बचपन में एक स्वप्न
करता रहा है परेशान
गिर रहा हूँ मैं गहरे
गहरे, और गहरे
नीचे देखने पर
नजर नहीं आता कुछ
और फिर डरकर
खुल जाया करती थी नींद
अब न तो यह सपना डराता
शायद ऐसा नजर भी नहीं आता
बड़ा जो हो गया हूँ
रोज गिरता हूँ
या गिरा दिया जाता हूँ
कई बार इतना गहरा
ध्ाकेला जाता हूँ
शरीर तो क्या आत्मा
तक सिहर जाती है
जान गया हूँ, उस स्वप्न से कहीं
निष्ठुर है जिंदगी
अब मुझे वह सपना
याद आता है, लुभाता है
ऐसा कभी हमारे साथ भी होता था. अपने गम में मुझे बराबर का शरीक समझें.
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