प्यास
Saturday, March 23, 2019
Tuesday, May 22, 2018
Tuesday, August 22, 2017
छूट जाना
छूट गया है वो
जो बसता था कभी
बहता रहता था हर वक्त
सोते-जागते
मुझमें ही गुनगुने पानी सा
छूट गया है वो
जो धड़कता था कभी
मुझमें दिला-सा
छूट गया है कहीं वो
जो जगाये रखता था
मुझे विचारों सा
छूट गया है वो
आता-जाता था
मुझमें सांसों सा
छूट गया है वो
जो कभी भेदता था
मुझे नजरों सा
छूअन, स्पंदन, धड़कन
रक्त, अहसास, आस
ये हाड़, ये मांस
सब छूट गया
Thursday, June 15, 2017
वो चाहती हैं
वो चाहती हैं
खुशियों का झरना
सदा बहता रहे दामन से।
हर बच्चा
चैन से सुस्ता ले
उनकी बरगद सी छांह में।
मक्खन से हाथों का स्पर्श
छीन ले सारे रंजो-गम
चहेतों के जीवन से।
गोद में जो आए कोई
भूल जाए फिर
हर दर्द जो छिपा हो दिल में।
वो चाहती हैं
उनकी पनीली आँखों में
कोई झांक कर खंगाल ले
वो सारे रहस्य
कैसे स्पष्ट हार पर भी
धैर्य ओढ़ा जाता है।
कैसे बुरे वक्त को
उम्मीद की एक किरण के सहारे टाला जाता है।
कैसे बड़े गुनाह पर भी
माफी का इनाम दिया जाता है।
कैसे गिरने पर भी
हौंसलों से सहारा दिया जाता है।
कैसे बच्चों की फरमाइश को
खुद की इच्छा का नाम दिया जाता है।
कैसे दिल में उमड़े सैलाब को
आंखों तक भी न आने दिया जाता है।
कैसे हंसी-हंसी में
जिंदगी का रहस्य समझाया जाता है।
कैसे अपने फैसलों पर
पहाड़ समान अडिग हुआ जाता है।
कैसे बहुओं और बेटियों को
फैसलों का अधिकार दिया जाता है।
वो चाहती हैं
लेकिन, कहती कुछ नहीं।
कभी नहीं कहा कुछ
सब समझा गया।
जिसने जो समझा
अपने-अपने तई मान लिया।
पूरी तरह कभी कुछ नहीं समझा गया
वैसा, जैसा वो चाहती हैं।
शायद पूरी तरह कभी
समझा भी ना जा सके
भला ईश्वर को कोई
पूरी तरह समझ सका है।
Monday, September 26, 2016
Friday, September 16, 2016
शून्य
रिश्ते को जीने से
उसके जीने की आदत हो जाती है
जीते-जीते ही उसमें
रिसने की आदत हो जाती है
बूंद-बूंद कर
एक खालीपन की आदत हो जाती है
इस रिक्तता में ही कहीं
खोने की आदत हो जाती है
फिर इस शून्य में ही कहीं
मैं और वह समा जाते हैं
रिश्ते को जी लेने से
बचता कुछ नहीं है
ना मैं होता हूं
ना वह
लेकिन, ना जीया जाये तब
मैं तो होता हूं
साथ होती है
मरघट सी विरानी
Friday, March 25, 2016
बर्थ डे प्रोमिस
वो कहती है- दाता मेरा रिजल्ट आने वाला है। मैंने कहा- अच्छा... तो डर लग रहा है।
तो जवाब आता है- डर क्यों?
मैं- तो कम मार्क्स आने का डर नहीं है।
वो- नहीं, मुझे सब आता है। नानी कहती है... मुझमें बुद्धि है।
मैं- अच्छा, यदि कम मार्क्स आए तो मैं पप्पियां देना बंद कर दूंगा।
वो- नहीं।
मैं- क्यों?
वो- दाता... रिजल्ट का पप्पियों से क्या संबंध?
कुछ दिन बाद वो धीरे से मेरे सीने पर लेटती है, कहती है- दाता, पप्पियां देना बंद मत करना, प्लीज।
मैं भरी आंखों से उसे सहलाता हूं, पर बैचेन हूं बहुत। उसे मेरा कहा इतना याद है। क्या इतना सिरियसली लेती है वो मुझे? क्या उस दिन का मेरा कहा अब तक उसमें कहीं घुम रहा था, परेशान कर रहा था?
फिर रिजल्ट आने वाले दिन वह सुबह 6 बजे ही उठ जाती है। जल्दी है उसे नतीजे से ज्यादा इसकी कि वह फर्स्ट में जाने वाली है। मुझे जल्दी जगा देती है कि उठो रिजल्ट आने वाला है। आपको और मम्मा को चलना है स्कूल। फिर धीरे से धमकी- पप्पियां देना ही है, उसका रिजल्ट से कोई संबंध नहीं है।
मैं हां कहता हूं, तभी फरमाइश आ जाती है कि नानी ने कहा था कि रिजल्ट आएगा तो पिजा खिलाएंगें। मैं फिर आदतन बोलता हूं कि अच्छा रिजल्ट रहा तो पिजा। उसका गुस्से से फिर एक जवाब- दाता, रिजल्ट का पिजा से कोई संबंध नहीं है। मैं हंसता हूं और कहता हूं अच्छा क्यों नहीं है संबंध। तो जवाब मिलता है- दाता, पिजा खाने की चीज है, जैसे खाना खाते हैं वैसे ही। अब रिजल्ट आएगा या नहीं आएगा तो क्या मैं कुछ खाऊंगी नहीं?
मैं खोया-खोया उसके स्कूल पहुंचता हूं। सारे रास्ते ये सोचता हुआ कि कितना कुछ है जो यह जरा सी जान मुझे सीखा रही है। आखिर ऐसी उम्मीदें क्यों? उम्मीदों का बोझ ही क्यों? शर्तें ही क्यों? शर्तें पूरी करने का दबाव क्यों? स्पर्धा क्यों? सफलता-असफलता के पैमाने क्यों?
ऐसी ऊहापोह में रिजल्ट हाथ में आता है और वो मेरी आंखों में झांक कर कहती है- देखा दाता... रिजल्ट अच्छा आया ना... वो तो आना ही था। अब तो पप्पियां दोगे ना और चलो पिजा खाने।
लव यू युगी...ना कभी पप्पियां बंद होगी ना कभी पिजा के लिए किसी रिजल्ट का इंतजार होगा। प्रोमिस कि तुझे कभी कोई परीक्षा से नहीं गुजरने दूंगा।
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