खाली होना भी
खलता है
और, व्यस्त होना भी
सोचता हूँ
दिमाग में उग आए जंगल की
थोड़ी काँट-छाँट कर दूँ
पर, मुझे कहाँ पसंद है
व्यवस्थित बगीचा
सोचता हूँ
उलझनों की ऊहापोह से निकलकर
जी लूँ, कुछ देर अपने साथ
पर, मैं खुद को ही क्यों खलता हूँ?
तंग आ गया हूँ
हर वक्त के सफर से
पर, सुस्ताने से कहाँ राहत पाता हूँ
सोचता हूँ
कर दूँ भीड़ में इस कदर गुम
ढूँढने से भी ना मिलूँ खुद को
पर, कमबख्त!
वहाँ भी तो अकेला होता हूँ
कहीं मिलेगा ऐसा एकांत?
जहाँ अकेले रहकर भी
अकेला ना रहूँ
जहाँ, अकेला ना रहकर भी
निपट अकेला हो जाऊँ
थक जाना चाहता हूँ इस कदर
दिल, आत्मा, शरीर सब
एकसाथ चूर हो जाएँ
धीरे-धीरे 'शून्य"
गहरे, और गहरे
मुझमे, मैं उसमें
समा जाऊँ
पर, कमबख्त!
ऐसा भी कहाँ होता है!
खलता है
और, व्यस्त होना भी
सोचता हूँ
दिमाग में उग आए जंगल की
थोड़ी काँट-छाँट कर दूँ
पर, मुझे कहाँ पसंद है
व्यवस्थित बगीचा
सोचता हूँ
उलझनों की ऊहापोह से निकलकर
जी लूँ, कुछ देर अपने साथ
पर, मैं खुद को ही क्यों खलता हूँ?
तंग आ गया हूँ
हर वक्त के सफर से
पर, सुस्ताने से कहाँ राहत पाता हूँ
सोचता हूँ
कर दूँ भीड़ में इस कदर गुम
ढूँढने से भी ना मिलूँ खुद को
पर, कमबख्त!
वहाँ भी तो अकेला होता हूँ
कहीं मिलेगा ऐसा एकांत?
जहाँ अकेले रहकर भी
अकेला ना रहूँ
जहाँ, अकेला ना रहकर भी
निपट अकेला हो जाऊँ
थक जाना चाहता हूँ इस कदर
दिल, आत्मा, शरीर सब
एकसाथ चूर हो जाएँ
धीरे-धीरे 'शून्य"
गहरे, और गहरे
मुझमे, मैं उसमें
समा जाऊँ
पर, कमबख्त!
ऐसा भी कहाँ होता है!
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