रिश्ते को जीने से
उसके जीने की आदत हो जाती है
जीते-जीते ही उसमें
रिसने की आदत हो जाती है
बूंद-बूंद कर
एक खालीपन की आदत हो जाती है
इस रिक्तता में ही कहीं
खोने की आदत हो जाती है
फिर इस शून्य में ही कहीं
मैं और वह समा जाते हैं
रिश्ते को जी लेने से
बचता कुछ नहीं है
ना मैं होता हूं
ना वह
लेकिन, ना जीया जाये तब
मैं तो होता हूं
साथ होती है
मरघट सी विरानी
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