दर्द तो वही देता है
जो अपना होता है
वर्ना तो आप हो
ये भी, किसे पता होता है
आपके होने, ना होने का पता भी
कोई अपना ही तो देता है
वर्ना तो जिंदा हो
इससे भी किसे ताल्लुक होता है
छांह में तो सुस्ताते हैं सब
कड़ी धूप में अपना ही साथ होता है
मुसाफिर तो आते, जाते हैं
कोई अपना ही तो ताउम्र बसर करता है
कोई अपना भले दर्द दे दे
धोखा कभी नहीं देता है
अपनों का दिया दर्द
अक्सर दवा बन जाता है
वर्ना तो दवा के नाम पर
दुनिया में जहर ही दिया जाता है
भीगा-भीगा
कुछ रूखा-रूखा मैं
भीड़ में भी
कुछ तन्हा-तन्हा मैं
हर वक्त, सोते-जागते
व्यस्तता की तलाश में डूबा मैं
काम होकर भी खाली
तन्हाई में भी कहीं खोया मैं
क्या करूं, कैसे पाऊं
तुझसे छुटकर, खुद को मैं
फिर सोचता हूं
कैसे जी पाऊंगा
खुद को पाकर
बिन तेरे मैं
पता है
ये जो स्पर्श है ना तेरा
हर वक्त मेरे मर्म को
रहता है छुए
चाहूं तो भी
तुझसे छुटकर कहीं नहीं
जा सकता हूं मैं
वो दिलाता रहा
यकिने मोहब्बत
और, मुझे उसके झूठ से
हो गई मोहब्बत
गुजारिश है मेरी
यूं ही तू
करते रहना इजहार
अब तो कसम से
टिकी है जिंदगी मेरी
तेरे इसी एक झूठ से