चिल्लाकर भाई को कहा- अब तैरा नहीं जाता, मैं डूब रहा हूँ। भाई बेचार घबरा गया! वो चिल्लाकर बोला-दादा मरवाओगे क्या! यहाँ तो मैं भी आपकी मदद नहीं कर सकता। हाथ चलाओ बस। कुछ भी मत सोचो।
पता नहीं उसकी बातों का असर रहा या इस सोच का कि अब डूबना तय है अंतिम कोशिश कर लेते हैं। हाथ-पैर जवाब दे चुके थे, लेकिन हिम्मत पता नहीं कहाँ से आ गई। पागलों की तरह तैरने लगा और अंतत: लग गया किनारे! बहुत देर तक किनारे पर पड़े रहा, फिर नदी को देखा। मेरे और भाई के चेहरे पर विजयी मुस्कान थी। हमने आज अपने गाँव ध्ातरावदा की कालीसिंध्ा नदी को जीत लिया था। बड़ा मजा आया। ...लेकिन इस जीत की खुशी ने क्या गजब काम किया कि इस बार हम आसानी से वापस अपने किनारे तैरकर पहुँच चुके थे। इसके बाद कितनी ही बार नदी को पार किया!
हाँ, हमने कभी बाढ़ में कालीसिंध्ा पार करने की कोशिश नहीं की। क्योंकि यह हम भी जानते हैं कि यह बेवकूफी भरा कदम होगा। एक कोल्डड्रिंक कंपनी के विज्ञापन की पंच लाइन है कि 'डर के आगे जीत है"। वाकई में यह काफी हद तक सटिक है कि जिसने डर से जीतना सीख लिया, जीतना वह अपने आप सीख जाएगा। हाँ...कुछ परिस्थितियाँ ऐसी भी होती है, जहाँ डर जरूरी है। जैसे सामने साँप आ जाए और आप बिना डरे उसने पकड़ने दौड़ पड़ें। यह आपको तय करना है कि किन परिस्थितियों में डरना चाहिए। कुछ स्थितियाँ ऐसी होती है, जब डर हमें विपदाओं के प्रति सचेत भी करता है।
...लेकिन कुछ डरपोक ऐसे भी हैैं, जो हवाई विपदाओं के कारण वर्तमान में घुले जीवन के रंगों को रंगहीन कर देते हैं। इन डरपोक लोगों के कारण उनके सगे-संबंध्ाी हमेशा परेशान रहते हैं। उनका अध्ािकांश समय यह समझाने में जाया हो जाता है कि यह डर की कोई वजह नहीं है। जो इंसान अपने मन में डर पाले रहता है, वह ध्ाीरे-ध्ाीरे वहमी भी होता जाता है। उसे यही लगता है कि उसका डर सही था या जरूर यह सही निकलेगा। यदि मौके से एक-दो घटनाएँ उनकी सोच के अनुसार हो गई तो समझो जीवन भर का झंझट। अब ऐसे डरपोक इंसान के पास खुदा भी आकर समझाए तो वह मानेगा नहीं।


- इंसान की हार का सबसे बड़ा कारण उसका 'डर" होता है।
-जिसने डर को जीत लिया, समझो उसे जीतना आ गया।
-डरपोक हमेशा हवा में विपरित परिस्थितियाँ बना लेता है।
-डर जीवन के रंगों को रंगहीन बना देता है।
-डरपोक के सगे-संबंध्ाी हमेशा पीड़ित रहते हैं।
-डर से दो कदम आगे ही आपको जीत मिलेगी।
-कहते हैं-हिम्मते मर्दां, मददे खुदा





 

ये है प्यार के पैग-तू पीये जा और जिये जा

                                                                                                                                                                        लोग बोलते हैं केवल शराब ही वह नशा है जो आदमी को बाह्यमुखी (एक्सट्रोवर्ड) बनाता है। बाकि के तमाम नशे जैसे चरस, गाँजा, भाग, हेरोइन आदि अंतरमुखी (इंट्रोवर्ड) नशे हैं। इसलिए शराब के शौकिन आपको हर कहीं मिल जाएँगे, क्योंकि इसमें यह सहूलियत मिल जाती है कि दो पैग अंदर गए नहीं कि इंसान खुलने लगता है। दिल की बात जबाँ पर और जबाँ से जग जाहिर होते देर नहीं लगती। इसलिए कई अपराध्ाों का खुलासा तो शराब के नशे में बदमाश कर बैठते हैं। फिर भी लोग शराब पीते हैं और पीकर अंदर के राज उगल भी देते हैं। लोग यह भी जानते हैं और मानते हैं कि शराब पीकर बहुत कुछ ऐसा कह जाएँगे जो नहीं कहना चाहिए। ...लेकिन वे पीयेंगे और पीने के बाद जी भरकर राज उगलेंगे भी।
यह तो हुए शराब महिमा, लेकिन मेरे प्यारे दोस्तों इस नशे से भी कहीं-कहीं बढ़कर एक बहुत ही खतरनाक और एक्ट्रोवर्ड कर देने वाला नशा है। और इस नशे को दुनिया 'प्यार", 'इश्क", 'मोहब्बत" आदि नामों से जानती है। इस नशे में इंसान को कुछ बोलने की जरूरत नहीं होती, वह जहाँ जाता है कस्तूरी मृग की तहर महकता रहता है। जैसे कस्तूरी मृग को पता नहीं होता है कि कस्तूरी उसकी नाभि में है, वैसे ही प्यार में पगलाए व्यक्ति को भी नहीं पता होता कि वह महक रहा है। ...लेकिन वह महक रहा होता है। आपने कई बार और कई बार नहीं तो एक आध्ा बार यह तो सुना होगा कि फलाँ कि आँख में फलाँ के लिए प्यार नजर आता है या फलाँ व्यक्ति फलाँ के घर के चक्कर काट रहा है। जब फलाँ की बातें कोई और फलाँ को पता चल रही है, तो बताइये कहाँ छुप पाया प्यार! लोग अक्सर प्यार को दबाने, छिपाने की बातें करते हैं। वो भी उन लोगों के सामने जिनको कई बार तो वे जानते भी नहीं है। अजनबी व्यक्ति भी यदि प्यार करने वालों को देखता है, तो उनके हावभाव से वे गड़बड़ा जाते हैं। और यहीं वे पकड़े जाते हैं।
शराब की अति बुरी नहीं महा बुरी होती है। लेकिन प्यार की अति कभी बुरी नहीं होती और यह बुरी हो भी नहीं सकती। प्यार में तब्दील इंसान के जेहन में हमेशा अपना साथी इस कदर छाया रहता है कि चौबीसों घंटे वह उसी के साथ जीता है। इसके बावजूद भी इसे प्यार की अति नहीं माना जाता है, क्योंकि प्रेम में डूबे व्यक्तियों को यह भी अपर्याप्त लगता है। मजा तो इसमें ही है कि सारी चिंता, फिकर छोड़ प्यार के पैग पर पैग मारे जाओ और जिंदगी के मजे और रंग में एकाकार होते जाओ।