हर बार यूँ न परख मुझे
तूझे यह देखना होगा
जब खुद को मैं झोंकता हूँ
सूर्ख हो चुकी भट्टी में
हर बार पिघलता हूँ
फिर लावा बन निकलता हूँ
तेरी कसौटी की जो बूँदें
मेरे तन को छूती हैं
वे राहत तो देती हैं
पर मैं छूट जाता हूँ अगढ़ा
फिर से मुझे ढलना होता है
तेरी पसंद के आकार में
पर तू यह नहीं जानती
हर बार अंदर कुछ तो बदलता है
पगली, फिर क्यूँ यूँ परखती है मुझे?
wah bahut khoob.
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