बदलता वक्त
बारिश भी नहीं भीगाती
न ही आता है
शिशिर में तेरी कुरबत का ख्याल
तपन भी अब कहां वैसी
कि कंठ में आ जमे प्यास
जिंदगी की ट्रेन को
देख रहा हूं छूटते
खिड़कियों, दरवाजों पर असंख्य हाथ
थाम लेना चाहते हैं मुझे
पर अब, न दिल-न कदम
देते हैं मेरा साथ
हाड़-मांस का यह जिस्म
पता ही नहीं चला
कब पत्थर में बदल गया
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