हर वक्त एक द्वंद चलता रहता है। शायद यह सबमें चलता होगा। कोई एक मैं ही नया नहीं हूं... हो सकता है सबको नजर भी आता हो... अपने मन में बहुत कुछ हर वक्त घटता सा। कई बार बड़ी-बड़ी घटनाएं सुनामी समान अंदर ही अंदर उठती है... बाहर एक दम सब शांत... किसी को कोई आभास नहीं... पर अंदर का आभास मुझे ही है... सब तबाह... सब... फिर नया होगा तबाही के बाद... एक उम्मीद... एक लाचारी... हार... संघर्ष... और वही रोशनी की ओर प्यासी सी दौड़। क्या बस इतनी-सी है ये जिंदगी।
प्यास इतनी बड़ी होती है... कि हर बार भी हारकर मैं उठ खड़ा होता हूं। शायद इस डर से भी कि कहीं यहीं प्यासा ना मर जाऊं... या फिर यही नियति है, जिसे मुझे चुनना ही है... कोई च्वाइस नहीं। च्वाइस तो होती ही कहां है, जिसके पास होती होगी... क्या उनके पास जिंदगी की चाह होती होगी? शक है मुझे, क्योंकि प्यास ही तो जिंदगी है... वह रोशनी ही तो है, जिसकी चाह में मैं अंधेरी टनल में यहां-वहां टकराते हुए भी घायल, परेशान, हताश होकर भटक रहा हूं।
मुझे मालूम है, इस जन्नात की हकीकत... रोशनी कभी किसी का इंतजार नहीं करती। वह मरीचिका है... जब जहां उजियारा, उस वक्त के लिए, बस उसी वक्त तक के लिए वह उसकी है... वरना तो बस भागना ही ही है अपनी प्यास के साथ... अंधों समान रोशनी की चाह...।
बाहर की सुनामी बरसों बरस में एक बार आया करती है, पर मेरी सुनामी की फ्रिक्वेंसी इतनी है कि अब तबाही में ही रहने की आदत हो गई है। नहीं चाहता कुछ भी व्यवस्थित करना... बस दौड़ते रहने की चाह है... बिना सोचे, जाने, समझे... कई बार तो उजियारे की चाह में जुगनूओं को भी एक-एक कर बिन लेता हूं... शायद कभी रोशन हो मेरा स्व... शायद सुनामी थमे... शायद जिंदगी की रेस में जिंदगी से मुलाकात हो... शायद रोशनी किसी दिन मेरा कंठ तक तर कर दे... शायद...
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