मेरी बेटी 'युगंध्ारा"। प्यारी, भोली और इन दिनों मेरी दोस्त! हाँ, वाकई वो मेरी सबसे अच्छी दोस्त बन गई है। मुझे नहीं पता कि मैंने सुबह कब देखी थी, लेकिन इन ग्यारह महिनों में लगभग रोज सुबह वह हमें जगा देती है। वो बोलना जानती तो कहती क्या दाता (पापा को हम यही कहते हैं) सुबह का वक्त रोज सोकर जाया कर देते हो! कभी तो चिड़ियों की चहचहाहट, बहकी हवा, मतवाले सूरज के बीच हॉकर और दूध्ावाले की आवाज का लुत्फ ले लिया करो। पता है मम्मा सुबह-सुबह रजनीगंध्ाा सी महकती और गुलाब सी खुबसूरत लगती है। यह सबकुछ वह बोलती नहीं, लेकिन बेटी ने यह महसूस करना मुझे सिखा दिया है।
पहले मैं रात में 3 बजे सोया करता था, अब भी सोते-सोते 2 तो बज ही जाते हैं। लेकिन पहले के सोने और अब के सोने में बहुत अंतर है। पहले एक बार जो सोये तो अगले दिन 10-11 तो बजना तय है, इस बीच मजाल की कोई जगा दे। ...लेकिन अब रात में मेरी दोस्त मुझे 2-3 बार तो जगा ही देती है। उसका फिर सोने का मुड नहीं हुआ तो उसके साथ खेलना और मस्ती भी करना पड़ता है। अब इसे कई मजबूरी कहेंगे, मगर मेरे लिए यह एक साध्ाना है और इसका मजा तो चखकर ही पता चल सकता है। रात-रात भर जागने से हम दोनों (पति-पत्नी) का सिर भारी रहता है, कई बार डिस्प्रीन भी लेना पड़ती है। नींद से बोझिल आँखें, सिरदर्द और थकान के बाद भी मेरी इस नन्ही दोस्त ने हमें मुस्कराना और जिंदगी के बेहतरीन लम्हे बटोरना सिखा ही दिया।
रोज सुबह 10 बजे मेरी पत्नी सोना नौकरी के लिए निकल जाती है। बेटी को रोज माँ का यूँ चले जाना खलता है। कभी-कभी वह रोने भी लगती है। माँ का हृदय व्याकुल भी होता है और मैं जैसे-जैसे अपनी बेटी को सीने से चिपका कर समझा देता हूँ कि माँ शाम को फिर तुझसे मिलेगी। बेटी को इंतजार करना होता है, शाम तक माँ का। मुझे लगता है यह नन्ही जान शायद इंतजार शब्द तो नहीं जानती है, लेकिन इंतजार की किमत इसे हमसे कहीं...कहीं... ज्यादा है! (जबकि इसे यह भी पता नहीं होता की माँ के लिए उसे कितना इंतजार करना होगा, वह माँ को रोज या हर घड़ी कमरे के कोनों में, खिड़की में, दरवाजों में ढूढँती भी होगी) इसने हमें इंसान और परिजनों की कद्र और किमत करना सीखा दिया, जो शायद हम जीवन की आपाध्ाापी में भूलते जा रहे थे। वैसे मुझे इंतजार करने से हमेशा ही सख्त कोफ्त रही है या शायद सभी को रहती हो। लेकिन जब बेटी को इंतजार करते देखता हूँ, तो लगता है इस समय का गला ही घोंट दूँ। यह इंतजार फिलहाल मुझे दर्द देता नजर आ रहा है। इस इंतजार ने मुझे उन पलों को और शिद्दत से जीना सिखा दिया, जो हम अपने 'अति" प्रिय के साथ जीते हैं। अब मैं ऐसे पलों में घुल जाता हूँ, मुझे वह समय तमाम दुनियावी प्रलोभनों से मुक्त रखने लगा है। मुझे नफरत हो गई है इंतजार से, मुझे प्यार हो गया है उस पल से जो पल मेरा है।
जैसे ही माँ नौकरी पर जाती है, बेटी का इरादा सोने का हो जाता है। उसे भी पता होता है कि अब जागने में कोई मजा नहीं है। थोड़ा सोकर फिर मस्ती के लिए जरूरी ताकत और ताजगी जुटा ली जाए। एक-डेढ़ घंटे मेरे घर में खामोशी आ पसरती है। मैं और खामोशी मिलकर बेटी को निहारते और दुलारते हैं। उसकी चेहरे के चढ़ते-उतरते भावों से यह जानने की कोशिश करते हैं कि उसके सपनों में क्या-क्या घट रहा होगा! उसकी जो नाजुक सी मुस्कान अभी आकर चली गई है, क्या उसमें उसने तितलियों के बाग की सैर की थी या परियों से मुलाकात! हमारी छूअन से कई बार वह आँखें खोलकर देखती है और करवट बदकर फिर सपनों की दुनिया में खो जाती है। यह वह वक्त है, जब खामोशी ने बड़ी खामोशी से मुझे यह सिखा दिया कि जिंदगी एक कोमल और खुबसूरत सपने की तरह भी हो सकती है, बस आपके सपने भी इक एक बरस की लड़की की तरह मासूम और 'पाक" होना चाहिए।
