आज शाम पता नहीं क्यूँ
उदासी ओड़े आई
शायद द्वंद था मन में
सूरज का साथ दूँ
या चाँद को थाम लूँ
कितना अजीब है
जानती है वह
फिर भी मानती नहीं
उसके बस में कुछ नहीं
कल फिर सूरज आएगा
जो शाम चाँदनी में घुल चुकी है
उसे वह छाँट कर
अपने में मिला ले जाएगा
खुद के तेज से वह
शाम तक 'शाम" को सताएगा
फिर ध्ाीरे-ध्ाीरे चाँद
उसे अपने आगोश में ले जाएगा
जब यह नियति है तो
फिर कैसा द्वंद?
दुख आएगा तो तपाएगा ही
सुख की ठंडक में छोड़ भी तो जाएगा!
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