पनाह में छुपा ले मुझे
कि रास अब आती नहीं ये दुनिया
सदी के मानिंद
गुजरता है हर एक पल
हर शख्स लगता है अजनबी
और चुभती है शूल की तरह जिंदगी
मैं अटका हूं कहीं
कि कब आएगा वो कल
जब काली बदली बन
बरसेगी तू घनघोर
जब शरद की चांदनी बन
कर देगी शीतल मेरा हर पोर
जब सहरा के इस प्यासे को
नख-शिख तक कर देगी तर
कब...कब...कब...
बता ए-पत्थरदिल
जब तू पिघल कर
बहने लगेगी उस दरिया की तरह
जो पनाह देगा मुझे
और मैं डूब जाऊंगा
अनंत-अनंत गहराई में कहीं
its not only poem.but philosophy...
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