करीब 12 बजे वह जागती है। मुझे वह एक अलग ही भाषा में पुकारती है। मैं उसके पास पहुँचता हूँ, तो गालों और होठों पर गुलाबी सी मुस्कान लिए हुए वह होती है। मानो पूछती है- दाता आप अभी मेरे साथ बाग की सैर कर रहे थे और अब जागी हूँ तो इस कांक्रीट की दीवारों के बीच क्या कर रहे हो? हम खाना साथ खाते हैं और मैं जब एक-एक कोर उसके मुँह में देता हूँ, तो उस खाने का स्वाद उसकी आँखों में ढूँढने लग जाता हूँ। यह भी एक अजीब तृप्ति है, जब वह र्प्याप्त खा चुकी होती है तो मुझे लगता है मेरा पेट भर गया। कई बार जब वह चिढ़-चिढ़ करती है तो लगता है वह भूखी तो नहीं। इस दौरान कोशिश होने लगती है कि थोड़ा कुछ वह खा ले। बेटी ने मुझे 'भूख" का महत्व भी बता दिया। उसने यह समझा दिया कि 'दाता" को नाम का दाता नहीं होना चाहिए। उसे वाकई में 'देने वाला" बनना चाहिए।
मेरी इस नन्ही दोस्त के साथ मुझे भी नन्हा बनना पड़ता है। यदि आप बड़े बनकर इसके साथ कोई खेल में शामिल होना चाहते हो तो नामुमकिन है कि आप इसका दिल जीत पाओ। वह आपके साथ खेलना तो दूर आपको भाव भी नहीं देगी। यदि आपको उसके साथ खेलना है तो उससे भी छोटा बनना पड़ेगा। उसे आपको घुटनों के बल खड़ा रखवाना पसंद है तो ऐसा ही करना होगा। यदि वह चीजें बार-बार फेेकें तो आपको बार-बार उठाकर मुस्कराते हुए उसे देना होगी। यानि आपको तथाकथित 'बड़े" होने का गुरूर अपने ही हाथों डस्टबीन में डाल देना है, तभी तो आपका यह नन्हा दोस्त 'आपका" रहेगा। वर्ना यह पल भर में पराया कर देगा।
मेरी बेटी ने एक और अत्यंत प्यारे, मासूस और कोमल अहसास से परिचय कराया है। वह है अजनबी को अजनबी भले ही समझो, लेकिन उसे भी 'अपना" समझो। क्या हुआ भले उसकी शक्ल पहली बार देखी हो, क्या हुआ भले ही वह अमीर-गरीब हो, क्या हुआ भले ही वह वृद्ध हो, क्या हुआ भले ही वह निराश-हताश नजर आ रहा हो, क्या हुआ भले ही वह अपना दुश्मन क्यों न हो- बस आप उसकी ओर प्यार से 'मुस्करा" दीजिए और इस मुस्कराहट से उसे भी अपना बना लिजिए!
ऐसे अनेक सबक रोज मेरी यह नन्ही दोस्त मुझे दे रही है। शुक्रिया 'युगंध्ारा"।
हाँ यह सारे एहसास मैं समझ सकती हूँ. चाहे बेटी न सही, पर एक नन्हा मुन्ना छोटा सा भैया राजा आया था मेरे पास. मैं कुछ दस साल की थी मगर समझती थी और बुझती थी की वो क्या सोचता होगा नींद में. कैसा लगता होगा उसको मम्मी के लिए इंतज़ार करना. क्या उसकी बेकरारी मुझ दस साल की बेकरारी से अलग होगी.
ReplyDeleteइस नन्ही सी दोस्त को बहोत संभाल कर रखियेगा, और यह हमेशा आपके जीवन में एक नए एहसास को लाएगी और आपके जीवन को महकाएगी.. कई नए रिश्ते जुड़ेंगे बस इसी एक तार से, और कई पुराने रिश्ते मेहेकेंगे इसी एक खुशबू से........
वैसे बहोत प्यारा इकह है आपने.... :)
इन लम्हों को अपने दिल में कैद कर लीजिये जब बिटिया बड़ी हो जाये तब इन क्षणों को हम तरस जाते हैं .......
ReplyDeleteमैंने इश्क में दीवानापन तो महसूस किया है...
ReplyDeleteलेकिन तुमने तो मुझे किसी ओर ही दुनिया की सैर करा दी...
बेटी घर को कैसे स्वर्ग बना देती है...तुमने आप मुझे भी महसूस करा दिया...मेरे ऊपर भगवान ने यह नियामत नहीं बरसाई (दो बेटे हैं), लेकिन छोटे भाई की बिटिया से मैं इस सुकून, इस सुख से भीग लेता हूं...वैसे तुम्हारी कलम बेहद सुकून भरी है...काश, यह लेखन बिटिया दिवस पर किसी अखबार में पढ्ने को मिलता...लोग घर में बिटिया होने और घर के स्वर्ग में ऎसी परी को महसूस कर पाते...