Saturday, March 19, 2011

सहूलियत

कितनी आसानी से कह गई
अब नहीं थामा जाता हाथ
तेज झटका लगा, पूछा-क्यों?
वह निराश थी या फिर गंभीर
पता नहीं, पर वह कुछ बोली जरूर
मैं बड़बड़ाया- तुम डरो नहीं
यूँ बीच भँवर छोड़ना आसान नहीं
पर इस बार वह दृढ़ नजर आई
बोली- मैं तुम्हारी तरह साहसी नहीं
अब साथ मेरे बस की बात नहीं
मैं उसके शुष्क चेहरे को देख समझ गया
मेरी कीमत की एवज में उसने डर को चुना
या फिर इसी में 'सहूलियत" नजर आई
तभी तो जिंदगी का फैसला यूँ कर गई




 

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