दगाबाज...
रोज दिन, रात गुजरते हैं यूं
जैसे वक्त का डेरा हो मुंडेर पर मेरी
अरसा हुआ मुस्कुराए उसे
बस एकटक देखता है सूरत मेरी
यकिं हो चला अब मुझे
कि न बदलेगा ये कभी
ये मेहरबां न हो तो क्या
साथ तो न छोड़ेगा ये कभी
तभी एक सुबह ऐसी आई
जब आंखें खुली
मुंडेर मेरी सूनी मिली
और, वक्त के निशां
चेहरे पर छूटे मिले
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