मैं बुरा हूँ, और बुरा होता जा रहा हँू
कितनी मासूमियत से कह गया वो
सुना है किसी के इश्क में गाफिल है वो
दुनिया की तमाम बुराईयों से भी नावाकिफ है वो
हो सकता है इस इश्क में और भी मजबूरियाँ हो
कहीं दिल रोता हो और कहीं हंसता हो
पर बुरा होना या होते जाने का यह तो कारण नहीं
खुद को यूँ ही लहूलुहान करना इंसाफ तो नहीं
फिर वह क्या करे कि वो बुरा ना रहे
वह भी पहले की तरह उजला नजर आता रहे
हो सकता है एक दिन वह इश्क करना छोड़ दे
दामन पर लगे दाग के लिए दामन ही तार-तार कर दे
अब कौन उसे समझाए और कैसे?
इश्क में न कुछ भला होता है और ना ही बुरा
मजबूरियों में भी इश्क रहता है जवाँ
तुम मिट जाओगे पर नहीं मिटा पाओगे इश्क के निशाँ
तुम जितना बाहर आने के लिए छटपटाओगे
मेरे प्यारे, दिन-ब-दिन तुम इसमें डूबते ही जाओगे
अच्छे-बुरे के फेर से निकलकर तब तुम फखत इश्क कहलाओगे।
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