Tuesday, August 27, 2013

दगाबाज...


रोज दिन, रात गुजरते हैं यूं
जैसे वक्त का डेरा हो मुंडेर पर मेरी
अरसा हुआ मुस्कुराए उसे
बस एकटक देखता है सूरत मेरी
यकिं हो चला अब मुझे
कि न बदलेगा ये कभी
ये मेहरबां न हो तो क्या
साथ तो न छोड़ेगा ये कभी
तभी एक सुबह ऐसी आई
जब आंखें खुली 
मुंडेर मेरी सूनी मिली
और, वक्त के निशां
चेहरे पर छूटे मिले

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