भीगा-भीगा
कुछ रूखा-रूखा मैं
भीड़ में भी
कुछ तन्हा-तन्हा मैं
हर वक्त, सोते-जागते
व्यस्तता की तलाश में डूबा मैं
काम होकर भी खाली
तन्हाई में भी कहीं खोया मैं
क्या करूं, कैसे पाऊं
तुझसे छुटकर, खुद को मैं
फिर सोचता हूं
कैसे जी पाऊंगा
खुद को पाकर
बिन तेरे मैं
पता है
ये जो स्पर्श है ना तेरा
हर वक्त मेरे मर्म को
रहता है छुए
चाहूं तो भी
तुझसे छुटकर कहीं नहीं
जा सकता हूं मैं
आपकी इस प्रतिभा से परीचित नहीं थे, बहुत बढ़िया है।
ReplyDeleteशुक्रिया, बस आपका आशीष बना रहे।
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